— वंदना जायसवाल —
साहित्यकार समाज के ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होते हैं, जो न केवल समाज की भाषा-संस्कृति-विरासत को अक्षुण्ण रखते हैं, बल्कि उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि में भी महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाते हैं। साहित्य को समाज का दर्पण जरूर कहा जाता है, लेकिन साहित्य और समाज को जोड़ने वाली कड़ी साहित्यकार के हाथों में है।
आपने कई रचनाकारों से डॉ. बलदेव को “छत्तीसगढ़ी साहित्य का धारनखंभा” की संज्ञा देते सुना होगा। धारनखंभा अर्थात् वह नींव, जिस पर साहित्य की इमारत टिकी हो। छत्तीसगढ़ में इतनी बड़ी उपाधि के हकदार डॉ. बलदेव कैसे हुए? यह लंबी कथा है। साहित्य और शिक्षा के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन, पारिवारिक सुख सबकुछ झोंक दिया। उनके साहित्य से रूबरू होकर अवश्य ही इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो जाता है।
यह सर्वभौम सत्य है कि नींव की ईंट को दबकर ही रहना पड़ता है। गगनचुंबी शोहरत की चकाचौंध वह देख नहीं पाती। एक शोधार्थी के रूप में उन्हें पढ़ने-जानने-समझने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ, मेरे लिए यह सौभाग्य का विषय है। पं. मुकुटधर पाण्डेय के मानसपुत्र डाॅ. बलदेव को पढ़ते हुए उनकी लेखनी की विविधता से प्रभावित हो उठना कोई बड़ी बात नहीं। ऐसा नहीं कि किसी विशेष विधा को उन्होंने अधिक महत्त्व दिया हो। कविता, कहानी, समीक्षा, जीवनी, संपादन कला, निबंध, बाल-साहित्य, आलोचना, अनुवाद-साहित्य आदि लगभग सभी विधाओं पर उन्होंने समान रूप से कार्य किया है। वे अपने आप में डूबे रहने वाले साहित्यकार भी नहीं थे। उनका मानना था कि दस पृष्ठ पढ़ो फिर एक पृष्ठ लिखो। स्वयं लिखने के साथ-साथ अपने क्षेत्र के उपेक्षित साहित्यकारों को उभारने का श्रेष्ठतम प्रयास डाॅ. बलदेव ने किया। समाज में ऐसे कम ही व्यक्तित्व होते हैं, जो नि:स्वार्थ होकर अपनी श्रेष्ठतम सेवा समाज को दे सकें। बल्कि आजकल ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है कि लोग एक दूसरे की टांग खींचने में लगे रहते हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं। डाॅ. बलदेव इससे कोसों दूर थे। लेखन को छोड़ उन्हें तो अपनी भी सुध नहीं रहती थी। इसका फायदा स्वार्थी लोगों ने उठाया भी।
डॉ बलदेव देश-प्रदेश की पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। विविध पुरस्कारों से भी नवाजे गए- जैसे पं. मुकुटधर पाण्डेय सम्मान 2001, चक्रधर सम्मान 2004 एवं 2011, बिलासा सम्मान 2009, छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा हरि ठाकुर सम्मान 2002, साहू समाज गौरव समिति रायपुर द्वारा बाबा गोरखनाथ सम्मान 2017 आदि। साहित्य समाज को उन्होंने जो दिया उसके सामने यह सब पर्याप्त नहीं। आजीवन छत्तीसगढ़ी साहित्य की समृद्धि के लिए वे अग्रसर रहे। उन्हें जानने के तारतम्य में यह विचार मन में उठता है कि शताधिक साहित्यकारों की लेखनी को जिसने अपनी समीक्षा से मांजने का कार्य किया था उनके लिए क्या यह सब पर्याप्त है?
