आदिवासी केंद्रित वन अधिनियम की जरूरत

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— रमेश शर्मा —

न एवं पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार भारत के लगभग 400 जिलों में वन है लेकिन मैदानी इलाकों में (उत्तर-पूर्वी राज्यों को छोड़कर) बेहद सघन वन लगभग 75 जिलों में ही है। इन जिलों के नाम हैं – बस्तर, नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा, कालाहांडी, रायगढ़ा, चतरा, पाकुर, साहेबगंज, सुंदरगढ़, मलकानगिरि, अंगुल, दुमका, चंद्रपुर, खम्मम आदि। संयोगवश यही वो प्रमुख जिले हैं जहाँ भूमि के नीचे कोयला, बाक्साइट, लौह अयस्क और तांबा मौजूद है। और यहीजिले मूलतः आदिवासी जनसंख्या और विशेष पिछड़ी जनजातियों की अपनी मातृभूमि हैं। भारत सरकार की वर्ष 2015 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार इन जनजातियों में लगभग दो-तिहाई लोग भूमिहीन हैं – अर्थात् आजादी के 75 साल बाद भी सरकारें उन्हें दो गज जंगल-जमीन का अधिकर न दे सकीं।

यदि भारत के इन सबसे सघन वन वाले जिलों की संपन्न खनिज संसाधनों वाले जिलों से तुलना की जाए तो एक महत्त्वपूर्ण समानता यही होगी कि अमूमन सघन वन और प्रचुर खनिज संसाधनों वाले जिले लगभग एक ही हैं। भारत के मैदानी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न अमीर धऱती के गरीब लोगों के इस आकलन का निष्कर्ष यह है कि भारत के 50 सबसे गरीबतम जिले – 50 सबसे प्रमुख आदिवासी बहुल जिले – 50 सबसे अधिक प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर जिले – 50 सबसे सघन वनों वाले जिले और 50 सबसे अधिक संगठित हिंसा के शिकार जिले कमोबेश एक ही हैं।

50 जिलों का यह विरोधाभास और संसाधनों से संपन्न होने के बावजूद उनका गरीबी और हिंसा का शिकार रह जाना व्यवस्था की चूक नहीं बल्कि राज्य व्यवस्था के विकास का नया मॉडल है। लेकिन विकास के इस नये मॉडल के लाभार्थी कौन अथवा कौन-कौन हैं?

वन संसाधनों का हाल

भारत की स्वाधीनता से लगभग 100 बरस पूर्व पर्यावरण की रक्षा और वनों के संवर्धन के नाम पर वन अधिनियम (1865) और फिर भारतीय वन अधिनियम (1927) लागू करते हुए वनों की रक्षा और संवर्धन का दायित्व वन विभाग को दिया गया। हमारा सामान्य ज्ञान यह बताता है कि हरियाली अर्थात् पेड़-पौधे अर्थात् जंगल इस धरती के फेफड़े हैं। इसलिए जंगल को बचाना और बढ़ाना सरकार और समाज दोनों की जवाबदेही है। लेकिन विगत 100 बरसों से वन विभाग वन-संपदा को अपना वैधानिक विशेषाधिकार मानता है।

गौरतलब है जब ब्रितानिया सरकार ने 1865 में प्रथम वन कानून लागू किया तब वनों का अनुपात लगभग 44 प्रतिशत था। लेकिन 1927 में भारतीय वन अधिनियम लागू होते-होते यह अनुपात लगभग 35 प्रतिशत हो चुका था। आजादी के बाद हुए भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1952 में वनों का प्रतिशत लगभग 29 प्रतिशत हो गया। इसके बाद पहली बार वन संवर्धन के लिए विश्व बैंक से ऋण लिया गया और 1980 के आते-आते वनों का क्षेत्रफल केवल 21 प्रतिशत रह गया। आज वर्ष 2022 में वन सर्वेक्षण विभाग के अनुसार सघन वनों का प्रतिशत  मात्र 12 है। सवाल है- यदि वन विभाग का दायित्व वनों और पर्यावरण का संरक्षण-संवर्धन है तो वनों की सघनता 44 से 12 प्रतिशत रह जाने के लिए जवाबदेह कौन है?

