— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
साथी कुलबीर सिंह ने मुझे ‘फ्रेंड्स ग्रुप’ के साथ जोड़कर, दिल्ली यूनिवर्सिटी के पुराने वक्त के साथियों की खैर-खबर जानने का जरिया प्रदान कर दिया। हम सबने दिल्ली यूनिवर्सिटी के वटवृक्ष के नीचे जिंदगी की शुरुआत की थी। जीवन के संध्याकाल में इंसान की फितरत होती है कि वह बिताए हुए कल की यादों में ज्यादा अपनापन महसूस करता है। फ्रेंड्स ग्रुप की मार्फत बहुत कुछ ऐसी जानकारी वक्त-वक्त पर मिलती रहती है जो रोजमर्रा की जिंदगी के लिए बहुत ही उपयोगी, जरूरी होती है। मुख्तलिफ विचारधाराओं, अकीदों, कारोबार में होने के बावजूद तकरीबन 50 साल पहले बिताए गए वक्त की याद दिला देते हैं।
पंकज वोहरा, देश के वरिष्ठ पत्रकार, हिंदुस्तान टाइम्स, मैनेजिंग एडिटर द संडे गार्जियन के माध्यम से उनके राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मसलों पर सियासी विचारोत्तेजक लेख के साथ-साथ फिल्मी दुनिया की अबूझ कहानियां भी अक्सर पढ़ने को मिल जाती हैं।
आज मेरे जहन में कुलबीर सिंह की तस्वीर और शख्सियत आंखों के सामने घूमने लगी। कुलबीर सिंह लॉ फैकल्टी स्टूडेंट्स यूनियन के प्रेसिडेंट थे। लॉ फैकेल्टी की बैरिक में, इंडियन कॉफी हाउस तथा यूनियन का दफ्तर था। रामजस कॉलेज तथा दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के चौराहे पर 3 फुट ऊंची दीवार तथा बिना दरवाजे के आर-जार के लिए घुमावदार रास्ता 24 घंटे खुला रहता था। दिल्ली यूनिवर्सिटी के हर रंग के विद्यार्थी, शिक्षक, कर्मचारी तथा पुराने छात्र बिना किसी रोक-टोक के कॉफी हाउस आते थे। कॉफी हाउस सीमेंट की खपरैल के नीचे बने हॉल, बरामदे के साथ-साथ खुले मैदान में बना था। खुले आसमान के नीचे बने कॉफी हाउस में गहमागहमी रहती थी। उन्मुक्त हॅंसी, ठहाके तथा कुछ मेजों पर वैचारिक बहसों की गर्माहट, तेज आवाज भी गूॅंजती रहती थी। बहुत ही कम पैसों में कॉफी, बड़ा, दोसा मिल जाता था। एक मायने में वह ऐसा मिलन स्थल था, जहाँ की मेजों पर सियासत से लेकर शैक्षणिक जगत, खिलाड़ियों, गीत संगीत, नाटककारों के टेबल पर बैठे हुए रियाज, सुर-बेसुर के गाने, आशिकी माशूकी, कॉफी हाउस की दीवार पर खड़े होकर भाषण देते हुए छात्र नेताओं का सिलसिला भी चलता रहता था। यूनिवर्सिटी कैंपस में कोई भी जुलूस निकल रहा होता तो उसका एक पड़ाव लाजिमी तौर पर कॉफी हाउस होता था। कॉफी हाउस का तसव्वुर आज भी आंखों के सामने जस का तस मौजूद रहता है।
साठ के दशक के दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र आंदोलन का जब भी जिक्र होगा तो कुलबीर सिंह की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। इनका यूनियन दफ्तर एक तरह का सदर मुकाम तथा सराय था। किसी को सूचना देने अथवा लेने का जरिया बना हुआ था। आंदोलनों की रूपरेखा, तैयारी यहीं पर होती थी। रात्रि को धरना, प्रदर्शन, घेराव होने के हालात में यही दफ्तर पनाहगाह होता था। हालांकि कुलबीर सिंह एक मायने में ‘लेफ्ट टू कांग्रेस’ विचारधारा के तरक्कीपसंद, सेकुलर जहनियत के हैं। इनकी संगत में कांग्रेसी, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट सभी विचारधारा वाले जुड़े रहते थे। धाराप्रवाह उत्तेजक शैली में धारदार भाषण देने की कला के कारण विद्यार्थियों में इनकी लोकप्रियता बनी हुई थी। इनके दफ्तर में एक साथी अगर मैं नाम नहीं भूल रहा, साथी गंगाराम अधिकतर दफ्तर में हो रही कार्यवाही में इनकी मदद करते थे। वर्तमान में कुलबीर सिंह, सुप्रीम कोर्ट के मरहूम बहुचर्चित न्यायाधीश वी आर कृष्णा अय्यर फाउंडेशन, फ्री लीगल एड सोसायटी के माध्यम से कानूनी जगत के जटिल पहलुओं पर सेमिनार, सिंपोजियम, मेमोरियल लेक्चर के साथ-साथ अनेकों सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर अपना योगदान करते रहते हैं। यारों के यार, कभी माथे पर शिकन नहीं, भय और लालच से कोसों दूर अपने कुलबीर सिंह पर हमें नाज है।