— राजकुमार सिन्हा —
पर्यावरण को आसान और सरल तरीके से समझें तो – हमारे आसपास की भूमि, मिट्टी, पानी, वायुमंडल, पृथ्वी का तापक्रम सूरज से धरती तक आने वाली ऊर्जा, हवा, बादल, पहाड़, जंगल, समुद्र, नदी, झील, तालाब आदि हमारे पर्यावरण के अंग हैं। हम सब उनसे किसी न किसी तरह प्रभावित होते हैं या उन्हें हम प्रभावित करते हैं। 75 साल पहले कोई भी इंसान प्रदूषण, जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन के खतरों सें चिंतित नहीं था। गांधी जी ने अपनी पुस्तक “हिन्द स्वराज” में उद्योगीकरण और भौतिकवाद के प्रति आम जनता को चेताया था।
संविधान में विकास की कोई परिभाषा नहीं है। सरकार ने निर्माण कार्य को विकास मान लिया। निर्माण कार्यों में पर्यावरण और प्रकृति को अड़ंगा माना जाता है। जिसके कारण एक ओर पर्यावरण बिगड़ रहा है और दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से दोहन हो रहा है। इस अंधाधुंध विकास के कारण हमारे आसपास की हवा, पानी और मिट्टी की गुणवत्ता लगातार खराब हो रही है।
हमने जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) को उन्नति और विकास का पैमाना मान लिया है जो खतरनाक विरासत तैयार कर रहा है। वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि पृथ्वी की जलवायु बदल रही है। परिवर्तन की गति सभी अनुमानों से कहीं ज्यादा है। इसका कारण औद्योगिक विकास के लिए कोयला और पेट्रोलियम जलाने से निकलने वाला कार्बन का धुआँ है। इस संबंध में वैज्ञानिक 1988 से चेतावनी दे रहे हैं।
पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वन संरक्षण अधिनियम 1980 लागू होने के चार दशक बाद 27,144 विकास परियोजनाओं के लिए 15 लाख 10 हजार हेक्टेयर वनभूमि को परिवर्तित किया गया है। जो राजधानी दिल्ली के क्षेत्रफल से दस गुना है। हर वर्ष देश में लगभग 190 घन किलोमीटर भूमिगत जल निकाला जाता और वर्षा आदि से जितना पानी जाता है उसकी मात्रा 120 घन किलोमीटर है, अर्थात 70 घन किलोमीटर की कमी रह जाती है। जिसके कारण भूजल स्तर और नीचे जा रहा है। खेती में उपयोग किये जानेवाले रसायनिक खाद, कीटनाशक आदि के कारण 5 हजार 334 मिलियन टन मिट्टी का भूक्षरण प्रति वर्ष हो रहा है। इससे लाखों एकड़ जमीन बंजर हो रही है।
क्लाइमेट ट्रेंड्स की प्रबंध निदेशक आरती खोसला के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों पर दबाव बढ़ता रहेगा और बढ़ते तापमान से सूखे की स्थिति पैदा होगी। जिससे मीठे पानी के महत्त्वपूर्ण स्रोत प्रभावित होंगे। संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रम (यूएनईपी) का मानना है कि पानी के बाद रेत सबसे बड़ा दोहन किया जाने वाला संसाधन है। इसका सबसे अधिक खनन होता है। नदी के तल से रेत का खनन अक्सर नियमों को ताक पर किया जाता है। इसका नदी की पारिस्थितिकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह ध्यान नहीं रखा जाता है। ‘डाउन टु अर्थ’ की रिपोर्ट के अनुसार, मध्यप्रदेश में मशीनों से रेत खनन प्रतिबंधित है। लेकिन नर्मदा की सैटेलाइट तस्वीरों से सीहोर जिले में नदी किनारे कम से कम तीन जगह अर्थ मूवर्स की मौजूदगी मिली है।
मेडिकल जर्नल लैंसेट स्टडी 2019 में बताया गया है कि प्रदूषण से भारतीयों की आयु सात साल कम हुई है और अर्थव्यवस्था को तीन लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। क्लीन एयर फंड और कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री के एक अध्ययन के अनुसार, 2019 में प्रदूषण से संबंधित बीमारियों की वजह से कर्मचारियों के छुट्टी लेने से भारत में 1.3 अरब काम के दिनों का नुकसान उठाना पड़ा है।75 प्रतिशत से ज्यादा भारत के जिले, जहां 63.8 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं, पर्यावरणीय घटनाओं के हाॅट्सपाॅट हैं।ये जिले चक्रवात, बाढ़, सूखा, लू, शीतलहर, भूस्खलन, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि और हिमनद जैसी मौसमी घटनाओं की चपेट में हैं। इससे सबसे ज्यादा कमजोर वर्ग के लोग प्रभावित होंगे, जिनकी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में कम से कम भागीदारी है।
ऐसा मानना बहुत भारी भूल होगी कि आज पृथ्वी को बचाना जरूरी है। मनुष्य प्रजाति को खुद अपने आपको बचाना है अपने आप से ही। इसलिए ये काम करने की दरकार है :
(1) स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओ का विस्तार दें।
(2) नदियों को बहने दें, उन्हें बांधने के मोह से बचें।
(3) साइकिल किसी भी तरह का हानिकारक उत्सर्जन नहीं करती। साइकिल चलाने से न केवल शरीर स्वस्थ रहता है, बल्कि पर्यावरण भी सुधरता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक साइकिल के इस्तेमाल में मामूली वृद्धि से भी हर साल दुनिया में 6 से 14 मिलियन टन कार्बन उत्सर्जन रोका जा सकता है।