विचित्र विरोधाभास है कि भारतीय वन अधिनियम के अंतर्गत निर्वनीकरण वास्तव में वन विभाग का प्रशासनिक अधिकार है और इसके लिए बाकायदा वन विकास निगम की स्थापना की गयी। विगत लगभग 100 बरसों से निर्वनीकरण और उसके माध्यम से सरकार के लिए राजस्व जुटाने का कार्य वन विकास निगम कर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक विगत सौ बरसों में वनों के विनाश का कुल आर्थिक मूल्य लगभग 65 बिलियन डॉलर है।

भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ औपनिवेशिक वन अधिनियम (1927) के चलते न केवल 10 करोड़ से अधिक आदिवासियों को अतिक्रमणकर्ता घोषित किया गया बल्कि उन आदिवासियों को उनके ही आजा-पुरखा से संरक्षित भूमि पर मूल निवासी मानने से इनकार कर दिया गया। पर्यावरण के सभी सिद्धांत मानते हैं कि वनों की रक्षा और संवर्धन केवल समुदाय की भागीदारी और स्वामित्व से ही संभव है लेकिन दुर्भाग्यवश भारत का मौजूदा भारतीय वन अधिनियम इस सिद्धांत को वैधानिक रूप से खारिज करता है।

हम सबकी सामूहिक जवाबदेही वृक्षारोपण और वनों के संवर्धन की तो है और होनी भी चाहिए लेकिन उससे भी महत्त्वपूर्ण हमारा नागरिक दायित्व है कि हम आदिवासियों के पक्ष में कहें कि भारतीय वन अधिनियम के औपनिवेशिक स्वरूप को समाप्त करके आदिवासी केन्द्रित वन अधिनियम बनाया जाए। स्वाधीन भारत में पर्यावरण संरक्षण का सबसे महत्त्वपूर्ण कानून आखिर औपनिवेशिक क्यों होना चाहिए?

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि वनों के विनाश के नये लाभार्थी वन विभाग अर्थात् खुद सरकार है।

खनिज संसाधनों का हाल

पर्यावरण रक्षा की दृष्टि से दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन खनिज है। हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि हमारी धऱती पर खनिज, एक सीमित संसाधन है।

वर्ष 1980 के विश्व पृथ्वी सम्मेलन के बाद जब जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों को लेकर दुनिया ने संवेदनशील होना शुरू किया तब एक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव यह था कि दुनिया के सभी देश नियंत्रित उत्खनन की ओर बढ़ेंगे। भारत जैसे खनिज संपदा से संपन्न देश को नियंत्रित उत्खनन को सैद्धांतिक रूप से स्वीकारने में लगभग 30 बरस लगे और फिर जब वर्ष 2015 में नया उत्खनन कानून आया तब तक नियंत्रित उत्खनन के सिद्धांत और व्यवहार को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया था।

आज भारत में लगभग 1245 खदानें हैं और लगभग 2000 और नये खदानों की खोज की जा चुकी है अर्थात् भविष्य में हम और अधिक खदान शुरू करने जा रहे हैं। भारत के 50 प्रमुख खनिज संसाधनों वाले जिलों में गरीब और विस्थापित लोगों संख्याओं और कहानियों से जाहिर है कि लाभार्थी वे गरीब आदिवासी तो नहीं हैं; फिर उत्खनन के नये लाभार्थी आखिर कौन हैं?

