— रविकिरण जैन —
(कल प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त)
अधिकतर राजनीतिकों को, जब वे सत्ता में होते हैं, स्वतंत्र न्यायपालिका से एलर्जी रहती है। वे इसके प्रति असहिष्णु होते हैं। यह समझने के लिए कि संवैधानिक लोकतंत्र की सफलता के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका कितनी अहम और जरूरी होती है, राजनीतिकों को अपने स्तर से उठकर राजनेता (स्टेट्समैन) होना होता है। निरंकुश शासक चाहते हैं कि न्यायपालिका, कार्यपालिका के मन-मुताबिक काम करे। इंदिरा गांधी भी प्रतिबद्ध न्यायपालिका चाहती थीं। यहाँ प्रतिबद्ध होने का अर्थ है : कार्यपालिका के प्रति प्रतिबद्ध होना, न कि संविधान के प्रति।
ग्रैनविल ऑस्टिन ने अपना किताब ‘वर्किग ए डेमोक्रेटिक कांस्टीट्यूशन’ में लिखा है कि जनवरी 1980 में न्यायमूर्ति भगवती ने ‘डियर इंदिरा जी’ के संबोधन के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने उन्हें चुनाव जीतने की बधाई दी। और उनकी ‘इस्पाती इच्छा-शक्ति’, विलक्षण अन्तर्दृष्टि, गतिशील दृष्टिक्षमता (डायनमिक विजन), असाधारण प्रशासनिक क्षमता, एवं उनके ऐसे हृदय के लिए जो गरीब और कमजोर लोगों के लिए धड़कता था, की प्रशंसा की। न्यायमूर्ति भगवती ने आगे लिखा कि हमारे देश का न्यायिक ढाँचा पूरी तरह चरमरा गया है। हमें इसपर नयी और उन्मुक्त दृष्टि डालनी चाहिए और इसपर विचार करना चाहिए कि इसमें कौन से ढाँचागत और अधिकार-क्षेत्रात्मक (जूरिस्डिक्शनल) बदलाव जरूरी हैं।
‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ के अधूरे काम को, जिसे इंदिरा गांधी 1971-77 के अपने शासन काल में ही पूरा करना चाहती थी, इंदिरा गांधी ने पुनः शासन में लौटने के बाद पूरा किया। यह दिसंबर 31,1981 को न्यायमूर्ति भगवती की अध्यक्षता में गठित संविधान पीठ के जरिए एस.पी. गुप्ता केस में किया गया। इस मामले को प्रथम जजेज केस कहा जाता है। इस केस के फैसले से ऐसा लगा कि राष्ट्रपति के जरिए इस्तेमाल की जानेवाली कार्यपालिका की शक्तियों के समक्ष, सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी शक्तियों का सचमुच में समर्पण कर दिया है। इस केस के फैसले के अनुसार, न्यायमूर्तियों को नियुक्त करने की जिम्मेदारी मुख्यतः कार्यपालिका पर है। इसका अर्थ हुआ कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय की बनिस्बत सरकार की राय को वरीयता दी जाएगी। इस तरह न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के मामले में मुख्य न्यायाधीश की स्थिति शून्य हो गयी। परामर्श (कंसल्टेशन) का अर्थ सिर्फ जानकारी को आगे बढ़ाने से ज्यादा कुछ नहीं था, और निश्चित रूप से सहमति तो उसका अर्थ था ही नहीं।
उपरोक्त स्थिति 12 वर्षों तक बनी रही जब तक अक्टूबर, 1993 में द्वितीय जजेज केस का फैसला न आ गया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रथम जजेज केस में की गयी अपनी भयंकर भूल को स्वीकारते हुए वस्तुतः उसे उलट दिया। और यह कानूनी व्यवस्था दी कि न्यायमूर्तियों की नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका की राय की सर्वोच्चता रहेगी, न कि कार्यपालिका की। इसी सिलसिले में, तृतीय जजेज केस का फैसला आया। यह फैसला राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत भेजे गये रिफरेंस के जवाब में आया जिसे 5 जजों के संविधान पीठ ने दिया। यह एकमत का फैसला था, और इसे न्यायमूर्ति भरूचा ने लिखा था। इस फैसले का अंततः असर यह हुआ कि मुख्य न्यायाधीश तथा दो वरिष्ठतम न्यायमूर्तियों की जगह अब कॉलेजियम में मुख्य न्यायाधीश और 4 वरिष्ठतम न्यायमूर्ति होने लगे। इन फैसलों के बाद कांग्रेस पार्टी ने न्यायमूर्तियों की नियुक्ति तथा कार्यपालिका की शक्ति का मुद्दा छोड़ दिया।
