— योगेन्द्र यादव —
राष्ट्रवाद की परीक्षा सीमा पर होती है। देश की सीमा सिर्फ सुरक्षा बलों के शौर्य की ही नहीं, राजनीतिक नेतृत्व की समझ-बूझ की परीक्षा भी लेती है। पिछले सप्ताह मणिपुर में हुई हिंसा राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर भाजपा नेतृत्व की नीयत और नीति दोनों पर सवाल खड़ा करती है। राज्य के नाजुक जातीय संतुलन की अनदेखी कर अपना राजनीतिक एजेंडा लादने की कोशिश इस सीमावर्ती राज्य के लिए ही नहीं, देश के लिए भी महंगी पड़ सकती है।
पहली नजर में मणिपुर में हुई हिंसा दो बड़े समुदायों मितेई और कुकी के बीच हुई जातीय हिंसा है। मणिपुर की घाटी में बसा मितेई समुदाय राज्य का बहुसंख्यक समुदाय है। वैष्णव हिंदू आस्था वाले मितेई समाज का राज्य की आबादी में 54 प्रतिशत हिस्सा है और राजनीति में दबदबा है। पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों में यही एक बड़ा हिन्दू समुदाय है। जाहिर है राज्य में भाजपा का अधिकतर समर्थन मितेई समाज से है। सरकारी तौर पर इन्हें ओबीसी का दर्जा प्राप्त है।
उधर मिजोरम और म्यांमार से जुड़े इलाकों में बसे कुकी आदिवासी समुदाय की संख्या केवल 15 प्रतिशत के करीब है लेकिन इंफाल के नजदीक के कुछ पहाड़ी जिलों में इनका दबदबा है। मणिपुर के कुकी, पड़ोसी मिजोरम के लुशाई और सीमापार म्यांमार में बसे चिन सभी एक ही समाज के लोग हैं, आपसी रिश्तेदारी है। हालांकि पिछले साल चुनाव में भाजपा को कुकी बहुल क्षेत्र में भी कुछ सफलता मिली थी, लेकिन भाजपा सरकार के कई कदमों के कारण कुकी समाज से उसका और खासतौर पर मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह का छत्तीस का आंकड़ा बन गया है। यह राजनीतिक अलगाव पिछले सप्ताह हुई हिंसा की जड़ में है।
पिछले साल मणिपुर चुनाव में दोबारा सत्ता हासिल करने के बाद मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने दो मुद्दों पर कुकी इलाकों में सख्ती करनी शुरू की। पहला मुद्दा उस इलाके में बढ़ती हुई अफीम की खेती और ड्रग्स की समस्या से जुड़ा है। इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की चिंता वाजिब है और राज्य सरकार द्वारा कार्रवाई जरूरी थी। लेकिन मुख्यमंत्री ने अफीम के जमींदारों और ड्रग माफिया के खिलाफ मुहिम को कुकी समुदाय के खिलाफ जंग का रूप दे दिया।
उन्होंने कई बार कुकी आदिवासियों को बाहरी और आप्रवासी करार देने वाले बयान दिए जिससे खुद भाजपा के कुकी विधायक भी उनसे बगावत करने पर मजबूर हो गए। दूसरा मामला उन जंगलों से जुड़ा था जिनमें कुकी समुदाय के लोग बसे हुए हैं। हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने मणिपुर में यह दावा किया कि राज्य के जंगल केंद्रीय कानून के हिसाब से चलेंगे और आरक्षित वन क्षेत्र (रिजर्व फॉरेस्ट) को खाली करवाया जाएगा। इस पर भी राज्य सरकार ने समझदारी से काम लेने की बजाय जोर-जबरदस्ती से कई गांव खाली करवाए।
इससे कुकी समुदाय में यह संदेश गया कि राज्य सरकार उन्हें पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर रही है। जब इसका विरोध शुरू हुआ तो मुख्यमंत्री ने जाकर जनता को धमकाया और स्थानीय कुकी भूमिगत उग्रवादियों के साथ कई वर्षों से चले आ रहे समझौते को निरस्त करने और हथियार वापस लेने की प्रक्रिया शुरू की। उधर पिछले कुछ सालों से मणिपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का असर बढ़ने लगा है।
वहां मितेई समाज को स्थानीय परंपरागत जनजाति की विरासत से काटकर उनकी हिंदू अस्मिता को जगाने का काम चल रहा है, क्योंकि अधिकांश मितेई हिंदू हैं (हालांकि उनमें पंगाल समुदाय मुस्लिम और एक बहुत छोटा अंश ईसाई भी है) और अधिकांश कुकी और नागा लोग ईसाई हैं, इसलिए प्रदेश की जातीय विविधता और तनाव को धार्मिक संघर्ष का रूप देने की कोशिश चल रही है। यानी काफी समय से बारूद तैयार हो रहा था और अब बस एक चिनगारी की जरूरत थी।
यह चिनगारी हाईकोर्ट के एक आदेश से निकली जिसमें राज्य सरकार को निर्देश दिया गया था कि वह मितेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की कार्रवाई शुरू करे। मामला 10 साल पुराना था, आदेश हाईकोर्ट का था सरकार का नहीं और वैसे भी राज्य सरकार के करने भर से किसी समुदाय को जनजाति का दर्जा नहीं मिल सकता। लेकिन जातीय तनाव की इस पृष्ठभूमि में कोर्ट के आदेश से लोग भड़क उठे।
उन्हें लगा कि अगर बहुसंख्यक मितेई समुदाय को जनजाति का दर्जा भी मिल जाता है तो उनका राजनीतिक और प्रशासनिक सत्ता पर कब्जा पूरा हो जाएगा। इसका सीधा संबंध जमीन की मालिकीयत से भी है। मणिपुर की 90 प्रतिशत जमीन पहाड़ी है जहाँ केवल अनुसूचित जनजाति के लोग ही जमीन खरीद सकते हैं। अगर मितेई लोग जनजाति बन जाते हैं तो कुकी और नागा जनजातियों को अपने हाथ से जमीन की मालिकीयत छिन जाने का खतरा दिखने लगा। राज्य के कुकी और उनसे भी बड़े नागा जनजाति समुदाय ने इस आदेश के विरुद्ध धरने प्रदर्शन और बंद आयोजित किए।
नागा इलाकों में तो यह विरोध शांतिपूर्ण रहा लेकिन तनाव की पृष्ठभूमि में कुकी इलाकों में इस प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया। उसके बदले में मितेई लोगों ने इंफाल घाटी में बसे कुकी लोगों पर हमला किया। सरकार देखती रही और कुछ ही घंटों में यह आग फैल गई। पिछले तीन दिनों में केंद्र और राज्य सरकार जागी है, राज्य के पुलिस प्रशासन में फेरबदल किया गया है, सुरक्षा बल भेजे गए हैं। लेकिन असली सवाल राजनीतिक है, क्या भाजपा पूर्वोत्तर में आग से खेलना बंद करेगी?