धार्मिक रूप से तटस्थ व स्त्रियों के प्रति न्यायपूर्ण समान नागरिक संहिता की जरूरत – आईएमएसडी

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26 जून। इंडियन मुसलिम्स फॉर सेकुलर डेमोक्रेसी (आईएमएसडी) ने कहा है कि वह भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 का कायल है जिसमें राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करेगा। यह निर्देश संविधान के अनुच्छेद 14 के पूरी तरह अनुरूप है, जिसमें कहा गया है कि कानून की नजर में सभी नागरिक समान हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 15 के भी अनुरूप है जिसमें कहा गया है कि धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

आईएमएसडी ने कहा है कि समान नागरिक संहिता के लिए ईमानदारी से प्रयास किया जाना चाहिए और इसका अर्थ यह है कि इस मसले पर राष्ट्रीय आम सहमति बनाने के लिए चर्चा और विचार-विमर्श हो, न कि किसी एक धर्म की परंपरा, संस्कृति व प्रथाओं को अन्य धर्मावलंबियों पर थोपा जाय। समान नागरिक संहिता पर आम सहमति बनाने के सभी प्रयासों में जेंडर जस्टिस, यानी समान नागरिक संहिता स्त्रियों के प्रति न्यायपूर्ण हो यह मुख्य सरोकार होना चाहिए।

21वें विधि आयोग ने 2018 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस समय समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है न ही वांछनीय। लेकिन 22वें विधि आयोग ने लोगों तथा धार्मिक संगठनों से राय आमंत्रित करके इस मामले को फिर से हवा दे दी है। यह विचित्र है कि आयोग ने अपनी तरफ से समान नागरिक संहिता का कोई मसविदा पेश नहीं किया है, जिस पर लोग अपनी प्रतिक्रिया दें।

जब अगले आम चुनाव में साल भर से कम समय रह गया हो, और चर्चा के लिए कोई मसविदा भी न हो, तब इस मामले को फिर से गरमाना मोदी सरकार की मंशा पर शक पैदा करता है। फिर भी, आईएमएसडी ने सेकुलर पार्टियों का आह्वान किया है कि वे बीजेपी के जाल में न फँसें।

जैसा कि पहले भी देखने में आया है, ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल बोर्ड, जमायत उलेमा-ए-हिंद और जमात-ए-इस्लामी समेत मुसलिम धार्मिक संगठनों ने समान नागरिक संहिता पर विधि आयोग की पहल का विरोध करने में तनिक भी देर नहीं लगायी, यह कहते हुए कि यह धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने और बाँटने का सरकार का हथकंडा है। इन संगठनों के मुताबिक विधि आयोग का प्रस्ताव संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता व मौलिक अधिकारों के पूरी तरह खिलाफ है।

लेकिन ये उलेमा जान-बूझकर यह नजरअंदाज कर देते हैं कि धार्मिक आजादी से ताल्लुक रखनेवाले संविधान के अनुच्छेद 25 में ऐसा कुछ नहीं है जो राज्य को समाज कल्याण व सुधार के लिए कानून बनाने से रोके।

सभी धार्मिक समुदायों के निजी कानून, जो देश की आजादी के समय हमें मिले, स्त्रियों के प्रति काफी भेदभावपूर्ण थे। तब से, इन दशकों के दौरान, हिन्दुओं और ईसाइयों के पारिवारिक कानूनों में सुधार के लिए कई अधिनियम लाए गए, लेकिन मुसलिम धार्मिक संगठनों ने ऐसे किसी भी बदलाव का जमकर विरोध किया, मुसलिम पर्सनल लॉ में सुधार का एक भी कदम नहीं उठाया, जिसकी अनेक धाराएँ औरतों के प्रति अन्यायपूर्ण तो हैं ही, कुरान की हिदायतों के अनुरूप भी नहीं हैं।

भारत के उलेमा जो भी कहें, मुसलिम पर्सनल लॉ ख़ुदा का दिया हुआ नहीं, बल्कि इंसान का बनाया हुआ है। मजहबी कायदों के पाबंद लाखों मुसलमान आज पश्चिम के लोकतांत्रिक दशों में रहते हैं जहाँ मुसलमानों के लिए अलग से पारिवारिक कानून नहीं है। हाल के दशकों में बहुत-से मुसलिम बहुल देशों ने, जिनमें कुछ इस्लामी देश भी हैं, अपने पारिवारिक कानूनों में सुधार किये हैं। लेकिन यह विडंबना है कि सेकुलर भारत में उलेमा इस्लाम की रक्षा के नाम पर औरत-मर्द रिश्तों की मध्ययुगीन, पितृसत्तात्मक धारणाओं से चिपके हुए हैं। असल में वे अपने निहित स्वार्थों की रक्षा कर रहे हैं और मुसलिम समुदाय पर अपनी संस्थागत पकड़ को बनाए रखना चाहते हैं।

कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने सुधार के लिए कभी कोई पहल नहीं की, यह बेतुकी दलील देते हुए कि सुधार की पहल समुदाय के भीतर से ही होनी चाहिए  मुसलिम समुदाय की आंतरिक शक्ति-संरचना को देखते हुए, हमें फिलहाल यह संभावना नहीं दीखती कि निकट भविष्य में समुदाय के भीतर से सुधार की आवाज उठेगी।

प्रगतिशील मुसलिम स्त्री-पुरुष यह उम्मीद खो चुके हैं कि उनके धार्मिक नेता सुधार की पहल करना तो दूर, कभी उसे भी स्वीकार भी करेंगे। लिहाजा, प्रगतिशील मुसलिम स्त्री-पुरुषों के सामने इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वे धार्मिक रूप से तटस्थ और स्त्रियों के प्रति न्यायपूर्ण समान नागरिक संहिता के लिए अदालतों तथा मौजूदा सरकार की तरफ देखें। कहना न होगा कि समान नागरिक संहिता का अर्थ सामान्य नागरिक संहिता नहीं है। मुसलमानों को यह अधिकार होना ही चाहिए कि वे बहुसंख्यकवादी एजेंडा थोपने का विरोध करें। हम सभी पार्टियों से यह अपील करते हैं कि वे समान नागरिक संहिता के मसले को स्त्रियों के प्रति न्याय के नजरिए से देखें और उलेमाओं के बेतुके व दकियानूसी खयालों को बढ़ावा न दें।

इसी के साथ ही, आईएमएसडी ने सभी नागरिकों पर लागू होने वाले समान नागरिक संहिता के लिए कुछ सुझाव भी दिये हैं। मसलन, तलाक केवल अदालत के जरिए होना चाहिए तथा औरत को भी तलाक की पहल करने का हक हो, बहुविवाह पर रोक लगे और हलाला प्रथा बंद हो, किसी भी युगल को, यहाँ तक कि अकेली स्त्री या अकेले पुरुष को भी बच्चा गोद लेने का अधिकार हो, आदि।

इंडियन मुस्लिम्स फॉर सेकुलर डेमोक्रेसी का उपर्युक्त नजरिया निम्नलिखित पदाधिकारियों ने पेश किया है –

जावेद आनंद (संयोजक)

जे. जावेद (सह-संयोजक)

अरशद आलम (सह-संयोजक)

फिरोज मिठीबोरवाला (सह-संयोजक)

इरफान इंजीनियर (सह-संयोजक)

नसरीन कंट्रैक्टर (सह-संयोजक)

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