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की रिपोर्ट (2010) के अनुसार भारत में लगभग दो-तिहाई खदानें अवैधानिक हैं, अर्थात् वहाँ पर्यावरण के निर्धारित मानकों का पालन नहीं किया जाता जिसके चलते न केवल वनों और वन्यजीवों की हानि हो रही है बल्कि नई स्वास्थ्य आपदाएँ भी सामने आ रही हैं। लेकिन उतना ही महत्त्वपूर्ण यह जानना भी होगा कि उत्खनन से प्राप्त होनेवाला अधिकांश मुनाफा सरकार को नहीं बल्कि उत्खनन कंपनियों को हो रहा है।

आश्चर्य है कि जिस कीमत पर आप 1 किलो गोबर की खाद भी नहीं खरीद सकते, उस कीमत पर इस धरती के सबसे कीमती और सीमित मात्रा में उपलब्ध खनिज संसाधनों को सरेआम बेचा जा रहा है। और हर साल उन लाखों लोगों को विस्थापित किया जा रहा है जिनकी जमीनों के नीचे दबे कोयले, ताम्बे और बाक्साइट को किसी भी नुकसान की कीमत पर निकालना और सौदा करना विकास के नये मॉडल का मूल आधार है।

जाहिर है उत्खनन के लाभार्थी निश्चित ही वे तमाम कॉरपोरेट हैं, जिन्हें पर्यावरण और लोगों दोनों की कीमत पर मुनाफा कमाने की वैधानिक छूट सरकार और समाज दे चुके हैं।

जल संसाधनों का हाल

भारत में पर्यावरण की दृष्टि से जल संसाधनों की बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वर्ष 2008 में भारत सरकार की ओर से गुपचुप  ‘जल संसाधनों का सरकारीकरण का पहला मसौदा रखा गया। जल सुरक्षा के दस्तावेजों और भूजल नियंत्रण के वैधानिक प्रस्तावों के माध्यम से सरकार का मकसद जल संसाधनों के उपयोग/विक्रय के आधार पर राजस्व जुटाना था। बहरहाल, ऐसा कोई कानून तो नहीं आया लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले वक्त में पानी के उपयोग-दुरुपयोग की महँगी कीमत सरकार को देनी होगी। सैद्धांतिक रूप से यह सही लग सकता है लेकिन इसके लाभार्थी आखिर कौन होंगे?

बोतलबंद पानी आज हम सबकी जिंदगी का एक अनिवार्य हिस्सा है। हम सब जानते हैं कि पानी को कृत्रिम रूप से बनाया नहीं जा सकता इसलिए इतना तो तय है कि बोतल का पानी किसी नदी अथवा झरने का ही पानी है। लेकिन, इसे बोतलबंद करनेवाली कम्पनी को इस नदी अथवा झरने अथवा भूजल लेने पर लगभग कोई कीमत नहीं चुकानी होती अथवा बेहद कम कीमत चुकानी होती है। अलबत्ता इसे तथाकथित रूप से मिनरल वाटर बनाने के लिए कुछ इलेक्ट्रो-केमिकल ट्रीटमेंट किया जाता है जिसकी औसत कीमत 10 पैसे प्रति बोतल होती है। फिर इसे जिस प्लास्टिक के बोतल में भरा जाता है उसकी मूल लागत लगभग 1 रुपए होती है- यदि इसमें इस कार्य को करने वाले मजदूर के पारिश्रमिक को भी जोड़ दें तो कुल लागत अधिकतम 2 रुपये तक हो सकती है।

भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय के अनुसार विगत 20 वर्षों में बोतलबंद पानी का व्यापार लगभग 4022 प्रतिशत बढ़ा है जिसका औसतन 80 प्रतिशत मुनाफा उन कंपनियों को मिला जिन्होंने आपको मिनरल वाटर नहीं बल्कि, आपके ही डर को आपको बेचा है। उन तमाम कंपनियों ने मिलकर आपको यह समझा दिया कि बोतलबंद पानी ही सुरक्षित और शुद्ध है।

आज भारतीय समाज की शुद्ध पानी की चाहत और उसके पीछे के डर का कुल व्यापार लगभग 500 अरब रुपये का है और हजारों वैध-अवैध कंपनियाँ इस पानी के व्यापार की लाभार्थी हैं।

