जलवायु परिवर्तन की चपेट में मुजफ्फरपुर की लीची

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लू से बरबाद हुई लीची


— प्रभात कुमार —

प्रचंड गर्मी, लू के थपेड़े, पसीने से तरबतर लोग और उनके सूख रहे कंठ तर कर देती है- ‘फलों की रानी लीची’। मई जून के महीने में प्रकृति की विशेष सौगात है यह। लाल- लाल चीनी से भी ज्यादा मीठी एक विशेष स्वाद और सुगंध युक्त लीची। अगर मुजफ्फरपुर की शाही लीची हो तो इसकी बात ही निराली है। यह पूरी दुनिया में अपने खास स्वाद के लिए प्रसिद्ध है। यही कारण है कि देश ही नहीं विदेश में भी मुजफ्फरपुर की लीची की मांग बनी रही है। लेकिन विडंबना है कि बीते एक दशक से यह चौतरफा मार झेल रही। इस बार तो अप्रैल महीने से ही हीट वेव के कारण लीची की 40 फीसदी फसल जल गयी और अब लीची एक सप्ताह पहले ही बाजार से गायब हो गई। यही नहीं, मौसम की मार के कारण लीची के हजारों पौधे झुलस और सूख गए हैं।

‘उद्यान रत्न’ भोलानाथ झा

मुजफ्फरपुर लीची अनुसंधान केंद्र वरिष्ठ वैज्ञानिक रहे डाॅ. एसके पूर्वे बताते हैं कि मुजफ्फरपुर की ख्याति पूरी दुनिया में लीची को लेकर है। मुजफ्फरपुर को लीची का कटोरा भी कहा जाता है। लेकिन इस वर्ष बढ़ते प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के चलते अप्रैल महीने में ही इस इलाके का तापमान 40 डिग्री से ऊपर पहुंच गया और हीट वेव एवं सन स्ट्रोक के साथ तापमान में भी भारी उलटफेर हुआ। जो लीची के लिए बड़ा अभिशाप बना। इस वर्ष तापमान 40 से 44 डिग्री रहा। जबकि हर हाल में लीची के लिए 40 डिग्री से कम तापमान जरूरी है। उसके सेल्फ लाइफ के लिए तापमान 20 से 22 डिग्री ही होना चाहिए। दूसरा वजह आर्द्रता (ह्यूमिडिटी) रही। इधर कुछ वर्षों से प्रदूषण के कारण सूर्य से निकलने वाली अल्ट्रा वायलेट किरणों से लीची को बड़ा नुकसान हो रहा है।

कोरोना काल में प्रदूषण नियंत्रण में था। आबोहवा भी अच्छी थी और इस बीच मौसम के कारण लीची को कम नुकसान उठाना पड़ा। इस वर्ष प्रदूषण भी अधिक रहा और हीट वेव का असर पड़ा। जिसके कारण लीची की फसल मारी गई और पुराने चाइना लीची के हजारों पौधे सूखने की खबर है।

