— प्रभात कुमार —
आजादी के 75 साल हो गए, देश को अब तक दलित प्रधानमंत्री नहीं मिला, यह दांव विपक्षी पार्टियां चल सकती है। इसकी संभावना कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ गुजरात हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद बढ़ गई है। ऐसी संभावना जताई जा रही है कि भारतीय जनता पार्टी के समान नागरिक संहिता के दांव को काटने के लिए विपक्ष यह चाल चल सत्ता है। संभव है विपक्षी एकता की मुहिम की अगुआई कर रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस पर अपनी मुहर लगाकर अपने विरोधियों को करारा जवाब दे सकते हैं। वह एक तीर से कई निशाने एकसाथ साध सकते हैं। खासकर उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताकर विपक्षी एकता में सेंध लगाने की जारी कोशिशों को करारा जवाब दे सकते हैं। वह बिहार में अपनी कुर्सी महादलित नेता जीतन राम मांझी को सौंपकर एक बार अपने विरोधियों को जवाब दे चुके हैं। अगर ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार पर कुर्सी प्रेम को लेकर लगाए जा रहे सारे आरोप स्वत: खारिज हो जाएंगे।
कोई 10 साल पहले भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ा प्रधानमंत्री का दांव चलकर कमंडल में मंडल को समेटने तथा ब्राह्मण और वैश्य पार्टी होने के लंबे समय से चले रहे आरोप की नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी से काट करने की कोशिश की थी, जो जाहिर है फलदायी रहा।
दस साल बाद जब विपक्ष एकजुट और बेहद तीखे ढंग से सत्तारूढ़ दल पर हमलावर हो रहा है, ऐसे में एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को एक नए मुद्दे की तलाश शुरू हो गई है। इसी क्रम में भाजपा ने समान नागरिक संहिता मुद्दा छेड़ा है। लेकिन इस मुद्दे को लेकर खुद भाजपा पेच में फंसती दीख रही है। इसका आदिवासी समाज में विरोध शुरू हो गया है। मालूम हो कि भारतीय जनता पार्टी ने दलित राष्ट्रपति के बाद आदिवासी राष्ट्रपति बनाकर अपने विरोधियों को चित कर दिया था। लेकिन अब समान नागरिक संहिता का आदिवासी संगठनों की तरफ से हो रहे विरोध ने उसे उलझा दिया है।
कांग्रेस मल्लिकार्जुन खरगे को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर दलित कार्ड चल चुकी है। भीमराव आंबेडकर से लेकर मायावती तक अनेक नेताओं ने देश में दलित राजनीति को नई धार दी, लेकिन राहुल गांधी अपने दांव से न सिर्फ दलित नेताओं के लिए सिरदर्द पैदा कर दिया है बल्कि भारतीय जनता पार्टी भी सकते में है। उसे डर है कि विपक्षी एकता की अगुवाई कर रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अगर दलित प्रधानमंत्री का दांव खेल दिया तो यह 2024 में उसके लिए बहुत महंगा पड़ जाएगा। मुसलमान, दलित और पिछड़ा की गोलबंदी के बाद भाजपा के लिए सत्ता बचा पाना बड़ा कठिन होगा। अगर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल विपक्षी एकता से अलग हो जाएं तो भी भारतीय जनता पार्टी के लिए लड़ाई आसान नहीं रहेगी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, बिहार में लालू और नीतीश की जोड़ी, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार की जोड़ी, तमिलनाडु में एमके स्टालिन, झारखंड में हेमंत सोरेन और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के अलावा वामपंथी पार्टियों का साथ बना रहता है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह गठबंधन महंगा पड़ सकता है।
लिहाजा विपक्षी एकता को लेकर बेंगलुरु में होने वाली बैठक एक मील का पत्थर साबित हो सकती है। मालूम हो कि विपक्षी एकता की पटना बैठक के बाद तमाम नेताओं ने अंतिम निर्णय के लिए गेंद को कांग्रेस के पाले में डाल दिया था। कांग्रेस को ही गठबंधन का नाम और संयोजक तय करना है। चुनाव और सीटों के बंटवारे के लिए रणनीति तय करनी है। लिहाजा देश भर की नजर बेंगलुरु होने वाली विपक्ष की बैठक पर होंगी।
कयास है कि गठबंधन के संयोजन की कमान एकता की पहल करने वाले नीतीश कुमार को सौंपी जाएगी। उनके पास संसदीय राजनीति का लंबा अनुभव तो है ही, भाजपा के दांवपेच को भी वह बखूबी समझते हैं। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ-साथ 1996 में किंग मेकर रह चुके राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव भी नीतीश कुमार के नाम की वकालत कर रहे हैं।
महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल आने के बाद बिहार में भी राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गयी है और जेडीयू में टूट की अटकलें लगायी जा रही हैं लेकिन लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार विचलित नहीं नजर आ रहे हैं। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह विपक्ष के खिलाफ हमलावर हो रहे हैं इसकी प्रतिक्रिया भी आम जनता के बीच दीखने लगी है। उधर, राहुल गांधी संसद के मुकाबले अब सड़क पर ज्यादा असरदार दीख रहे हैं। कुल मिलाकर एक साल पहले और अब की स्थिति में फर्क दीख रहा है। अगर विपक्ष ने देश में पहली बार दलित प्रधानमंत्री का कार्ड चल दिया तो 2024 की लड़ाई भाजपा के लिए बहुत कठिन हो जाएगी।