समुद्री संसाधनों का हाल

पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था के इस नये दौर में पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को उस बाजार में बदला जा चुका है जहाँ हम और हमारा भविष्य हर रोज बिक रहा है। वास्तव में हम बाजार में खरीदने नहीं बल्कि बिकने, और इस धरती का साझा भविष्य बेचने जा रहे हैं।

हम मशीनों के नये सम्मोहन के दौर में हैं। आज मोबाइल हम सबकी जिंदगी या यों कहें कि शरीर का हिस्सा बन चुका है- मोबाइल जिसे हम सबके परिवार में इस बाजार ने जन्म दिया है। जब भी हम नये मोबाइल की तलाश में बाजार जाते हैं तो हमें बताया जाता है कि ऐसा मोबाइल लें जो पतला और हल्का हो। अर्थात् जो मोबाइल जितना हल्का और पतला होगा उसकी उतनी ही अधिक कीमत होगी।

आखिर यह मोबाइल कौन सी धातुओं से बना है? सबसे बेहतरीन और महँगे मोबाइल बनाने के लिए जिन महत्त्वपूर्ण धातुओं का उपयोग किया जा रहा है ज्यादातर उसे पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स से प्राप्त किया जाता है। लेकिन यह पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स आखिर कहाँ और कैसे मिलता है?

समुद्री अर्थशास्त्र अर्थात् ब्लू इकॉनमी के इस नये खेल ने बताया कि समुद्र की तलहटी में पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स के अथाह भण्डार मौजूद हैं, जिसे निकालने के लिए समुद्री सतह के उत्खनन का नया दौर शुरू हो चुका है। जाहिर है, समुद्र की सतह में कोई भी इंसान उत्खनन नहीं कर सकता इसलिए समुद्री सतह के उत्खनन के लिए मुख्य रूप से रोबोटिक्स का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन जिस इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक और लेजर तकनीकों से यह कार्य किया जा रहा है उससे समुद्र की सतह और समुद्री पर्यावरण में एक गहरी और स्थायी उथल-पुथल पैदा हो रही है।

हार्वर्ड एनवायर्नमेंटल रिसर्च रिव्यू के अनुसार समुद्री सतह के उत्खनन के चलते न केवल समुद्री जीव और वनस्पतियाँ समाप्त होंगी बल्कि इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक तरंगों के कारण समुद्र के सूखने और कुछ स्थानों पर फैलने का क्रम भी शुरू होगा जो अंततः वर्षा में कमी और अनियंत्रित जल भराव का कारण बनेगा। साथ ही समुद्री जीवों के ऊपरी सतह पर पलायन के कारण संपूर्ण समुद्री तंत्र में गहरा और स्थायी खाद्य संकट भी खड़ा होगा।

बहरहाल, समुद्री सतह के उत्खनन से प्राप्त पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स से जिस मोबाइल और बेहद संवेदनशील इलेक्ट्रॉनिक्स का निर्माण किया जा रहा है – अमरीका के मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के अनुसार, इसमें उपयोग हुए अधिकांश पदार्थ और उसके जटिल संयोजन को रीसायकल नहीं किया जा सकता। अर्थात् हम एक ऐसे इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक कचरे को जन्म दे रहे हैं जिससे मुक्ति पाने का कोई मार्ग है ही नहीं।

जाहिर है, समुद्री संसाधनों के इस नये खेल अर्थात् समुद्री उत्खनन के नये लाभार्थी वो तमाम गैरजवाबदेह कंपनियाँ हैं जिन्हें उनके द्वारा किये जा रहे पर्यावरणीय अपराधों का कोई इल्म नहीं है– लेकिन एक विवेकशील खरीददार हो सकने वाले हमें तो कम से कम इसका अहसास होना ही चाहिए।