उन्हें उनके साहित्यिक जीवन का पारिश्रमिक शून्य ही मिला। बलदेव-साहित्य नवीन संभावनाओं से लबरेज है। जिनकी कविता (यह सांवला दिन) को स्वयं विद्यावारिधि अज्ञेय ने अपने “नया प्रतीक”(1974) के लिए चुना हो, राजेंद्र अवस्थी ने अपनी पत्रिका “कादंबरी” में जिनकी प्रशंसा की हो, पं. मुकुटधर पाण्डेय और आचार्य विनय मोहन शर्मा जिनके समर्थक हों (दिनमान 1983), उसे किसी प्रमाण-पत्र की क्या आवश्यकता? आज की यूज एण्ड थ्रो संस्कृति ने इस महान साहित्यकार को ॲंधेरे में धकेल दिया है। डाॅ. बलदेव की किताबें जैसे- ‘छायावाद और पं .मुकुटधर पाण्डेय’ (2003), ‘रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव’ (2008) का विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल होना ही बलदेव-साहित्य की श्रेष्ठता और उपयोगिता को सिद्ध करता है। रायगढ़ के सांस्कृतिक वैभव को विश्व पटल पर लाना तथा पद्मश्री मुकुटधर पांडेय की पुनर्स्थापना में उनके योगदान को भुलाना साहित्य समाज की क्षुद्रता ही होगी। डॉ. बलदेव द्वारा संपादित काव्य संग्रह “विश्वबोध”(1984) में पद्मश्री मुकुटधर पांडेय जी की “कुररी के प्रति” जैसी कई दुर्लभ काव्य कृतियां समाहित हैं। नरेंद्र देव वर्मा द्वारा रचित “छत्तीसगढ़ वंदना- अरपा पैरी के धार” जो कि आज छत्तीसगढ़ का राजकीय गीत बन चुका है, उसे अपनी किताब “छत्तीसगढ़ी कविता के सौ साल”(2011) में महत्त्वपूर्ण स्थान देना उनकी दूरदर्शिता और आदर्श समीक्षक गुण को प्रदर्शित करता है।
“छत्तीसगढ़ी काव्य के कुछ महत्वपूर्ण कवि- भाग 1” (2013) में उनके श्रेष्ठतम समीक्षक रूप दर्शनीय होते हैं। विडंबना है कि इस किताब तक का द्वितीय भाग आजपर्यंत अप्रकाशित है। वे वास्तव में “छत्तीसगढ़ी के रामचंद्र शुक्ल” हैं। रायगढ़ कथक घराना पर उनके कार्य सदैव वंदनीय रहेंगे। इस किताब में उन्होंने जातिगत भेदभाव को दूर कर व्यक्ति के पांडित्य को प्रमुखता दी है, जो समाज की रूढ़ियों को प्रबलता से तोड़ती है। इस घटना से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। सन् 1980 में डॉ. राजेश्वर सक्सेना के निर्देशन में “हिंदी के श्रेष्ठ आख्यानक प्रगीत” विषय पर शोध प्रस्तुत करके हिंदी के प्रगीत काव्यों पर एक अद्वितीय किताब साहित्य जगत को प्रदान की है, जिसे विश्वविद्यालयों अथवा शालेय पाठ्यक्रमों में लिया जा सकता है। गुरु घासीदास बाबा की जीवनी लिखकर उन्होंने बाबा के जीवन संघर्ष, उद्भव, विकास, अमर संदेश, जीवनादर्शों से हमें परिचित कराया है। पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय के जीवन पर लिखी उनकी किताब को मैं बलदेव साहित्य के सबसे अनमोल मोतियों में से मानती हूं। प्रचार के अभाव में इस दुर्लभ सामग्री के दर्शन भी दुर्लभ ही हैं। आनंदी सहाय शुक्ल और जे.आर. सोनी की जीवनी औपन्यासिक सुख देती है।
बलदेव जी ने जिस काम को हाथ में लिया, बड़ी तत्परता से पूरा किया। इसी क्रम में अनुवाद-साहित्य के अंतर्गत “विश्वरंजन की कविता संसार”(2010) को उदाहरण स्वरूप लिया जा सकता है। कहानियों में वे अपने अनंत विचारों को साझा करते हैं। “भगत की सीख” (2002) का भगत अनुभव की तपती धरती से पका है, वहीं मंगलू चोर होकर भी कोमल हृदय रखता है। पाषाण हृदय के अंदर भावनाओं की पिघलती मक्खन सी धारा को पकड़ पाना डॉ. बलदेव की लेखनी से ही संभव है। फूलबासन छत्तीसगढ़ी कहानी की धनिया है, वहीं “साहेब की कहानी” आधुनिक कथा में महत्त्वपूर्ण स्थान बना सकती है। मनोविश्लेषणात्मक कहानी ‘मलेरिया बाबू’, ‘नया आश्रम’, विष्णु शर्मा की पंचतंत्र की श्रृंखला में ‘उचाटा’ ऐतिहासिक कथा जमीन, भईंस, बलवा, बाज, केंचुल, गांव, रेड, बूढ़ादेव का कोप, राजा साहब, नरेन्द्र ….