अब फिर उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन के मुद्दे पर बहस छेड़ी है। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक ढाँचे के सिद्धांत के आधार पर उस संवैधानिक संशोधन को रद्द करने की आलोचना की है, जिसके जरिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन (एन.जे.ए.सी.) अधिनियम को लाया गया था। 7 दिसंबर, 2022 को राज्यसभा में अपने पहले संबोधन में धनखड़ ने एन.जे.ए.सी. अधिनियम को रद्द किये जाने को संसदीय संप्रभुता और जनादेश के साथ गंभीर समझौता करार दिया। कानून मंत्री ने मुख्य न्यायाधीश को लिखकर माँग की है कि कॉलेजियम में सरकार का भी एक प्रतिनिधि शामिल किया जाए।
कानूनमंत्री के पद पर रहते हुए किरेन रिजीजू ने तथा उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले पर भी सवाल उठाया है जिसे केशवानंद भारतीय केस कहा जाता है। यह फैसला 50 साल पहले सन् 1973 में आया था। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है लेकिन उसके पास संविधान के मौलिक ढाँचे को संशोधित करने की शक्ति नहीं है। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अब तक दिए गए फैसलों में सबसे श्रेष्ठ फैसला माना गया है।
हाल तक कानून मंत्री के पद पर रहे रिजीजू और उपराष्ट्रपति ने केवल राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने के कारण मौलिक ढाँचे के सिद्धांत की आलोचना नहीं की है। इसके बरअक्स, वो ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि भाजपा संविधान के मौलिक ढाँचे को संशोधनों के जरिए बदलना चाहती है, और यह इसके एजेण्डे का प्रमुख बिंदु है। उदाहरण के लिए, भाजपा संविधान में सेकुलर (प्रस्तावना में) शब्द को हटाना चाहती है। क्योंकि वो भारत को घोषित तौर पर हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है। 2022 में आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत ने सार्वजनिक बयान दिया कि वह 15 वर्षों के भीतर भारत को हिन्दू राष्ट्र बना लेंगे। हिन्दू राष्ट्र बनने में भारत के संविधान का मौलिक ढाँचा, सेकुलरिज्म जिसका जरूरी हिस्सा है, मुख्य बाधा है। इसी एजेंडे के तहत संविधान के मौलिक ढाँचे के सिद्धांत पर हमले हो रहे हैं।
यह सच है कि 1950 के संविधान में सेकुलरिज्म शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था। इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन के जरिए लाया गया। भाजपा नहीं चाहती है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बना रहे। वो भारत को एक हिन्दू ऱाष्ट्र घोषित करना चाहती है। यह चाहत हिन्दुत्ववादी शक्तियों की हमेशा से रही है। सावरकर ने सन् 1923 में अपनी पुस्तिका, और जिन्ना ने 1940 के अपने भाषण में, जब वे मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन मे ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पर बोल रहे थे, स्पष्ट रूप से कहा है कि हिन्दू और मुस्लमान दो राष्ट्र हैं, और वे एकसाथ नहीं रह सकते। जिन्ना मुस्लिम राष्ट्र बनाने में ऐतिहासिक रूप से सफल हो गये। हिंदुत्ववादी शक्तियों को अब लग रहा है कि आज परिस्थितियाँ उनके अनुकूल हैं और इसी समझ के आधार पर वे हिन्दू राष्ट्र बनाने की ओर बढ़ रही हैं। वो जल्दी में नजर आ रही हैं। यही कारण है कि भाजपा संविधान की प्रस्तावना से सेकुलर शब्द बहुत जल्द हटाना चाहती है।
यह ध्यान रखने की बात है कि न्यायमूर्तिगण सीकरी, शेटल, ग्रोवर एवं खन्ना ने सेकुलरिज्म को संविधान के मौलिक ढाँचे का अविभाज्य हिस्सा घोषित किया है। इसी बात को अदालतों द्वारा बाद के अनगिनत फैसलों में दोहराया गया है।
स्वयं केशवानंद भारती केस में मुख्य न्यायाधीश सीकरी ने संविधान के मौलिक ढाँचे में जिन चंद विशिष्टताओं को शामिल किया, वे है :
- संविधान की सर्वोच्चता (न कि संसद की),
- गणतंत्रात्मक और लोकतंत्रात्मक सरकार,
