इच्छा हो भी तो वह इच्छा हो आत्मज्ञान की

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पेंटिंग- कौशलेश पांडेय

— सुज्ञान मोदी —

माप इच्छा ही हमारे दुखों का कारण है। सत्पुरुष तो यह कहते हैं कि इच्छामात्र ही हमारे दुखों का कारण है। लेकिन इच्छामात्र से मुक्ति पा लेना तो बहुत साधना से ही संभव है। साधारण मनुष्य तो अपनी इच्छाओं को सीमित कर ले यही बहुत है। इसलिए आज के गृहस्थों को तो अपनी अमाप इच्छाओं पर ही अंकुश लगाना है। इच्छामात्र पर विजय की बात तो उसके बाद की स्थिति है।

अपने 23वें वर्ष में श्रीमद् राजचंद्र जी लिख रहे हैं— “इच्छारहित कोई भी प्राणी नहीं है। उसमें भी मनुष्य प्राणी तो विविध आशाओं से घिरा हुआ है। जब तक इच्छा और आशा अतृप्त रहती है, तब तक वह प्राणी अधोवृत्ति मनुष्य जैसा है। इच्छा को जय करनेवाला प्राणी ऊर्ध्वगामी मनुष्य जैसा है।”

इस प्रकार श्रीमद् कहते हैं कि जीवन को ऊँचा उठाने के लिए, उसे ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए हमें अपनी अतृप्ति की भावना को कम करना होगा। क्योंकि जब तक हमारी इच्छा और आशा बढ़ती रहेगी तब तक अतृप्ति की भावना बढ़ती ही जाएगी। फिर हम ऊपर उठने की जगह नीचे की दिशा में ही आएंगे।

लेकिन प्रश्न है कि पूर्ण इच्छारहितता तो मुक्त जीव की दशा है। साधारण संसारी मनुष्य के लिए तो यह अकल्पनीय स्थिति ही है। तो उसके लिए क्या उपादेय है? अपने 28वें वर्ष में श्रीमद् स्वयं कहते हैं—
“जो सुख की इच्छा न करता हो वह या तो नास्तिक है या सिद्ध है अथवा जड़ है।” फिर आगे लिखा कि “दुख का नाश करने की सब जीव इच्छा करते हैं।” लेकिन आगे पुनः एक स्थान पर बताया कि वास्तविक सुख या दुखनाश क्या है और उस अवस्था को प्राप्त करने का मार्ग क्या है? वह तो वास्तव में वीतरागता और सम्यग्दर्शन से ही संभव है।

श्रीमद् के शब्द हैं—“सब जीव सुख की इच्छा करते हैं। दुख सबको अप्रिय है। सब जीव दुख से मुक्त होने की इच्छा करते हैं। उसका वास्तविक स्वरूप न समझने से दुख दूर नहीं होता। उस दुख के आत्यंतिक अभाव को मोक्ष कहते हैं। अत्यंत वीतराग हुए बिना मोक्ष नहीं होता। सम्यग्ज्ञान के बिना वीतराग नहीं हो सकते। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान असम्यक् कहा जाता है। वस्तु की जिस स्वभाव से स्थिति है उस स्वभाव से उस वस्तु की स्थिति समझने को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। सम्यग्दर्शन से प्रतीत आत्मभाव से आचरण करना चारित्र्य है। इन तीनों की एकता से मोक्ष होता है। जीव स्वाभाविक है। परमाणु स्वाभाविक है। जीव अनंत है। परमाणु अनंत है। जीव और पुद्गल का संयोग अनादि है। जब तक जीव को पुद्गल का संबंध है तब तक जीव कर्मसहित कहा जाता है। भावकर्म का कर्त्ता जीव है। भावकर्म का दूसरा नाम विभाव कहा जाता है। भावकर्म के कारण जीव पुद्गल को ग्रहण करता है। इससे तेजस आदि शरीर और औदारिक आदि शरीर का संयोग होता है। भावकर्म से विमुख हो तो निजभाव प्राप्त हो सकता है। सम्यग्दर्शन के बिना जीव वास्तविक रूप से भावकर्म से विमुख नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शन के होने का मुख्य हेतु जिनवचन से तत्त्वार्थ में प्रतीति होना है।”

अपनी प्रसिद्ध कविता- ‘मारग साचा मिल गया’ में श्रीमद् ने और भी स्पष्ट कर दिया कि इच्छा ही दुख का कारण है। इसमें उन्होंने ‘ब्रह्माण्डी वासना’ की भी बात की है। इस कविता के छठे पद में श्रीमद् कहते हैं—

हे जीव! क्‍या इच्छत हवे, है इच्छा दुखमूल,
जब इच्छा का नाश तब, मिटे अनादी भूल॥

आगे एक स्थान पर धर्मध्यान को ठीक से समझाते हुए श्रीमद् ने कहा है, सद्गुरु और सत्संग ही हमें वासना से छुड़ा सकते हैं। श्रीमद् के शब्द हैं—

जो पवन (श्वास) का जय करता है, वह मन का जय करता है। जो मन का जय करता है वह आत्मलीनता प्राप्त करता है—ऐसा जो कहा जाता है वह तो व्यवहारमात्र है। निश्चय से निश्चय अर्थ की अपूर्व योजना तो सत्पुरुष का मन ही जानता है, क्योंकि श्वास का जय करते हुए भी सत्पुरुष की आज्ञा का भंग होने की संभावना रहती है, इसलिए ऐसा श्वास-जय परिणाम में संसार को ही बढ़ाता है। श्वास का जय वहीं है कि जहाँ वासना का जय है। उसके दो साधन हैं— सद्-गुरु और सत्संग। उसकी दो श्रेणियाँ हैं- पर्युपासना और पात्रता। उसकी दो प्रकार से वृद्धि होती है- परिचय और पुण्यानुबंधी पुण्यता। सबका मूल एक आत्मा की सत्पात्नता ही है।”

यहाँ एक बात ठीक से ध्यान रखने की है कि त्याग-वैराग्य आदि इच्छा के शमन का साधन तो हैं, लेकिन केवल त्याग-वैराग्य में ही अटक जाने से वह होगा नहीं। इच्छा से वास्तविक मुक्ति तो आत्मज्ञान की स्थिति में ही हो सकती है। इसे समझाते हुए ‘आत्मसिद्धि-शास्त्र’ के सातवें पद में श्रीमद् कहते हैं—

त्याग विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान।
अटके त्याग विरागमां, तो भूछे निजभान ॥7॥

अर्थात् जिसके चित्त में त्याग-वैराग्य आदि साधन उत्पन्न नहीं हुए उसे आत्मज्ञान नहीं होता। और जो त्याग-वैराग्य में ही उलझा रहकर आत्मज्ञान की आकांक्षा नहीं रखता वह निज शुद्धात्मा के स्वरूप को ही भूल जाता है।

इस प्रकार सत्पुरुषों ने संसारी वासनाओं से या असीमित इच्छाओं से तो ऊपर उठने को कहा ही है, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि यदि एक इच्छा हो भी तो वह इच्छा हो आत्मस्वरूप के ज्ञान की।

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