ऐसे लोग कहाँ मिलेंगे

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मधु लिमये (1 मई 1922 - 8 जनवरी 1995)


— हरीश खन्ना —

ठ जनवरी, 1995 को मैं अपने कॉलेज के मित्रों और सहयोगियों के साथ महाबलेश्वर में एक होटल में ठहरा हुआ था। हम लोग पूना से एक सेमिनार के पश्चात वहाँ घूमने गए थे। अचानक मेरे मित्र प्रो. वरमानी ने मुझे आवाज देकर जोर से पुकारा- हरीश, देखो न्यूज में क्या आ रहा है।

मैं नहाने की तैयारी कर रहा था। आवाज सुनकर मैं भागकर बाथरूम से बाहर आया। देखा तो टीवी में यह समाचार आ रहा था कि महान समाजवादी नेता मधु लिमये नहीं रहे। मैं यह समाचार सुनकर हतप्रभ रह गया कि यह क्या हुआ! मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। पर सभी चैनलों पर यही समाचार आ रहा था। मेरी आँखों में ऑंसू आ गए, मैं अत्यंत भावुक हो गया।

आने से पहले 1 जनवरी को मैं उनसे मिलकर आया था। ऐसी कोई आशंका या संभावना नहीं थी कि कोई अनहोनी होने वाली है। सेहत वैसे उनकी कोई अच्छी नहीं रहती थी। उनको अस्थमा की समस्या तो थी ही, साथ ही, उनको एक ऑंख से बहुत कम दिखाई देने लग गया था। पर अचानक वह यूं ही चले जाएंगे, यह कभी नहीं सोचा था। मैं तत्काल दिल्ली के लिए रवाना हो गया। महाबलेश्वर से पूना आया, वहाँ से फ्रंटियर मेल में जगह मिली। उन दिनों आजकल की तरह सस्ती एयरलाइंस नहीं थीं जो मैं उसमें आने की सोच पाता। दिल्ली आते-आते देर हो चुकी थी। तब तक उनका अंतिम संस्कार हो चुका था। अफसोस, उनके अंतिम दर्शन नहीं कर पाया। अगले दिन चंपा जी से मिला तो बहुत भावुक हो गया। मन बहुत दुखी था।

मधु जी से मेरी पहली मुलाकात 1974 के आसपास हुई। रात का समय था। पंडारा रोड के उनके निवास, जो सांसद के बतौर उनको मिला था, उसके लॉन में मैं बैठा था। अंदर मेरे मित्र राजकुमार जैन और रवींद्र (गोपी) मनचंदा मधु जी से किसी बातचीत के सिलसिले में गए थे। मैं बाहर बैठा उन दोनों का इंतजार कर रहा था। बातचीत जब खत्म हुई तो मधु जी उन दोनों के साथ बाहर निकले। ॲंधेरे में मुझे बैठा देखकर कड़क आवाज में बोले, कौन है? मैंने खड़े होकर नमस्कार किया। राजकुमार जैन बोले- यह हरीश है। हमारा साथी है। मधु जी ने सिर हिलाया और कहा, तो अंदर क्यों नहीं लेकर आए। मैंने कहा- मैं खुद ही बाहर बैठ गया था।

मधु जी से यह मेरी पहली मुलाकात थी। उसके बाद मेरा मिलना-जुलना शुरू हो गया और धीरे-धीरे उनके परिवार का एक हिस्सा बन गया। उन्होंने हमेशा मुझे अपने परिवार के सदस्य और बच्चों की तरह प्यार दिया। उनकी विद्वत्ता, ईमानदारी, सादगी और समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को बहुत नजदीक से देखने का मुझे सौभाग्य मिला।

जब कभी बंबई (मुंबई) जाता तो बांद्रा में उनके घर में बिना खाना खिलाए चंपा जी और मधु जी छोड़ते नहीं थे। उनका यह प्यार और अपनत्व सिर्फ मेरे साथ ही नहीं था बल्कि जितने भी लोग उनके नजदीक होते थे, सभी के साथ होता था। देखने में शुरू में रूखे-से स्वभाव के लगते थे पर धीरे-धीरे घुल-मिल जाते थे। एक बार मधु जी से मैंने कहा, आप मेरे घर खाना खाने आएं। उन्होंने कहा, जरूर आऊंगा। वह मेरे यहाँ खाना खाने के लिए मुखर्जी नगर आए भी। साथ में चंपा जी भी थीं। मैं किराए के मकान में रहता था। घर में बैठने के लिए तब तक सोफा नहीं लिया गया था, नीचे गद्दे पर बैठकर चंपा जी और मधु जी ने प्रेम के साथ खाना खाया।

