
— रामजी प्रसाद ‘भैरव’ —
आपने कभी उफनाई हुई गंगा को पार किया है। इस संदर्भ में आपका उत्तर हाँ भी हो सकता है और ना भी। जिसने उफनाई गंगा को पार किया है वह जानता है कितना भयावह मंजर होता है। कितनी भयाक्रांत करने वाली लहरें उठती हैं। कितना भय का संचार हो उठता है। परंतु सबके लिए नहीं, केवल उनके लिए जो कभी कभी बढ़ियाई गंगा पार करते हैं। जो लोग रोज आर पार होते हैं उनके लिए खेल है। खेल में भय नहीं होता, उत्साह होता है। हम गंगा के समीपवर्ती गाँव के रहने वाले लोगों के लिए भी, गंगा ने कई अवसर प्रदान किये हैं ।
मित्रों संग कई बार बनारस यात्रा करने के दौरान बढ़ियाई गंगा को पार करने का अत्यंत रोमांचक अनुभव रहा है, लेकिन कभी कभी। बाढ़ के दिनों में प्रायः हमलोग छोटी नौका जिसे डोंगी कहा जाता है, उस पर नहीं बैठते थे। बड़ी नाव जिसमें बीस से पच्चीस लोग आसानी से सवार हो जाएं, उस पर बैठना पसन्द करते थे। अनुभवी लोग बताते थे कि बाढ़ के दिनों में डोंगी पर बैठना, जोखिम भरा होता है। लेकिन बड़ी नाव सुरक्षित होती है।
बड़ी नाव से यात्रा के लिए, कभी-कभी आधे घण्टे या उससे अधिक समय प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। वहीं डोंगी पर एक या दो लोग ही काफी होते। जब बाढ़ का पानी बढ़ जाता, हम लोगों को कभी कभी नदी में उतरकर नाव पकड़ना होता, क्योंकि पानी में बांस का बना पैढ़ी अक्सर डूब जाता था। कभी सुबह जिस रास्ते पर पानी नहीं होता, शाम को उसी रास्ते पर पानी भर जाता, ऐसा पानी के बढ़ाव के कारण होता। कभी पानी में उतरते समय मछलियां पैर में काट लेती थीं, बड़ा भरम होता कि आखिर क्या काट लिया, बड़ा हो-हल्ला मचता। अनुभवी लोग बताते कि मछ्ली ने काटा है। कभी कभी नाव पर बिच्छू भी होते, जो डंक मार देते। बाढ़ के दिनों में कुछ बातें असामान्य हो जातीं।
हमारे घर से गंगाजी तीन किलोमीटर की दूरी पर हैं। इसलिए उत्सव या धार्मिक पर्व पर हमलोग स्नान करने अवश्य जाया करते थे। बलुआ में गंगा पश्चिम वाहिनी हैं, यह संयोग देश के इसी हिस्से में आया। मौनी आमवस्या के दिन यहाँ स्नान करने वालों बड़ा भव्य मेला लगता, समीपवर्ती जिले से लेकर समीपवर्ती बिहार प्रान्त से भी लोग यहाँ स्नान करने आते हैं। लाखों की भीड़ लगती है। यह स्थल बाल्मीकि ऋषि के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ गंगा में एक कुंड भी दिखाई देता है, जहाँ पानी चक्कर काटता है। विशाल भँवर बनता है। बाढ़ के दिनों में उसका घेरा बड़ा हो जाता है। लोग कहते हैं कि कुंड में यदि कोई चला जाय तो डूबना तय है। उसकी गहराई का कोई अनुमान नहीं है। एक बार कुछ साहसी लोगों ने उसकी गहराई नापने का प्रयास किया लेकिन असफल रहे। हालांकि यह भी सच है, कुंड में अभी तक कोई दुर्घटना नहीं हुई है। गाँव के लोग इसे ईश्वर की कृपा ही मानते हैं।
