नए संसद भवन में राजदंड की स्थापना लोकतंत्र की मूल मान्यता के खिलाफ है

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— सत्यनारायण साहु —

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने ब्रिटेन की औपनिवेशक हुकूमत से भारत की नवगठित संघीय सरकार को सत्ता हस्तान्तरण के बारे में एक अद्भुत सिद्धांत पेश किया। शाह के मुताबिक, सत्ता हस्तान्तरण तब संपन्न हुआ जब वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को, 14 अगस्त 1947 की आधी रात को, एक स्वर्णमंडित राजदंड सौंपा। यह राजनेता, लेखक, वकील और स्वाधीनता सेनानी सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) की सलाह पर हुआ था। इस सिद्धांत की समस्या यह है कि यह उपलब्ध तथ्यों और प्रमाणों से मेल नहीं खाता।

किस्सा यह बताया गया कि माउंटबेटन ने नेहरू से यह पता लगाने को कहा कि भारत में सत्ता हस्तान्तरण के समय किस तरह का अनुष्ठान किया जाता था, फिर नेहरू के आग्रह पर राजाजी ने वह सलाह दी थी। शाह के मुताबिक, राजगोपालाचारी ने नेहरू का ध्यान तमिलनाडु की पुरानी परंपरा की ओर खींचा जब राजा को अपनी प्रजा पर न्यायपूर्ण ढंग से शासन करने के लिए देवी के द्वारा सेंगोल (राजदंड) दिया जाता था, यह बताने के साथ ही राजगोपालाचारी ने नेहरू से उस समय के राजसी रिवाज का पालन करने का आग्रह किया था।

शाह नए संसदीय भवन के उदघाटन के मौके पर प्रधानमंत्री द्वारा सेंगोल स्थापित किये जाने को उचित ठहराने की कोशिश कर रहे थे।

तमिलनाडु के कई मंदिरों में बने भित्तिचित्रों (म्यूरल्स) में देवियों को राजा को राजदंड प्रदान करते हुए चित्रित किया गया है। लेकिन वास्तव में, राजपुरोहित ही राजा को राजदंड प्रदान करते थे। ये राजपुरोहित ब्राह्मण ही होते थे। सेंगोल या राजदंड अब अमान्य हो चुके इस दृष्टिकोण से जुड़ा है कि सत्ता का स्रोत देवी-देवता होते हैं।

ऐसे जाने-माने विद्वानों ने, जो नेहरू और राजगोपालाचारी के लेखन से भलीभाँति परिचित हैं, दो टूक ढंग से, अमित शाह की गढ़ी हुई कहानी का खंडन किया है।

सेंगोल किस तरह शासन के दैवीय अधिकार से जुड़ा है?

सेंगोल (राजदंड) राजत्व या राजसत्ता से जुड़ा है। भारत जैसे एक आधुनिक लोकतंत्र में, ऐसे राजसी चिह्नों का प्रदर्शन करने की कोई प्रासंगकिता नहीं है। जहाँ देवी या राजपुरोहित द्वारा राजा को राजदंड प्रदान किया जाना इस मान्यता का प्रदर्शन है कि राजा को शासन करने की शक्ति और संप्रभुता उस देवी या देवता से मिली है, वहीं आधुनिक लोकतंत्र में, शासन करने की शक्ति और संप्रभुता का स्रोत कोई देवी या देवता नहीं होता, बल्कि जनता ही वह स्रोत होती है, जिसके जनादेश से ही, निर्वाचित प्रतिनिधियों की सत्ता निर्धारित होती है।

दैवीय अधिकार के सिद्धांत पर नेहरू का रुख क्या था?

नेहरू ने संविधान सभा में 13 दिसंबर 1946 को एक उद्देश्य-संकल्प पेश किया था। इसमें और कई बातों के अलावा यह पवित्र व दृढ़ संकल्प भी शामिल था कि भारत एक स्वतंत्र, संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र होगा तथा भविष्य में अपना शासन संविधान के मुताबिक चलाएगा और जिसकी सारी सत्ता और शक्तियों का स्रोत जनता होगी।

जब संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने नेहरू के इस आग्रह से कि- सत्ता और संप्रभुता का स्रोत जनता होती है- असहमति जताई तो, नेहरू ने उन पर दैवीय अधिकार के सिद्धांत के समर्थक होने का आरोप लगाया, जिस सिद्धांत के दम पर राजे-रानियाँ अपना शासन और अधिकार लोगों पर थोपते थे, कि उन्हें राज करने की शक्ति देवी या देवता से मिली है। नेहरू ने आगे जोर देकर कहा, हमने राजाओं के दैवीय अधिकार के बारे में काफी सुना है, हमने इतिहास में इसके बारे में काफी पढ़ा है, और हमने सोचा कि हम इसके बारे में आखिरी बार सुन रहे हैं और इसे जमाना पहले जमीन के नीचे दफना दिया गया है। लेकिन अगर आज भारत में या और कहीं, कोई व्यक्ति इसकी बात कर रहा है, तो उसका वर्तमान भारत से कोई लेना-देना नहीं है।

यह अपने आप में असंगत मालूम पड़ता है कि जिन नेहरू ने दिसंबर 1946 में यह कहा कि सत्ता जनता से आती है, वह 14 अगस्त 1947 की आधी रात को, जब भारत ब्रिटेन की गुलामी से मुक्त हुआ था, सत्ता हस्तान्तरण के प्रतीक के तौर पर, माउंटबेटन से सेंगोल स्वीकार करेंगे।

क्या माउंटबेटन से नेहरू के सेंगोल स्वीकार करने का कोई अभिलेखीय साक्ष्य है?