कोई अहंकार नहीं, कोई दिखावा नहीं। उस दिन सचमुच मैं गर्व से भर गया। एक ऐसा इंसान जिसकी विद्वत्ता, प्रेम और आदर की वजह से कई प्रधानमंत्री और गवर्नर उनके यहाँ सलाह-मशविरा करने आते थे जिन्हें मैंने अपनी आंखों से देखा था, वह मेरे जैसे मामूली और साधारण इंसान के यहाँ जमीन पर नीचे बैठकर खाना खा रहे थे। सचमुच वह एक महान व्यक्ति थे। मेरे लिए एक भेंट भी लाए थे- कुर्ते का कपड़ा। रॉ सिल्क का वह कुर्ते का कपड़ा मेरे लिए बहुत अनमोल था। मैंने बहुत सॅंभाल कर रखा हुआ था। कुछ समय पहले उसको सिलवाया गया और पहली बार मैंने उसे पिछले साल पहना।

एक दिन मधु जी का फोन आया क्या कर रहे हो? मैंने कहा, कुछ खास नहीं।

बोले, घर आओ, कहीं बाहर खाना खाने चलते हैं। मैं तैयार होकर वेस्टर्न कोर्ट पहुॅंचा। मधु जी उन दिनों वहीं रह रहे थे। उनके भाई अमरीका से आए हुए थे। उनसे मेरी पहली बार मुलाकात हुई थी। उनके परिवार के कुछ अन्य सदस्य भी आए हुए थे। मधु जी ने मुझे कहा कि कहीं अच्छा खाना खाने जाना चाहते हैं, कहाँ चलें? मैंने पूछा, मुगलई या चाइनीज? अगर मुगलई खाना चाहते हैं तो पंडारा रोड की मार्केट में खा सकते हैं। अगर चाइनीज खाना चाहते हैं तो कनॉट प्लेस बेरकोज में चल सकते हैं। तो चलो बेरकोज चलते हैं। तब बेरकोज रेस्टोरेंट कनॉट प्लेस के इनर सर्किल में स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के नजदीक हुआ करता था। उस दिन बेरकोज हम सभी ने खाने का आनंद लिया। मधु जी ने एक राजनेता की तरह नहीं बल्कि एक साधारण व्यक्ति की तरह जीवन जीया।

मधु जी स्वतंत्रता सेनानी थे। 1938 से 48 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े हुए थे। बाद में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े। 1940-45 तक चार साल अंग्रेज सरकार की जेल काटी। स्वतंत्रता के पश्चात स्वतंत्रता सेनानियों को मिलनेवाली पेंशन लेने से इन्होंने मना कर दिया। गोवा मुक्ति आंदोलन में इन्हें 1955 में 12 साल की जेल हुई। 19 महीने पुर्तगालियों की जेल में रहे। चार बार बिहार के मुंगेर और बांका से लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। 1977 में जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बने और जनता पार्टी के विभाजन के बाद चौधरी चरण सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के भी महासचिव बने। कभी मंत्री-पद स्वीकार नहीं किया। मोरारजी देसाई उन्हें अपनी कैबिनेट में विदेश मंत्री बनाना चाहते थे पर उन्होंने मना कर दिया। चौधरी साहब भी उन्हें अपने मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

अपने उसूलों के पक्के थे। कभी भी सत्ता का मोह उन्हें विचलित नहीं कर सका। सादगी इतनी कि गाड़ी, बंगला, टीवी, फ्रिज, कूलर कुछ भी नहीं था उनके पास। सच्चे गांधीवादी और उनके आदर्शों पर चलनेवाले। जनता पार्टी की सरकार के दौरान 1977 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को वह सजा देने के पक्ष में नहीं थे बल्कि यह चाहते थे कि वह देश के सामने अपनी गलती मान लें तो उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। पर पार्टी के अन्य लोग उन्हें जेल भेजने के पक्ष में थे। मधु जी यह कतई नहीं चाहते थे। उनका मानना था, बदले की भावना से कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। इससे इंदिरा जी फिर मजबूत होकर उभरेंगी। पर उनकी बात को अनसुना कर दिया गया और उनकी बात सही साबित हुई। इंदिरा जी सत्ता में 1980 में दोबारा आईं।

जीवन के आखिरी दिनों में उन्होंने मेरे से लायब्रेरी से कुछ पुस्तकें मॅंगवाईं जिनमें ग्रीक ट्रेजेडी की पुस्तकें भी थीं जिन्हें वह पढ़ रहे थे।

मधु जी शास्त्रीय संगीत के बहुत शौकीन थे। जब कभी राजनीति से दुखी और व्याकुल होते थे तो संगीत में अपना मन लगाते थे। भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, पंडित जसराज, किशोरी अमोनकर, शायद ही उस जमाने का कोई ऐसा गायक होगा जिसका प्रोग्राम सुनने के लिए यह न पहुॅंचे हों। उस जमाने के जितने भी प्रतिष्ठित शास्त्रीय गायक थे, वह सब भी उनको जानते थे और उनका आदर करते थे। मुझे उनके साथ इस तरह के कार्यक्रमों में जाने का कई बार सौभाग्य मिला। यह मेरा सौभाग्य है कि ऐसे ईमानदार व्यक्ति के साथ उनके समाजवादी परिवार का मैं हिस्सा बनकर रहा। उनकी जन्म शताब्दी पर उनको शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि।

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  1. सुंदर स्मृति को शब्द दिए आपने हरीश खन्ना जी, सचमुच अब ऐसे लोग कहां मिलते हैं ?

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