एक दशक से मुजफ्फरपुर की लीची चौतरफा मार झेल रही

मुजफ्फरपुर की लीची पर कोई दस वर्षों से चौतरफा मार जारी है। पहले एक अपुष्ट मेडिकल जानकारी ले डूबी, फिर कोरोनावायरस व लॉकडाउन और अब प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन बड़ी मुसीबत बने हैं। इंसेफलाइटिस को लेकर एक मेडिकल जर्नल में शोध का हवाला देते हुए मुजफ्फरपुर की लीची को ‘चाइल्ड-किलर’ करार दिया गया। फिर देश-विदेश तक यह आधी-अधूरी जानकारी मीडिया में छा गई। हालत ऐसी हुई कि लोग लीची को देखकर थूकने लगे। लीची के उत्पादन से जुड़े किसान और कारोबारी कंगाल हो गए। तब 2016 में राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र मुजफ्फरपुर के तत्कालीन निदेशक विशालनाथ ने मुजफ्फरपुर गजेटियर का हवाला देते हुए मुजफ्फरपुर को लीची भूमि बताया। इसके 200 वर्षों से भी लंबे सफर को रखा। फिर पूरे तर्क के साथ लीची को बेदाग साबित किया। फिर इस शोध से जुड़े सीएमसी वेल्लोर के वायोलॉजी विशेषज्ञ और सीनियर शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ.टी जेकब जाॅन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर लीची को लेकर फैली गलतफहमी को दूर किया। इसके बाद जब तक हालत सुधरती तब तक मुजफ्फरपुर एकबार फिर जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण को लेकर संकट में आ गया। लीची पर एक के बाद एक संकट के बीच ही 2020-21 में कोरोनावायरस का विश्वव्यापी कहर और लॉकडाउन शुरू हो गया। जिसके कारण लीची का व्यवसाय और कारोबार फिर चौपट हो गया। 500 करोड़ का नुकसान हुआ। लीची से जुड़े तमाम किसान और उद्यमियों की कमर टूट गई। बीते साल 2022 में इस संकट से कुछ हद तक उबरने की कोशिश हुई। लेकिन इस वर्ष समय से पहले ‘हीट वेव’ और तापमान में लगातार उलटफेर के कारण बड़ी क्षति हुई है।

लीची के फलों के साथ बगीचे पर भी इसका काफी प्रतिकूल प्रभाव पर है। लीची के फलों का विकास नहीं होने के साथ-साथ इसका रंग बदल गया, यह बादामी दिखने लगा और आकार भी छोटा होने के साथ-साथ फल के फटने आदि की समस्या आई। जिसके कारण लीची की 70 फीसदी से ज्यादा फसल बर्बाद हो गई।

केंद्र और राज्य, दोनों से मिली उपेक्षा

लीची के बड़े उत्पादक एवं ‘उद्यान रत्न’ 82 वर्षीय भोलानाथ झा कहते हैं कि बिहार की अर्थव्यवस्था में कम से कम 500 करोड़ का योगदान लीची का है। जिसमें आधा हिस्सा सिर्फ मुजफ्फरपुर का है। जिस तरह देश और दुनिया में कश्मीरी सेब अपने खास स्वाद के लिए जाना जाता है उसी तरह मुजफ्फरपुर की शाही लीची की पहचान देश-दुनिया में अपने खास स्वाद के लिए है। यह यहां की जलवायु और मिट्टी के कारण है। वह बताते हैं कि लीची प्रकृति की एक ऐसी सौगात है, जो भारत में मुश्किल से एक महीने की होती है। इसके लिए किसान 11 महीने अपने बगीचे में अपना खून पसीना बहाकर इसकी देखभाल करते हैं। फिर भी किसानों को अपने फल का उचित मूल्य नहीं मिलता है। उन्हें लीची की बिक्री के लिए मुजफ्फरपुर शहर में बाजार उपलब्ध है जहां वह शेड रखकर लीची बेच सकें। मुजफ्फरपुर में लीची के लिए एक बड़े काम्पलेक्स की जरूरत है। 2003 में तत्कालीन जिलाधिकारी अमृतलाल मीणा ने अहियापुर कृषि बाजार समिति से इसके लिए एक योजना बनाई थी जहां लीची के बिक्री के लिए एक बड़ा शेड हो। इसके बगल में लीची के भंडारण की व्यवस्था हो। इसकी कूलिंग एवं प्रोसेसिंग की व्यवस्था हो और जहां से इसे महानगरों एवं विदेश में सुरक्षित भेजा सके।

मौसम की मार से झुलसी लीची

इस वर्ष (2023) फिर मौसम की मार और प्रदूषण के कारण आबोहवा बिगड़ गई। जिसके कारण लीची किसानों को फिर करोड़ों का नुकसान हुआ है। लीची लगभग एक सप्ताह पहले ही बाजार से गायब हो चुकी है। यहीं नहीं हीट वेव के कारण लीची के हजारों पौधे झुलस गए हैं। 20 एकड़ से ज्यादा लीची के बगीचे इसकी ज़द में आ गए हैं।

