न्यायपालिका बनाम सरकार : कौन किसे सुधारे?

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— अरविन्द मोहन —

किरण रिजिजू को कानून मंत्री के पद से हटाए जाने को सबने उनकी जरा तीखी बयानबाजी से जोड़कर देखा समझा। वैसे उनका राजनैतिक मोल भी किसी जनाधार के बजाय बयानबाजी और पूर्वोत्तर का चेहरा होने से ज्यादा रहा है। पर उनके विभाग की बदली के पहले यह भी माना जाता था कि उनके माध्यम से भाजपा और खासतौर से प्रधानमंत्री मोदी की बात आ रही है कि न्यायपालिका अपनी सीमा में रहे। इसे एक ‘दबाव’ वाली रणनीति माना जाता था कि कॉलेजियम से हो रही नियुक्ति के मामले में जजों की ज्यादा चलती होने को आगे करके सरकार न्यायपालिका पर दबाव बना रही है। उसी रिजिजू ने पिछले पाँच वर्षों में हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति में सवर्णों की भरमार के सवाल पर संसद में सफाई दी थी कि सरकार अपनी तरफ से हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को कहती रही है कि जजों की नियुक्ति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े समाज के लोगों को समुचित प्रतिनिधित्व दें।

जब एक संसदीय समिति की जांच में हाई कोर्ट के नए नियुक्त 537 जजों मे 424 जजों के सवर्ण (जबकि 20 जजों की जाति का पता नहीं था) होने की बात सामने आई थी तब कानूनमंत्री का बयान सामने आया था। सरकार का पक्ष रखते हुए वे आरक्षण या विशेष अवसर की जगह न्यायपालिका द्वारा जारी रवायत का समर्थन कर रहे थे।

पर इस प्रसंग से भी ज्यादा दोहरापन रिजिजू की विदाई के तत्काल बाद सामने आया जब केंद्र सरकार से विदा होकर एक सांविधानिक संस्था का मुखिया बने हंसराज अहीर यह रिपोर्ट लेकर आए कि पश्चिम बंगाल, बिहार, ओड़िशा और राजस्थान जैसी सरकारों ने पिछड़े वर्ग के लोगों को मण्डल आयोग द्वारा तय कोटे से भी काम आरक्षण दिया है। अब संयोग से ये सारी राज्य सरकारें विपक्षी दलों की हैं सो भाजपा को एक हथियार मिल गया। आम धारणा में भाजपा को तो आरक्षण विरोधी दल माना जाता है जबकि नीतीश-लालू, ममता बनर्जी वगैरह आरक्षण के चैंपियन गिने जाते हैं। जातिवार जनगणना के सवाल पर बैकफुट पर आई भाजपा की तरफ से इसे मजबूत दांव माना गया। जो सवाल अहीर जी की तरफ से उठे उनका जवाब भी आसान न था क्योंकि बंगाल और ओड़िशा ही नहीं राजस्थान के लिए भी तब भी आरक्षण कोई मुद्दा न था जब वीपी सिंह सरकार ने मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया था। तब तो भाजपा सीधे ही इसका
विरोध कर रही थी लेकिन लालू, नीतीश, रामविलास पासवान, शरद यादव वगैरह तो इसी की राजनीति से आसमान चढ़े हैं।

भाजपा का यह मुद्दा ज्यादा चला होगा यह कहना मुश्किल है क्योंकि अगले चुनाव के ठीक पहले उसने समान नागरिक संहिता का सवाल भी उठा दिया है। दूसरी ओर उसके विरोधी, खासकर मंडलवादी समूह स्कूल-कालेज में दाखिले से लेकर नौकरियों में पिछड़ों को तय कोटे से कम हिस्सा मिलने का सवाल आंकड़ों के साथ उठाने लगा। और इस मामले में मोदी शासनकाल के पाँच वर्षों में हाई कोर्ट के जजों की नियुक्तियों में पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों की ही नहीं, महिलाओं की हिस्सेदारी का सवाल भी सरकार और न्यायपालिका, दोनों को सवालों के घेरे में लाता है।

यह हिसाब भी संसदीय स्थायी समिति का है इसलिए इस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। इन नियुक्तियों में जनरल कोटे से 79 फीसदी पद भरे गए थे जबकि 20 जजों की सामाजिक पृष्ठभूमि का पता नहीं चला। 537 में ओबीसी वर्ग के 11 फीसदी लोग ही आ पाए थे। अनुसूचित जातियों का हिस्सा आबादी में चाहे जो हो और उनके लिए आरक्षण का इंतजाम सबसे पहले से हो लेकिन उस वर्ग से भी मात्र 2.6 फीसदी लोग ही आए थे। नए नियुक्त जजों में आदिवासियों का अनुपात तो मात्र 1.3 फीसदी था। समिति का अनुमान था कि इन नियुक्तियों में महिलाओं का हिस्सा भी तीन फीसदी से ज्यादा न था।

उल्लेखनीय है कि जजों की नियुक्ति संविधान की धारा 217 के तहत होती है जिसमें आरक्षण की बात नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 1993 के अपने चर्चित फैसले में साफ कहा था कि नियुक्तियों के समय समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा जाना चाहिए।

तब अदालत ने यह भी कहा था कि हमारे लोकतंत्र का मतलब अल्पतन्त्र के शासन को और मजबूत करते जाना न होकर हमारे देश के सभी लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना है। अब यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि यह बदलाव सरकार से भी ज्यादा न्यायपालिका के ऊपर निर्भर करता है। समिति ने जजों की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद और पति-पत्नीवाद या दूसरे तरफ के पक्षपात पर ध्यान दिया होता तो और भी बदरूप नजर आता।

हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार का सीधा आरोप लगाने वाली प्रशांत भूषण की याचिका जाने कब से सुनवाई के लिए पड़ी है। खुद एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश पर महिला के शोषण का आरोप, उनके द्वारा दिए पक्षपाती फैसले और रिटायरमेंट के तत्काल बाद राज्यसभा में आने के किस्से जगजाहिर हैं। अधिकांश जजों को सेवानिवृत्ति के बाद ऐसे पद देना चलन सा बन गया है। इसलिए फैसलों के स्तर को लेकर भी वैसे ही सवाल उठते हैं जैसे नियुक्त होने वाले वाले जजों की सामाजिक पृष्ठभूमि को लेकर।

पर दोष एकतरफा नहीं है। जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने पिछले दिनों सीधे-सीधे यह कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से दायर कम से कम चालीस फीसदी मामले विचारयोग्य ही नहीं होते। खंडपीठ ने एक उदाहरण देकर बताया कि किसी कर्मचारी को प्रतिमाह 700 रुपए देने के फैसले के खिलाफ मुकदमा करने पर सरकार ने सात लाख खर्च कर दिए।

जाहिर तौर पर अदालत यह नहीं कह सकती थी कि इन चालीस फीसदी फर्जी मामलों में ज्यादातर राजनैतिक होते हैं। ऐसे चर्चित मामलों की फेहरिस्त दी जा सकती है। लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि ऐसा सिर्फ इसी सरकार के समय नहीं हुआ है, भले ही आज यह रोग बढ़ गया हो। उल्लेखनीय है कि एक अन्य फैसले में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने भी कहा था कि सरकार की तरफ से दायर ज्यादातर मामलों में अदालती सुनवाई की नहीं मध्यस्थता की जरूरत है क्योंकि उनको इसी तरह ज्यादा आसानी से निपटाया जा सकता है।

(सप्रेस)


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