एक घटना और स्मृति में आ रही है। उस समय हम लोग स्नातकोत्तर के छात्र थे, काशी विद्यापीठ में पढ़ते थे, इसलिए बनारस से रोज आना जाना था। बाकी दिनों में पीपा पुल से होकर आना जाना सुरक्षित था लेकिन बाढ़ के दिनों में पुल तोड़ दिया जाता था जिसके कारण हमें नाव का सहारा लेना पड़ता था। घरवालों ने निर्देश दे रखा था, छोटी नाव पर मत बैठना, इसलिए हम प्रायः बड़ी नाव पर ही बैठते थे। इधर कुछ दिनों में अच्छी बात यह हुई कि नाविकों ने इंजन बैठा लिया थाथा, जिससे कम समय में गंगा पार करा देते थे। बाढ़ के दिनों में हवाओं का वेग और पानी का बहाव, दोनों मिलकर नाव की स्पीड कई गुना बढ़ा देते थे।
एक शाम जब हम क्लास कर लौट रहे थे, तो घाट पर अंतिम नाव लगी थी। नाविक अगाह कर रहा था, यह अंतिम चक्कर है। चूंकि दरोगा ने शासन के निर्देश पर समय निर्धारित कर रखा था इसलिए वह बार-बार जल्दी-जल्दी की रट लगाए हुए था। धीरे-धीरे यात्री भर गए। दूधिये, खोइहारे, पैदल, सायकिल वाले, मोटरसाइकिल वाले और अन्य लोग; नाव ठसाठस भर गई। करीब साठ सत्तर लोग हो गए। बाढ़ का पानी हवाओं संग खूब हिलोरा मार रहा था जो देखने से भय पैदा करता। चूंकि नाविकों ने इंजन लगा रखा था इसलिए विश्वास था कि देखते ही देखते हमलोग उस पार पहुंच जाएंगे।
नाव छूटी तो यात्रियों ने गंगा माई समेत सभी देवी-देवताओं को मनाया। ठीक उसी समय नाव पर किसी को बिच्छी मार दी। कुछ लोग चिल्लाए विघ्न कटा, यह शुभ है। जिसको बिच्छी मारा था, वह दर्द से छटपटा रहा था। लेकिन मामला कुछ देर का था। लोगों ने विश्वास दिलाया, बस इंजन स्टार्ट होने भर की देर है फिर उस पार पहुंचकर दवा दर्पण करा लेना। जब इंजन स्टार्ट हुआ, लोगों की बाँछें खिल गयीं। गंगा की छाती पर नाव दौड़ने लगी। उस समय जहाज पर बैठने का सुख हमलोग पा रहे थे। फिर नाव देखते ही देखते इस पार पहुंचने से चंद कदम दूरी पर थी कि अचानक दो बातें एकसाथ हुईं। एक तो इंजन का तेल खत्म हो गया, दूसरा उसके पास लंगर नहीं था। नाव घाट के पास आ चुकी थी। कुछ लोग जो आगे थे, अपना एक पांव उठा चुके थे लेकिन तेज बहाव में नाव बह गई। उतरने को तैयार लोगों ने पाँव पीछे खींच लिया। नाविक चिल्लाया, “दौड़ा सो रे, नाव बह गइल।” हमलोग जब तक कुछ समझते, नाव भवँर में फॅंस चुकी थी। दूसरी नाव आयी, रस्सा फेंक कर, हमलोगों की नाव को भॅंवर से बाहर निकाला, और खुद पलक झपकते ही आंख से ओझल हो गयी।
हमलोगों की नाव तेज बहाव में बही जा रही थी। स्त्रियां और बच्चे रोने का मन बना रहे थे। समझदार लोगों ने डाँटा, चुप, एकदम चुप। कोई नहीं रोयेगा, हमलोग बच जाएंगे। सबके हलक सूख गए। सब घबराये थे, लेकिन लाचार थे। नाव बहते बहते एक किनारे लगनी शुरू हो गयी। नाविक चिल्लाया, कोई अपने स्थान से नहीं उठेगा, जब तक हम नहीं कहेंगे। सबकी सिट्टी पिट्टी गुम थी। लोग अपने अपने इष्ट को मना रहे थे। उसी समय सरपत का जुट्टा दिखा, नाविक के कहने पर लोगों ने उसे पकड़ने की चेष्टा की, लेकिन व्यर्थ, सरपत से भला भरी हुई नाव रुकेगी। नाव आगे बढ़ती रही। एक जगह छोटा सा सीसम का पतला पेड़ मिला, पेड़ क्या था, पेड़ का शिशु था। लेकिन नाव को रोकने में सहायक हुआ। नाविक ने चैन की सांस ली। लोगों को उतारा। हमलोग अपने घाट से बह कर काफी दूर निकल आये थे। सबने गंगा मइया को प्रणाम किया। कान पकड़ा, अब बाढ़ में कभी न चढ़ेंगे नाव पर।
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