1. रोज एक सुबह की विदाई
हर रोज उपेक्षित बीत जाने के बावजूद
उदार सुबह फिर आ गयी
फिर विदा होगी बेखास
हम फिर बेभाव ताकते रह जाएंगे
वैसे के वैसे खड़े
जैसे कुछ घटता-बढ़ता न हो।
खुद को खुश करने के लिए
हम फिर पछताएंगे
फिर पीठ ठोकेंगे अपनी
आलोचना सहने की हिम्मत पर
काफी है इतना, अमर होने के लिए।
हम फिर गिरेंगे बेहिसाब
अपनी मनमानियों की घाटी में
फिर जोड़ेंगे ईंट-दर-ईंट
गुप्त स्वार्थों की नींव की।
हमें वक्त के बारे में चिंतित रहने की सनक है
हमें खूब पता है
देश के नाम आंसू बहाने की कला
जानता हूँ- जनता के लिए छाती पीटना
किस फैशन का नाम है-
बधाई हर रंग की
भरी रहती है जुबान में
धन्यवाद लुटाता फिरता हूँ
दोनों हाथों मुफ्त
सारी ! बोलने का दौरा पड़ता है हमें
छींटता हूँ हर वक्त
प्यार के आभासी फूल
हकीकत में न सही
हकीकत के ख्वाब में जीना कितना मादक है
कितना मीठा, कितना जादुई
हमें जगाने की विफल कोशिश करती
सुबह फिर-फिर आएगी
मात खा-खाकर
हार न मानती माँ की तरह।
हम बेरंग रह जाएंगे
चेहरे पर सुबह की धूप नाचने के बावजूद
हम जग भी जाएंगे यंत्रवत्
कभी न जगने की कसम खाकर भी!!
2. है!
है- समय का अमृत बीज है
हवा की तरह अदृश्य और अमर
होने, न होने में
प्रकट रहने, अदृश्य हो जाने में
जो कुछ पहले हुआ
जो कुछ आगे होगा
सबमें धॅंसा हुआ है- है।
सुगंध की तरह अविनाशी
कल्पना की तरह अनिवार्य
सुख-दुख पी जाने के बाद
शेष बचे एहसास की तरह।
जन्म लेती हैं, एक से एक घटनाएं
मिट जाती हैं
विदा हो जाती हैं- हृदय से
सभ्यताएं, संस्कृतियां
सत्ता के तांत्रिक मंत्रपाठ
मैं-मय मनुष्य का आत्मगान
पाने की अनहद भूख
सुंदरताओं का चुम्बकीय निनाद
मोह का जादुई खेल
नाच रहे हैं- है की धुरी पर।
है से मुक्ति
शून्य के बगैर सृष्टि की तरह असंभव
नहीं है किसी अस्तित्व की सत्ता, महत्ता
है की नींव के बगैर
था में मौजूद था- है
होगा में भी मौजूद रहेगा- है
यह जो- है
अनुभूतियों में कांपते हुए
अखंड जीवन का दीया है।।
3. अनगढ़ मैदान थे पिता!
पिता का सांवला बदन
अनगढ़ मैदान था
उपजाऊ किन्तु ऊबड़-खाबड़
अटपटे नंगे पैर
मानो धरती की मोहमाया में धॅंसे हुए
अंग-अंग पर उभरी हुई नसें
जड़ों की तरह फैली थीं
परिवार को रक्त से सींचने के लिए।
कद की गहराई बूझ पाना
उनकी आत्मा में उतरे बगैर
असंभव था।
पिता के शरीर से अद्भुत गंध झरती थी
जो दरख्तों की छाल में होती है
जंगली झरने के पानी में
या फिर पकी हुई फसलों की सोंधी माटी में।
जीते जी जान ही न सका
पिता कितनी सीधी राह थे
पिता को खोकर
रोज-रोज पाता हूँ भीतर
पिता के नये-नये अर्थ।
अंधकार से लड़ते दीया में
हरी से पीली होती फसलों में
विदा करने के बाद
बेआवाज़ बेहिसाब रुलाई में
सूखे तालाब की फटी बिवाइयों में
भोर आने के ठीक पहले
आकाश के जगाव में
चिरई-चुरुंग की उड़ानों में भी
पा ही लेता हूँ
पिता होने का पता।
4. ईंटवाली
पेट भरने का सपना
मृग मरीचिका की तरह नाचता है
अधकचरी हड्डियाँ हार खा-खाकर
असमय ही मजबूत हो चुकी हैं
आँखों में,
न बचपन जीने की ललक
न प्यार-दुलार की प्यास
न ही माई-बाप,
खो देने वाले आँसू –
बची है तो बस
भूख से लड़ने की सनक,
आबरू बचाते फिरने की चिन्ता,
अकेले जीने-मरने की बेबसी
और, मार खा-खाकर भी
अभी न मरने की भूख।
पौधे की तरह शरीर
कठपुतली की तरह नाचती है
पैर हैं कि फिरकी
थक-थक कर, थकना जानते ही नहीं
हाथ हैं कि टहनियाँ
जिसने काम के आगे झुकना ही नहीं सीखा;
जन्मी तो बिटिया ही थी
गरीबी ने उसे बेटा बना दिया
लड़की होकर जी पाना उसे कहाँ नसीब?