- संविधान का सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) चरित्र,
- विधायिका (लेजिस्लेचर), कार्यपालिका (एग्जेक्युटिव) तथा न्यायपालिका के बीच शक्ति-विभाजन,
- संविधान का संघात्मक चरित्र।
इस बात को स्पष्ट करते हुए कि संविधान के मौलिक ढाँचे में बदलाव क्यों नहीं हो सकता, न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि “संशोधन के वेश में कोई इस बात के लिए सक्षम नहीं होगा कि, उदाहरणार्थ, वो लोकतांत्रिक सरकार को एक तानाशाही या वंशानुगत (हेरिडिटेरी) राजतंत्र में बदल सके। न ही इस बात की इजाजत हो सकती है कि वे लोकसभा या राज्यसभा के अस्तित्व को ही समाप्त कर दें। इसी तरह राज्य के सेकुलर चरित्र, जिसके अनुसार राज्य किसी नागरिक को उसके धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा, को भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।”
राजस्थान राज्य बनाम भारतीय संघ (AIR 1991 SC 671) में न्यायपालिका, न्यायिक समीक्षा (ज्युडिशियल रेव्यु) तथा राज्य के तीनों अंगों के बीच शक्तियों के विभाजन को संविधान के मौलिक ढाँचे का हिस्सा करार दिया गया। इसी बात को पुनः सुभाष शर्मा बनाम भारतीय संघ (AIR1997 SC 671) मामले में भी उच्चतम न्यायालय की 7-सदस्यीय पीठ ने दोहराया है।
आज का राजनीतिक परिदृश्य
आज के अधिकांश राजनीतिक दलों में न तो इच्छा-शक्ति है और न ही क्षमता कि वे शासन-व्यवस्था के केंद्रीभूत ढाँचे के पार देख सकें। वे संविधान की अखण्डता (इंटेग्रिटी) तथा इसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाए ऱखने में लगभग अक्षम हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने की उनकी सोची-समझी राजनीतिक गतिविधियाँ विनाशकारी हैं।
इस परिदृश्य में मेरा सुझाव है कि देश में एक नया नागरिक आंदोलन पैदा हो, जो गैरदलीय हो, और जिसका लक्ष्य देश के संविधान तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं की हिफाजत करना हो। आज जरूरी है कि मानवाधिकार कार्यकर्ता और संविधान का सम्मान करनेवाले सभी लोग संविधान की रक्षा हेतु एकसाथ आएँ और संघर्ष करें।
संविधान-विरोध, उग्रराष्ट्रवाद, लोकतंत्र के खिलाफ हो रहे परोक्ष/अपरोक्ष हमले, उग्र सांप्रदायिकता जिसका प्रबलतम हथियार है, के खिलाफ एक जन आंदोलन को आज गैरदलीय आधार पर विकसित किया जाना चाहिए। और इसे किया जा सकता है। देश में कई प्रयास शुरू भी हो चुके हैं। उनमें से एक गंभीर प्रयास है – भारत जोड़ो अभियान।
भारत जोड़ो अभियान से बहुत-से गैरसरकारी संगठन (एन.जी.ओज.) तथा लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर पुख्ता यकीन रखनेवाले तमाम लोग जुड़ चुके हैं। ये लोग दृढ़-प्रतिज्ञ हैं कि भारतीय राज्य का स्वरूप और चरित्र सारांशतः धर्मतांत्रिक (थियोक्रेटिक) नहीं हो सकता, क्योंकि जब धर्म सत्ता के केंद्र पर हावी हो जाता है तो ऐसी राजसत्ता पूरी तरह से क्रूर और अमानवीय बन जाती है। हाल का उदाहरण है अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता। इतिहास में इसके पूर्व भी अनेक उदाहरण मौजूद हैं। इसलिए ऐसा प्रयास हिन्दुस्तान में कभी सफल न हो, इसके लिए जो भी संभव होगा, वो करेंगे, यह उम्मीद हम कर सकते हैं।
‘भारत जोड़ो अभियान’ से जुड़ चुके चंद महत्त्वपूर्ण लोगों के नाम इस प्रकार है : सर्वश्री/सुश्री योगेन्द्र यादव, प्रशान्त भूषण, एडमिरल रामदास, राम पुनियानी, मेधा पाटकर, अमोल पालेकर, इरफान इंजीनियर, निखिल डे, पी.वी.राजगोपाल, पूजा भट्ट, सुनीलम, गौहर रजा, शबनम हाशमी. प्रो. आनन्द कुमार, कुमार प्रशान्त, प्रो. शेखर पाठक, राजीव लोचन साह, कविता श्रीवास्तव, अजीत भुइयां, मनोज कुमार झा, प्रह्लाद टिपाणिया, अशोक कुमार पांडेय, राजीव ध्यानी, भंवर मेघवंशी, डॉ. सुभाष, सुरेन्द्रपाल सिंह, रामचंद्र राही, टी.एफ. कृष्णा, रूपरेखा वर्मा, एस.पी. उदय कुमार, न्यायमूर्ति कोलसे पाटिल आदि।
