1.
हर कोई बेशक्ल, बेचेहरा नज़र आता है क्यों,
सब में एक और ही चेहरा नज़र आता है क्यों।
तुझ से आ कर जो मिला तेरे ही जैसा हो गया
मेरे चेहरे में तेरा चेहरा नज़र आता है क्यों।
जो भी मिलता है लिये है एक मुखौटा हाथ में
बस मुखौटे जैसा हर चेहरा नज़र आता है क्यों।
कह रहे हैं उनका मक़सद देश हो ख़ुशहाल फिर
देश का बिगड़ा हुआ चेहरा नज़र आता है क्यों।
पूछिए, है साहिबों की कलम में क्या कमाल
भूख से भी चमकता चेहरा नज़र आता है क्यों।
2.
जब भी इस दौर का इतिहास लिखा जाएगा।
हम नपुंसक भीड़ का हिस्सा थे लिखा जाएगा।
बेटियाँ थीं खौफ़ में, दहशत ज़दा थीं हर जगह
और हम ख़ामोश थे डर कर, ये लिखा जाएगा।
जो कबूतर अम्न की ख़ातिर उड़ाए थे गए
रात प्लेटों में सजे, किस्सा ये लिखा जाएगा।
आए थे क़िस्मत बदलने का जो वादा साथ ले
बाँटते बस रह गए सपने थे लिखा जाएगा।
आग भड़केगी तो पहुँचेगी तेरे घर तक ज़रूर
शह हवा को दे रहा तू भी था लिखा जाएगा।
फूल जो बरसे थे तुम पे, रंग में उनके हुज़ूर
ख़ून शामिल था हमारा ये भी लिखा जाएगा।
3.
शहर के चेहरे पे है गर्द-ओ-ग़ुबार
इतने तनहा कब थे रस्ते बेकरार।
मौत जिन खेतों में थी बोई गयी
आज उन खेतों पे आई है बहार।
सारे नुस्खे, सब करामातें फ़िजूल
मौत के साये में दुनियाँ सोगवार।
चाँद पर बसने के सपने पालते,
चुप हैं तनहाई में सारे होशियार।
हुस्न के जलवे और बातें इश्क़ की
ये सिला मिलता कहाँ है बार बार।
4.
रास्ते क्या, मंज़िलें भी पुरख़तर हैं, क्या हुआ है।
दर्द के साये सफ़र में इस कदर हैं, क्या हुआ है।
जल रहे माथे को अब भी लम्स किसके याद हैं
छू हुई सारी तड़प, कैसा असर, ये क्या हुआ है।
एक ख़ुशबू हर तरफ़ चलती है मेरे साथ साथ
है उजाला राह में, किसकी नज़र है, क्या हुआ है।
बेतरह कालिख जमी है हर दर-ओ-दीवार पर
यूँ घृणा की आग में लिपटा शहर है, क्या हुआ है।
गाँव में अपने नदी होती थी जब सड़कें न थी
वो कई बरसों से ना जाने किधर है, क्या हुआ है।
सुन रहा हूँ हो गयी है सारी दुनिया एक गाँव
कौन है अपना पड़ोसी, बेख़बर हूँ, क्या हुआ है।
आदमी हूँ आदमी से पर कोई मतलब नहीं
सब के ग़म से बेख़बर-ओ-बेअसर हूँ, क्या हुआ है।
रात की पगडंडियों पर तेरी मुस्कानों के फूल
चाँदनी है या कोई जादू इधर है, क्या हुआ है।
कब से बैठा मुंतज़िर हूँ कोई अपने संग चले,
रास्ते सब के अलग, कैसा सफ़र है, क्या हुआ है।
5.
कब तलक ऐसे रहेगी सल्तनत ॲंधेरों की।
एक दिन मंज़िल मिलेगी रोशनी के डेरों की।
टूट ही जाएँगे इक दिन चुप्पियों के ये तिलिस्म
आओ कोई धुन तो छेड़ें रेशमी सवेरों की।
पत्थरों की महफ़िलों में बेहिसों के चर्चे थे
किस को याँ थी फिर पड़ी जल रहे बसेरों की।
एक दिन तो लाज़िम था घर का तेरे लुट जाना
किस को रास आयी है दोस्ती लुटेरों की।
सब के झूठ थे अपने सब की थीं खुदगर्जियाँ
हमने ही आख़िर रची थीं साज़िशें ॲंधेरों की।
शोर के अंधे सफ़र में मुब्तिला थे सारे लोग
कद्र उनको होती क्या अब गज़ल की, शेरों की।
सच के हक़ में बोलता तो बोलता कैसे कोई,
डर के कुहरे में दफ़न थी रोशनी सवेरों की।