मासूमियत का रंग, अंग-अंग से गायब है,
मजबूरी की मार खा-खाकर
बचपन ने कब का दम तोड़ दिया,
प्रतिबन्धित है उसके लिए
युवती होने के सपने देखना
आकाश-पाताल के बीच
वह किस पर विश्वास करे,
कुछ समझ में नहीं आता
आजाद पंछी की तरह उड़ने की चाह
शरीर के किस-किस कोने से उठती होगी,
कौन जाने?
लोगों की जुबान से उसका असली नाम गायब है,
मजदूर है इस कदर कि
जिन्दा रहने की पहचान ही गायब है
मान-सम्मान, इज्जत-आबरू छिन जाने के बावजूद
बची हैं तो दोनों कलाइयों में
रंग-बिरंगी चूड़ियाँ
जिसे माई ने अपने हाथों पहनाया था।
5. गलतियाँ तीसरी ऑंख हैं
अचूक दवा होती हैं- गलतियां
जिद्दी रोग मिटाने के लिए
अदृश्य नश्तर जैसी भी।
अनमोल सबक की शक्ल में
दादी जैसी चुपके-चुपके
नेह-सिखावन भरती हुई।
गलतियां हमें सही करने में
तनिक भी गलती नहीं करतीं।
अधूरा है, खोखला है, वह हर सही
जो नहीं तपा, नहीं गला
नहीं लड़खड़ाया, नहीं गिरा
मात कभी खाया ही नहीं
जो भर तबियत नहीं रोया
अनगढ़ गलतियों की जमीन पर।
गलतियाँ धो, पोंछ डालती हैं
गलती करने के सारे भय
धंसा देती हैं पैर
साहस के अतल में
अदम्य आत्मविश्वास का तानाबाना
गलतियों से बुना होता है
बिना गलती किए
खुद को पक्की निगाह से परखने की
तीसरी आंख होती हैं गलतियां।
6. घर की आभा में सूरज की चमक
घर से निकले रास्ते
घर की अलौकिक सुगंध से भरे होते हैं
घर की आत्मा से लबरेज़
बहुत दूर नहीं जाते घर के रास्ते
वृक्ष की जड़ों की भांति
चुपचाप घेरे रहते हैं घर को
जैसे हृदय से निकली धमनियां हों
जिनमें घर का प्राण बहता है।
घर के ऊपर का आकाश कोई आकाश नहीं
कल्पनाओं को पंख देने वाला
इन्द्रधनुषी विस्तार है
जिगर के टुकड़े की तरह हृदय में बसा हुआ
असीम सृष्टि का टुकड़ा।
घर के आसपास की मिट्टी
सबसे उपजाऊ होती है, घर की छाया में पली
घर के मोह से बंधी हुई
बचपन की नादानियों का जादुई बिछौना
घर की आभा में सूरज अधिक चमकता है
आसमानी दिशाएँ नजदीक आती हुईं
विरही आकांक्षा बन जाती हैं
जन्म देने वाले घर की पुकार
सबसे अपराजेय पुकार है
हृदय के कोने-कोने में दस्तक देती हुई।
7. जिद्द
बुझे हुए हृदय में टिमटिमाती हूँ संकल्प की तरह
असंभव सी मंजिल छूने के लिए
निगाहों की विकट भूख जैसी…
मिल ही जाती हूँ जुगुनू की तरह
अंधकार में तड़पती आत्मा के भीतर
अद्भुत, असाधारण, बेमिसाल
मुझसे गुजरकर ही अर्थ पाते हैं
पुकारना मुझे उस क्षण
जब तुम्हारी हर कोशिश असफल हो जाय
कल्पना को जमीन पर उतारने में
जब लाखों की भीड़ में अकेले खड़े रहने हौसला
लड़खड़ाने लगे
जब अपने पर से अपना विश्वास उठने लगे
जब लगने लगे कि खोना ही
अंतिम सत्य है जीवन का।
तुम्हारे हर असंभव से कद के पीछे
छिपी हुई बिजली हूँ मैं
तुम्हारी हर ऊंचाई की नींव में
दबी हुई अपराजेय आग हूँ।
सातों कवितायें संवेदनापूर्ण और मर्मस्पर्शी हैं | श्रम का सौन्दर्य और स्मृतियाँ इन कविताओं में पूरी मौलिकता से अभिव्यक्त हुई हैं |
पठनीय…
सातों कविताएं हमें अपने बाहरी और भीतरी परिवेश के प्रति सजग बनाती हुई हमारे सेंस को मैच्योर बनाती प्रतीत होती जान पड़ती है। कविता के अंतःकरण में जैसे ‘अपराजेय की आग’ दबी हो। अनगढ़ मैदान थे पिता,गलतियां तीसरी आंख हैं और जिद्दी कविताएं अलग आस्वाद की कविताएं है। इंटवाली कविता का कथ्य भावात्मक होने के साथ ममत्व की आभा से मंडित है।
भरत सर को आभार…