आइए, कुछ बात राहुल गांधी पर भी कर ली जाए जिन्होंने हाल में कुछ उम्मीदें जगाई हैं, और जो उग्र राष्ट्रवाद, सत्ता-गठजोड़ी (क्रोनी) कार्पोरेटवाद, भारत सरकार के संविधान विरोधी फासीवादी रवैये और मंसूबों पर करारी चोट कर रहे हैं।
राहुल गांधी केवल 20 वर्ष के थे तब उनके पिता राजीव गांधी की सन् 1991 में मृत्यु हो गयी। वो सक्रिय राजनीति में 2004 में आए जब राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। किसी को उम्मीद नहीं थी कि सन् 2004 में एन.डी.ए. सरकार की वापसी नहीं होगी। लेकिन ऐसा हुआ और भाजपा सरकार की वापसी नहीं हुई। उसकी जगह कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए.) की सरकार सत्ता में आयी। इस तरह लोकसभा चुनाव के बाद एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिदृश्य उपस्थित हुआ।
सच है भारतीय अवाम राजनीतिक व्यवस्था के प्रति तीव्र घृणा और निराशा की भावना से वर्षों से पीड़ित रहा है। 2004 चुनाव में अप्रत्याशित चुनाव नतीजे ने यह उजागर किया कि मतदाताओं ने अंततः सुर्खियों वाली राजनीति को गहरी चोट पहुँचायी है। अवाम ने उस राजनीति को, जो भावनात्मक उत्तेजना पैदा करनेवाले सांप्रदायिक विभाजन पर आधारित थी, और जिसने जनता के मूलभूत मुद्दों को चुनावी राजनीति के कूड़ेदान में अक्षरशः फेंक दिया था, एक बार फिर नकार दिया था।
सोनिया गांधी ने सन् 2004 में कमाल की चाल चली। रणनीतिक कारणों से या बलिदान की भावना से प्रेरित होकर, उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री का पद अस्वीकार कर दिया, और मनमोहन सिंह को अपनी जगह यू.पी.ए. के प्रधानमंत्री के तौर पर नामित किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के काल में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। सन् 2009 में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यू.ए.पी.ए.) में कठोर संशोधन किये गये। इसका असर यह हुआ कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को लंबे समय तक जेलों में कैद रखा गया। यूपीए के जिम्मेदार लोगों के चाहने के बावजूद, राहुल गांधी 2004 तथा 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद सरकार में शामिल नहीं हुए।
सन् 2014 से 2019 के बीच मोदी सरकार का लोकसभा में वस्तुतः कोई विरोधी पक्ष नहीं रहा। जी-23 के नाम से चर्चित वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के समूह ने कांग्रेस को और कमजोर किया। स्थितिवश, राहुल गांधी, अपनी माँ सोनिया गांधी सहित, कांग्रेस के मुख्य नेता बन गये। अपने पिता राजीव गांधी के विपरीत जो अपनी माँ, श्रीमती इंदिरा गांधी, की हत्या के तुरंत बाद प्रधानमंत्री बने थे, और एक महीने बाद हुए लोकसभा चुनावों में जिन्होंने प्रचंड जीत हासिल की थी, राहुल गांधी को विपक्ष के नेता के तौर पर अनिवार्यतः राजनीति में बने रहना पड़ा। इस दौरान वो लगातार जनता से जुड़े मुद्दे उठाते रहे।
देश में बढ़ रही निरंकुशता, लोक संस्थाओं को लगातार कमजोर करने की कोशिशों तथा देश में संविधान को मूल रूप में बदल देने के गंभीर और खतरनाक प्रयासों के मद्देनजर राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो यात्रा बिल्कुल सही समय पर सही कदम साबित हुई है। हिन्दुस्तान के अवाम को एक करने, राष्ट्र को मजबूत बनाने तथा लोकतंत्र और संविधान को बचाने के लिए सभी देशप्रेमियों को एकजुट करना इस यात्रा का लक्ष्य था। यात्रा 7 सितंबर, 2022 को कन्याकुमारी से शुरू हुई और जम्मू-कश्मीर में खत्म हुई। यह यात्रा 136 दिन की रही, इसने 3500 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय की। यात्रा को जनता का जबर्दस्त समर्थन मिला। आज की सरकार की जनविरोधी नीतियों और राष्ट्र को विभाजित करनेवाले मुद्दों के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए लाखों लोगों ने इस यात्रा में शिरकत की। इस यात्रा के जरिए व्यापक बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, नफरत और बँटवारे की राजनीति तथा हमारी राजनीतिक व्यवस्था का अति केंद्रीकरण, जैसे मुद्दों पर बात रखी गयी। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़े लोग इस ऐतिहासिक आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए साथ आए।