1955 में प्रकाशित डॉ बीआर आंबेडकर की किताब थॉट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स में यह उल्लेख है कि नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को बनारस में भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपने पदारोहण के चिह्न के तौर पर राजदंड (सेप्टर) स्वीकार किया था। उस किताब का इस प्रसंग से संबंधित पैराग्राफ कहता है-

क्या प्रधानमंत्री नेहरू 15 अगस्त 1947 को, बनारस के ब्राह्मणों द्वारा आयोजित यज्ञ में नहीं बैठे थे, जो एक ब्राह्मण के आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने की खुशी में आयोजित किया गया था, और इन ब्राह्मणों द्वारा दिया गया राजदंड धारण नहीं किया था, और उनके द्वारा लाया गया गंगाजल नहीं पिया था?”

ऊपर का पैराग्राफ किस बात की ओर संकेत करता है? उपर्युक्त पैराग्राफ साफतौर पर बताता है कि यह डॉ आंबेडकर की आलोचनात्मक टिप्पणी है, कि बनारस के कुछ ब्राह्मणों ने नेहरू को राजदंड प्रदान करके इस बात का जश्न मनाया कि एक ब्राह्मण देश का प्रधानमंत्री बना है। यह सत्ता हस्तान्तरण के दूसरे ही रोज हुआ था।

इसी तरह, 15 अगस्त 1947 के द हिन्दू में खबर छपी थी कि 14 अगस्त 1947 की आधी रात को जब संविधान सभा ने ऐलान किया कि सत्ता भारत को मिल गयी है और माउंटबेटन गवर्नर जनरल नियुक्त किये गये हैं, उसके बाद नेहरू बगल के एक छोटे-से कमरे में चले गये, जहाँ एक संक्षिप्त धार्मिक अनुष्ठान संपन्न किया गया और एक पुरोहित ने नेहरू तथा उनके मिशन के लिए मंगलाशीष कहे।

ऊपर दिये गये दस्तावेजी साक्ष्य, कि नेहरू को एक पुरोहित ने आशीर्वाद दिया और 15 अगस्त 1947 को बनारस में उन्हें राजदंड प्रदान किया गया था, के अलावा ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता जो अमित शाह के इस दावे की पुष्टि करता हो कि माउंटबेटन ने सत्ता हस्तान्तरण की निशानी के तौर पर नेहरू को राजदंड प्रदान किया था।

नए संसद भवन का लोकार्पण विवादास्पद क्यों बना?

दरअसल, नेहरू के सेंगोल स्वीकार करते हुए सत्ता हस्तान्तरण की जो कहानी अमित शाह ने गढ़ी है वह और कुछ नहीं बल्कि सत्ता के दैवीय अधिकार से जुड़े एक प्रतीक को वैध ठहराने की कोशिश है। यह और भी दुखद है कि भारत की आजादी के 75वें वर्ष में, एक ऐसा प्रतीक नए संसद भवन में स्थापित किया गया जो सत्ता के दैवीय अधिकार की ओर इशारा करता है। प्रधानमंत्री द्वारा नए संसद भवन के उदघाटन का बीस विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया, इस बिना पर कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को उद्घाटन के लिए अनुरोध क्यों नहीं किया गया।

सावरकर के जन्मदिन की तारीख क्यों चुनी गयी?

यह और भी दुखद है कि नए संसद भवन के उदघाटन के लिए 28 मई की तारीख चुनी गयी, जिस दिन हिन्दू राष्ट्रवादी नेता व लेखक वीडी सावरकर का जन्मदिन था। जिन्ना द्वारा द्विराष्ट्र सिद्धांत को अपनाने और बढ़ावा देने से बहुत पहले ही सावरकर ने यह प्रस्तावित किया था कि हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं। फिर, सावरकर ने यह तक कहा था कि हिन्दू राज्य नेपाल के राजा को भारत का भी राजा होना चाहिए। नेपाली राजा भारत के भी शासक हों, सावरकर के इस बयान से यही बू आती है कि वह सत्ता के दैवीय अधिकार में आस्था रखते थे, जिसे नेहरू और संविधान सभा ने नहीं माना था।