किसान भोलानाथ झा कहते हैं कि 4 साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुजफ्फरपुर की लीची और लहठी के प्रोत्साहन के लिए बड़ी घोषणा की थी, लेकिन यह महज चुनावी घोषणा होकर रह गई। वैसे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लीची के शेल्फ लाइफ लेकर अनुसंधान के लिए एक सौगात दी। रिसर्च के लिए राशि भी उपलब्ध कराई। लेकिन इस कार्य का नेतृत्व कर रहे वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस के पूर्वे को तत्कालीन कृषिमंत्री राधा मोहन सिंह ने यहां से हटाकर अपने गृह जिला पूर्वी चंपारण भेज दिया। मालूम हो कि उन्होंने मंत्री बनने के बाद पिपरा कोठी में कृषि अनुसंधान केंद्र की समेकित कृषि पर रिसर्च के लिए इकाई खोल दी।

भोलानाथ झा बताते हैं कि नीतीश कुमार ने 2001 में, जब वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कृषि मंत्री थे, मुजफ्फरपुर में लीची अनुसंधान केंद्र की स्थापना कराई थी। लेकिन उनके कृषिमंत्री पद से हटते ही इस संस्थान का बंटाढार हो गया। वैसे वह बीते दो दशक से बिहार की बागडोर संभाल रहे हैं। फिर भी लीची के किसानों समस्या यथावत बनी हुई है।

मोदी सरकार में कृषिमंत्री बने राधामोहन सिंह ने निराश किया

समाजवादी नेता डॉ. हरेंद्र कुमार बताते हैं कि जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उनकी सरकार में मोतिहारी के सांसद राधामोहन सिंह कृषिमंत्री बने। तब यहां के लीची किसानों की उम्मीदें जगीं। लेकिन राधा मोहन सिंह ने जिस तरह मुजफ्फरपुर के राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के कायाकल्प और फूड पार्क की स्थापना की जगह पिपराकोठी में एक अलग कृषि अनुसंधान केंद्र की इकाई खोल दी और मुजफ्फरपुर में अनुसंधान कार्य में जुटे वैज्ञानिकों का तबादला हो गया उससे यहां के लोगों को भारी धक्का लगा। आज की तारीख में राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र में कृषि वैज्ञानिक तक नहीं हैं। यहां काफी प्रयास के बाद हाल में एक निदेशक को भेजा गया है।

लीची को बचाने के लिए क्या किया जाए

अखिल भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की सलाहकार समिति के सदस्य एवं पूर्व विधान पार्षद गणेश भारती बताते हैं कि लीची किसानों का मामला राज्य से ज्यादा केंद्र से जुड़ा हुआ है। जब अटल सरकार थी और नीतीश कुमार कुछ दिनों के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री बने थे तब कुछ प्रयास संभव हो सका था लेकिन उनके बाद उत्तर प्रदेश के अजीत सिंह कृषि मंत्री बने और उन्होंने मुजफ्फरपुर के लीची अनुसंधान केंद्र को उत्तराखंड ले जाने का मन बना लिया था लेकिन हम लोगों के विरोध और जॉर्ज और नीतीश कुमार के प्रयास से यह अनुसंधान केंद्र बच गया। कुछ दिन पहले इस अनुसंधान से सारे वैज्ञानिकों का तबादला कर दिया गया। अब काफी प्रयास से यहां एक निदेशक की पोस्टिंग हुई है। मुजफ्फरपुर की लीची को बचाने के लिए एक रोडमैप की जरूरत है। किसानों को केंद्र और राज्य दोनों से प्रोत्साहन के साथ-साथ विशेष आर्थिक पैकेज मिले। महानगरों एवं विदेश में मार्केटिंग के लिए भंडारण, शीतकरण एवं प्रोसेसिंग और एयर कार्गो और सुपर फास्ट ट्रेन में एसी पार्सल वैन की व्यवस्था हो।

कई कृषि वैज्ञानिक दबे जुबान बताते हैं कि मुजफ्फरपुर की शाही लीची को संरक्षित करने की जरूरत है। इसके लिए शोध के साथ-साथ किसानों के प्रोत्साहन एवं विपणन की योजना बनाने की जरूरत है। अन्यथा देश और दुनिया में मुजफ्फरपुर की लीची को लेकर पहचान ही खत्म हो जाएगी।

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