एक अंतिम विकल्प

जेसी कुमारप्पा एक मेधावी अर्थशास्त्री थे। जब 1929 में वे महात्मा गांधी से प्रेरित होकर भारत लौटे तो गांधीजी ने उन्हें पहला कार्य यही सौंपा था कि वह बताएँ कि आखिर एक व्यक्ति या एक देश के द्वारा संसाधनों के उपभोग की सीमा क्या होनी चाहिए? वास्तव में इस सवाल का उत्तर हममें से हरेक को अपने आप से पूछना ही होगा। केवल उत्तर तलाशना ही नहीं, बल्कि उसके अनुसार अपने आप को डी-कोलोनाइस (प्रति-उपनिवेशित) भी करना होगा। आज हमें एक सुरक्षित धरती की खातिर भौतिक और मनोवैज्ञानिक उपनिवेश के खिलाफ अपने आपको प्रति-उपनिवेश का माध्यम बनाना होगा।

पर्यावरण और दुनिया भर में मानव जाति के भविष्य को लेकर यदि हम संवेदनशील हैं तो आज ही वह समय है जब हमें अपने हिंसक लालच अथवा अनुशासित अहिंसक आवश्यकताओं के मध्य एक का चुनाव करना होगा।

मानव सभ्यता के विगत दो सौ बरसों के भीतर हमने धरती, जंगल और समुद्र तथा अन्य जल संपदा का इतना भयावह दोहन किया है कि यदि इसी रफ्तार से संसाधन समाप्त हुए तो वर्ष 2040 तक हमें एक और धरती की जरूरत होगी। हम जानते हैं कि यह संभव है ही नहीं।

पर्यावरण का अर्थ केवल प्राकृतिक संसाधन नहीं बल्कि उन संसाधनों का संयमित उपयोग, और सुरक्षित भविष्य के लिए इसे बचाकर रखना भी है।

वर्ष 1974 में अपने विश्वविख्यात शोध में जेम्स टोबिन ने इसे पीढ़ीगत समानता अथवा पीढ़ीगत न्याय का नाम दिया और जवाबदेह वैश्विक नागरिकों को भावी पीढ़ियों का विवेकशील अभिभावक कहते हुए एक सुरक्षित कल के बारे में सोचने और उसके अनुसार ही जीने का आह्वान भी किया।

आज हमें यह तय करना ही होगा कि आखिर भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित पर्यावरण रहे, उसके सापेक्ष हमारी जवाबदेही क्या है?पर्यावरण दिवस के अवसर पर अब केवल एक पेड़ लगा देना ही काफी नहीं बल्कि उन ताकतों का प्रतिरोध करना भी है जो वनों को काटने, खेतों में केमिकल डालकर जहर पैदा करने, आकाश में जहरीली हवा फैलाने, नदियों और झरनों से पानी चुराने और उसका अवैध व्यापार करने, धरती की कोख चीरकर खनिज संसाधनों को लूटने, नदियों को अपवित्र और दूषित करने, समुद्र को सुखाने और पहाड़ों को निर्वस्त्र करने के साथ-साथ पूरी मानव और सजीव सभ्यता के अस्तित्व को ही नेस्तनाबूद करने में लगे हैं।

यह पृथ्वी पूरी मानव सभ्यता की साझी विरासत भर नहीं बल्कि भावी पीढ़ियों का हमें दिया हुआ कर्ज भी है जिसे सुरक्षित और संवर्धित बनाकर भावी पीढ़ी को सौंपना ही हमें और भावी पीढ़ियों को विवेकशील अभिभावक बने रहने का अवसर देगा।

आज हमारे समक्ष विकल्प, पर्यावरण संवर्धन की नयी उम्मीदों के साथ नये अहिंसात्मक अर्थतंत्र की शुरुआतअथवा संसाधनों की अंधाधुंध लूट के अराजक दौर में अस्तित्वहीन हो जाने के मध्य है।

पर्यावरण-दिवस मानवीय-अस्मिता और मानवीय भविष्य के निर्धारण की नयी शुरुआत है। आइए हम सब मिलाकर पर्यावरण, सभी सजीवों और मानव सभ्यता की रक्षा का संकल्प लें। आज और अभी।

(आलेख आईटीएम यूनिवर्सिटी, ग्वालियर में दिए गए अनुपम मिश्र स्मृति व्याख्यान-3 पर आधारित है)

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