1946-47 में त्रावणकोर के राजा और उनके दीवान – जो कि वकील, प्रशासक व राजनीतिज्ञ सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर थे- नहीं चाहते थे कि त्रावणकोर की हिन्दू रियासत भारत-संघ में शामिल हो। उन्होंने दैवीय अधिकार का हवाला दिया, यह कहते हुए कि त्रावणकोर की संप्रभुता भगवान पद्नाभ से आती है और वहभारत की संप्रभुता के अधीन नहीं हो सकते। यही नहीं, त्रावणकोर के शासकों ने अपने दावे (कि त्रावणकोर भारत का हिस्सा नहीं हो सकता) के समर्थन में ब्रिटेन और अमरीका का समर्थन पाने के लिए उन्हें अपनी रियासत के थोरियम भंडार से लाभान्वित करने की पेशकश भी की थी। इस मसले पर अमरीका ने चुप्पी साधे रखी थी, लेकिन सावरकर ने त्रावणकोर की हिन्दू रियासत के शासकों का साथ दिया था। ऐसा करते हुए, एक बार फिर वह सत्ता के दैवीय अधिकार का समर्थन कर रहे थे।

इसका एक जीवंत वर्णन मदन पाटील की लिखी मराठी पुस्तक अकथित सावरकर (2019) में है। इतिहासकार विक्रम संपत ने दो भाग में लिखी सावरकर की जीवनी में लिखा है :

त्रावणकोर के दीवान, सर सी.पी. रामास्वामी, जो हिन्दू रियासत की स्वायत्तता और स्वतंत्रता का एलान करने की योजना बना रहे थे, को सावरकर का नासमझी-भरा समर्थन दुर्भाग्यपूर्ण और नए भारत के एकीकरण की प्रक्रिया को चोट पहुँचाने वाला था।

ब्रिटेन से भारत को सत्ता हस्तान्तरण 14 अगस्त 1947 को हुआ, जब संविधान सभा ने अपने अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद द्वारा रखे गये इस आशय के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया कि संविधान सभा ने भारत पर शासन का अधिकार हासिल कर लिया है।

इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि जब त्रावणकोर की हिन्दू रियासत के भारत में सम्मिलित न होने के रवैये का सावरकर समर्थन कर रहे थे तो वह त्रावणकोर के शासकों के इस रुख को ही सही ठहरा रहे थे कि राज्य (त्रावणकोर) की संप्रभुता उसकी जनता से नहीं, बल्कि भगवान पद्मनाभ से आती है।

लिहाजा, नए संसद भवन में सेंगोल यानी सत्ता के दैवीय अधिकार के प्रतीक को स्थापित करना और सावरकर के जन्मदिन पर उसका उदघाटन करना- जिन्होंने भारत में सम्मिलित न होने के त्रावणकोर के शासकों के रुख का समर्थन किया था- भारत के इस विजन को ही उलटने की कोशिश है कि सत्ता और संप्रभुता जनता में निहित है। इस तरह की कोशिश दरअसल लोकतंत्र को ही खारिज करने की कोशिश है।

औपनिवेशिक शासन से भारत को संप्रभुता मिलने का वैधानिक तरीका क्या था

हमें इस तथ्य को याद रखना चाहिए कि ब्रिटेन से भारत को सत्ता का हस्तान्तरण 14 अगस्त 1947 को हुआ था, जब संविधान सभा ने अपने अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद द्वारा पेश किया गया इस आशय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया कि संविधान सभा ने भारत पर शासन का अधिकार पा लिया है। प्रस्ताव को उद्धृत करना ठीक रहेगा –

वायसराय को यह बता दिया जाए कि (1) भारत की संविधान सभा ने भारत पर शासन करने की सत्ता अर्जित कर ली है, और (2) भारत की संविधान सभा ने इस सिफारिश को मान लिया है कि लॉर्ड माउंटबेटन 15 अगस्त 1947 से भारत के गवर्नर जनरल हों, और यह संदेश तुरंत संविधान सभा के अध्यक्ष और पंडित जवाहरलाल नेहरू के द्वारा पहुँचाया जाए।

साफ है कि सत्ता का हस्तान्तरण संविधान सभा के निर्णय के द्वारा हुआ था, न कि शासन के दैवीय अधिकार को प्रतिबिंबित करनेवाले सेंगोल जैसे राजसी चिह्न के हस्तान्तरण के जरिए।

नए संसद भवन में सेंगोल को स्थापित करके और सावरकर के जन्मदिन पर उसका उद्घाटन करके क्या भारत के संवैधानिक विजन की रक्षा की गयी है?

जाहिर है कि भारत के संवैधानिक विजन की रक्षा संविधान के प्रति निष्ठावान रहकर, सत्ता और शासन के दैवीय अधिकार को एक बार फिर नकारकर और संसदीय लोकतंत्र को- जिसकी जड़ें जनता में हों- मजबूत करके ही की जा सकती है। आखिर जनता ही सत्ता और संप्रभुता की जननी है।

(लेखक राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के प्रेस सचिव रह चुके हैं)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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