और भी कितना कुछ ज्ञान भरा पड़ा है उनकी दर्जनों कहानियों में। ये कथाएं कल्पनाशीलता, एकाग्रता, जिज्ञासा, नैतिक मूल्यों के अंतर्ग्रहण के गुण विकसित करने में सहायक हैं। उनकी शैली भी आकर्षक है। इन कहानियों का संग्रह प्रकाशित न हो पाना भी एक विडंबना ही है। किसी साहित्यकार के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तो तभी होगी जब हम उनके साहित्य का उचित सम्मान करें।
उनके आधुनिक हिंदी काव्य का मूल्यांकन अभी शेष है। माता के ऋण से कृषक पुत्र डॉ बलदेव “धरती सबके महतारी” और “हमर धरती मां” के माध्यम से ऋणमुक्त हो चुके हैं। “वृक्ष में तब्दील हो गई औरत”(2011) तथा उनके अन्य काव्यसंग्रह उनकी कविताओं की ऊर्जा से लबालब भरे हैं। कविता को एक नन्हीं गौरैया की चोंच से संबंद्ध करने की कला कोई बलदेव जी से सीखे –
“दरअसल कविता क्या है? कविता है
या आंख हथियार/ दरअसल
कविता/ एक नन्हीं गौरैया है
जिसकी चोंच में/ सारा आकाश है।”
विचारों का सतत प्रवाह अंत तक बना है। छंद के बंधनों से मुक्त, आंचलिकता का पुट लिये हुए, अविरल झरनों सी कलकल बहती उनकी कविताएं मानव को मानव से परिचित कराती हैं।
“संध्याकुल पोखर में, उमगती
बह चली मधुमास की गंधी-हवा”
कहीं-कहीं उनकी आक्रामकता का तेवर भी रोचक प्रतीत होता है। संगीत के प्रति उनका अनुराग भी कविताओं में झलक पड़ता है –
“त्रकततान त्रकत तान
धरतमीन धेत धड़नन धा”
वे युवा पीढ़ी के सजग मार्गदर्शक हैं। उनके काव्य संग्रह हमारे लिए अमूल्य विरासत के समान हैं। उनकी अप्रकाशित कृतियों के प्रकाशन का उत्तरदायित्व छत्तीसगढ़ शासन को लेना चाहिए।
अपने शोध के दौरान जब मैं उनकी अप्रकाशित कृतियों से रूबरू हुई, तो मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। और दुख भी हुआ यह जानकर कि किस प्रकार हमारे प्रतिभावान साहित्यकारों की पाण्डुलिपियाँ उनके परलोक गमन के बाद उपेक्षित हो रही हैं। उनके पुत्र श्री बसंत राघव जी के द्वारा बलदेव साहित्य को डिजिटल मंच प्रदान किया जाना एक अनुकरणीय प्रयास है। जीवनसंगिनी सत्या साव एवं उनके परिवार के साथ-साथ डॉ. बलदेव के अनुज भ्रातासम मित्र आदरणीय डॉ. देवधर महंत के पृष्ठपोषण से मैं बहुधा लाभान्वित हुई। विकट कोरोना काल की परिस्थिति में उनके घरेलू पुस्तकालयों से मुझे बेहद राहत मिली। जीवन मृत्यु पर किसी प्राणी का बस नहीं, किंतु इस संसार में आकर अपने कर्तव्य को पूर्ण करने का दम कम ही व्यक्ति रखते हैं। उनकी काव्य-यात्रा, व्यक्तित्व-कृतित्व, गवेषणाएँ, आलोचना संबंधित उनके कर्मों, विविध विमर्शों के प्रति चिंतन-मनन, नारी के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण, छत्तीसगढ़ी और हिंदी साहित्य में उनके योगदान, विविध रचनाकारों से तुलनात्मक अध्ययन, विविध समालोचकों की कसौटी पर डॉ बलदेव आदि कई ऐसे विषय हैं जिन पर उनको समीक्षात्मक रूप से पढ़ना और समझना अपने आप में आत्मिक संतुष्टि का विषय रहा। डॉ. बलदेव वास्तव में “छत्तीसगढ़ी साहित्य के धारनखंभा” कहे जाने के योग्य हैं।