— ध्रुव शुक्ल —
अनुपम मिश्र की याद आ रही है। पच्चीस बरस तक उन्हें बहुत करीब से देखता रहा। वे जीवन भर पानी बचाने की पारंपरिक विधियां खोजकर देश और दुनिया को उनकी याद दिलाते रहे। 1993 में गांधी शांति प्रतिष्ठान से उनकी जगत प्रसिद्ध छोटी-सी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ प्रकाशित हुई जिसने उस भारतीय समाज का पता बताया जो सदियों से अपने नदी-सरोवरों में पानी का संचय करता आ रहा है। इसे अनुपम मिश्र ने ‘साफ माथे का समाज’ कहा।
अनुपम मिश्र की सोहबत में मेरे मन में यह ख़याल आने लगा कि पानी बचाने के अभियान में मेरी क्या भूमिका हो सकती है? बचपन से महाकवि तुलसीदास की अंगुली पकड़कर चलना सीखता रहा हूं तो मुझे उनके ‘रामचरितमानस’ में ही पानी बचाने की राह मिल गयी। तुलसी बाबा की कविता को पढ़ते हुए अपने हृदय सरोवर की उस गहराई का अहसास होता है जिसमें सबको पार उतारने वाला जल भरा हुआ है और इसी सरोवर से जीवन की कविता की नदी निकलती है जिसके किनारों की रखवाली के लिए खड़े वृक्ष नीर-क्षीर विवेक से भरी संतसभा जैसे लगते हैं।
अनुपम मिश्र ‘रामचरितमानस’ की वह प्रसिद्ध चौपाई नारे की तरह दुहराते थे – ‘समिटि-समिटि जल भरहिं तलाबा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।’ — तुलसीदास कह रहे हैं कि तालाबों में संचित होता जल देखकर लगता है जैसे सज्जनों के पास सद्गुण इकट्ठे हो रहे हों। राम जीवन जल होकर इसी तरह सबके हृदय में संचित होते रहते हैं। मैंने इस अनुभूति से कविता को पानी बचाने की विधि की तरह रामचरितमानस पर आधारित एक ‘जलसत्याग्रह कथा’ रची और पारंपरिक प्रवचन शैली अपनाकर अनेक शहरों में सुनायी। अब उस कथा को सुनने वाले यजमान ही नहीं मिलते!
अनुपम मिश्र के पिता कवि भवानीप्रसाद मिश्र सागर शहर में हमारे घर आते थे। वे मेरे लोककवि पिता मनोज जी के मित्र थे। उनकी कविता वर्षाचक्र से अछूती नहीं रही। वे अपनी कविता में कहते हैं —
पहले झले का पानी, जैसे अकासबानी।
जीवन में उसने भर दी लो हर तरफ जवानी।
सूखी पड़ी थी नदियाँ अब भदभदा गई रे —
बरसात आ गयी रे, बरसात आ गई रे।
अभी कुछ दिन पहले ही अनुपम के बड़े भाई अमिताभ मिश्र का निधन हुआ। वे संगीत से गहरा लगाव रखते थे। उनके कवि पिता ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के कुछ गीतों का अनुवाद किया था उनको अमिताभ जी ने संगीतबद्ध किया। गुरुदेव का वह प्रसिद्ध प्रार्थना गीत भी — देश की माटी, देश का जल। हवा देश की, देश के फल। सरस बनें प्रभु सरस बनें। हमारे नेताओं को यह सरस-निर्मल प्रार्थना याद ही नहीं रही!
अनुपम मिश्र की याद इस तरह आती है जैसे वे एक सजलनयन पानीदार समाज के बीच खड़े हैं। जिसके हृदय सरोवर में जलतरंगों से उठकर कोई जीवन जल सबकी आंखों में झलक रहा हो। वे उस ख़तरे की चेतावनी भी दे रहे हैं कि जिस समाज की आंखों का पानी मर जाता है वह अपने जीवन के आसपास भरे नदी-सरोवरों के जल को भी नहीं बचा पाएगा। हम देख रहे हैं कि भवानीप्रसाद मिश्र की कविता में बसे पानी के रखवाले ‘सतपुड़ा के घने जंगल’ उजड़ रहे हैं। इस साल नवतपा में बरसते पानी को देखकर लग रहा है कि वर्षा अपना रास्ता भूल गयी है।
अनुपम मिश्र हमें उस आगौर (पानी का रास्ता) की याद दिलाते रहे जिससे बहकर पानी सब सरोवरों को भरता है। पानी के रास्ते को रोक कर हमने अपनी कालोनी क्यों बसा ली है?