कांग्रेस का हिस्सा न होते हुए भी, भारत जोड़ो यात्रा के उद्देश्यों के साथ खड़े तथा इस यात्रा में शामिल तमाम लोगों ने 6 फरवरी 2023 को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में एक राष्ट्रीय सम्मेलन किया। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश में सक्रिय लगभग 600 गैरसरकारी संगठनों और सहधर्मी कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। इस सम्मेलन में राष्ट्रीय स्तर पर एक मिशन शुरू करने का संकल्प लिया गया जिसे भारत जोड़ो अभियान नाम दिया गया है। इस सम्मेलन में पारित शुरुआती संकल्प में कहा गया है –
आज हम भारत के लोग भारत के भविष्य की रक्षा के लिए एक मिशन, एक सात साल लंबी यात्रा पर निकल पड़े हैं। आज हम गणतंत्र की पुनः प्राप्ति, संवैधानिक मूल्यों के दोहराने, लोकतांत्रिक संस्थानों को बचाने और हमारे स्वतंत्रता संग्राम की भावना को फिर से जगाने के लिए एक आंदोलन, ‘भारत जोड़ो अभियान’, की शुरुआत कर रहे हैं। हमारे संविधान, हमारे राष्ट्रवाद, हमारी सभ्यता, और वास्तव में भारत के विचार पर हो रहे हमले के खिलाफ एक आंदोलन- राष्ट्रीय पुननर्निर्माण का एक आंदोलन- जो राजनीतिक परिवर्तन में सहयोग से आगे बढ़कर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन को बढ़ावा देने और जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए, जो प्रत्येक भारतीय के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के संवैधानिक वादे को सुरक्षित करने के लिए एक भरोसा प्रदान करता है।
हम भारत के नागरिक हैं जिन्होंने विभिन्न जन आंदोलनों, संगठनों और राजनीतिक संरचनाओं के साथ काम किया है। हममें से कई लोगों ने कन्याकुमारी से श्रीनगर तक, निराशा से लेकर आशा तक, चुप रहने से खुद को अभिव्यक्त करने तक, उँगली उठाने से व्यक्तिगत जिम्मेदारी उठाने तक, और अराजनीतिक रुख से नागरिकों के रूप में अपनी राजनीतिक भूमिका के स्पष्ट दावे तक, चली ऐतिहासिक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में भाग लिया है। इस यात्रा की अभूतपूर्व सफलता उन सभी पर एक असाधारण जिम्मेदारी डालती है, जिन्होंने इस यात्रा में अपने तन, मन या आत्मा के साथ भाग लिया। हम इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए, लंबे संघर्ष से मिली आजादी की रक्षा के अपने अधिकार के लिए, और अपने संविधान की रक्षा के लिए, अपने पवित्र कर्तव्य के निर्वहन के लिए, भारत जोड़ो अभियान की शुरुआत करते हैं।”
मुझे लग रहा है, बल्कि पूरा यकीन है, कि भारत के संविधान पर बहुत गंभीर खतरा मँडरा रहा है और इसकी अनदेखी करने का अर्थ है हिन्दुस्तान की पूरी सभ्यता, पूरी संस्कृति के स्वरूप में भयानक बदलाव के खतरे की अनदेखी करना। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा खतरा इससे पहले भारत के इतिहास में उपस्थित नहीं हुआ था। इस अर्थ में यह क्षण भारतीय सभ्यता और संस्कृति का सबसे कठिन क्षण है।
इन हालात में हम भारत के सचेत नागरिक (वी द पीपुल ऑफ इंडिया) की फौरी भूमिका से तय होगा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर), संघात्मक, गणतंत्रात्मक राष्ट्र के रूप में बचेगा या नहीं? हमारी भूमिका ही यह तय करेगी कि हजारों साल के सतत संघर्ष और यात्रा में अपनी सभ्यतागत उपलब्धियों के रूप में जो हासिल किया है, वह बचता है, या नष्ट हो जाता है?