— श्रवण गर्ग —
बहस बंद कर देना चाहिए कि लोकसभा की 543 सीटों के लिए अगले साल होने वाले चुनावों में अगर भाजपा को बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो मोदी सत्ता से बाहर हो जाएँगे और विपक्ष की सरकार दिल्ली में काबिज हो जाएगी। जनता को विपक्ष से उसके पीएम चेहरे का नाम-पता पूछना हाल-फिलहाल के लिए बंद कर देना चाहिए। जो विपक्षी दल पटना के बाद बैंगलोर में जमा होकर भाजपा को सत्ता से हटाने की रणनीति पर विचार करने वाले हैं, हो सकता है उन्होंने अपना नया एजेंडा तैयार भी कर लिया हो।
‘मोदी सत्ता नहीं छोड़ेंगे’ के सिलसिले में जनता को दो-चार घटनाक्रमों पर बारीकी से बहस प्रारंभ कर देना चाहिए। पहली तो यह कि महत्त्वाकांक्षी ‘सेंट्रल विस्टा’ परियोजना के दूसरे कामों को रोक सबसे पहले नया संसद भवन तैयार करवाने के पीछे कोई तो जबर्दस्त कारण रहा होगा ! वह क्या था? दूसरे, यह कि देश का ध्यान इतनी चतुराई के साथ पवित्र ‘सेंगोल’ अथवा ‘राजदंड’ विवाद में जोत दिया गया कि किसी ने पूछा ही नहीं कि नए संसद भवन में लोकसभा की सीटों की संख्या 543 से बढ़ाकर 888 और राज्यसभा की 245 (250) से बढ़ाकर 384 करने के पीछे मंतव्य क्या हो सकता है? इन बढ़ी हुई सीटों का 2024 के चुनावों से क्या संबंध माना जाए?
मोदी सरकार अगर सत्ता में वापसी की तैयारियों में जोर-शोर से जुटी है और नए संसद भवन की बढ़ी हुई सीटों से उनका कोई संबंध है तो हाल के कुछ घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाई जा सकती है।
इन घटनाक्रमों में जद(यू) सांसद हरिवंश नारायण सिंह की पिछले दिनों बिहार के मुख्यमंत्री और विपक्षी एकता के सूत्रधार नीतीश कुमार के साथ पटना में हुई डेढ़ घंटे की बातचीत को भी शामिल किया जा सकता है।
कोई तो महत्त्वपूर्ण विषय रहा होगा कि जद(यू) सांसद रहते हुए भाजपा के साथ केंद्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हरिवंश नारायण सिंह ने अरसे के बाद नीतीश कुमार के साथ इतनी लंबी चर्चा करना जरूरी समझा ! हरिवंश नारायण सिंह सबसे ज्यादा चर्चा में तब आए थे जब राज्यसभा की आसंदी पर उनकी उपस्थिति के दौरान विवादास्पद कृषि कानूनों से संबंधित विधेयक को सदन की स्वीकृति प्राप्त हुई थी। उसके बाद देश में जो कुछ घटित हुआ था उसकी स्मृतियाँ आज भी कायम हैं। काले कृषि कानूनों को वापस लेने की माँग को लेकर चले लंबे आंदोलन के दौरान सात सौ से अधिक लोगों को अपना बलिदान देना पड़ा था।
जो गतिविधियां इस समय मौन रूप से चल रही हैं उन पर गौर किया जाए तो विधानसभा चुनावों में लगातार हो रही पराजयों के बीच भाजपा सरकार का अचानक से प्रेम देश की महिलाओं को लोकसभा में आरक्षण प्रदान करने के प्रति जाग उठा है!
क्या अचंभा नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि मोदी सरकार का यह प्रेम तब जगा है जब नए चुनाव होने जा रहे हैं ! पिछले नौ सालों में पत्ता भी नहीं हिला ! कोई तो कारण होगा ! चर्चा है कि साल 2010 से (या उसके भी पहले से) लंबित महिला आरक्षण विधेयक अब कभी भी पेश किया जा सकता है !
गौर करने की बात यह हो सकती है कि चूँकि पुराना विधेयक तब की संसद के अवसान के साथ लैप्स हो चुका है, नया विधेयक संभवतः पुराना वाला नहीं होगा। यानी महिलाओं को आरक्षण दिया जाना तो प्रस्तावित होगा पर न तो वर्तमान की 543 सीटों में से ही एक तिहाई पर और न ही पूर्व में सुझाई गई प्रक्रिया (यानी ‘आरक्षित सीटों का राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में चक्रीय-रोटेशनल-आधार पर आवंटन’) के अनुसार।
गणित समझाया जा रहा है कि 2024 के चुनावों में भाजपा की सीटें अगर कम भी हो जाएँ पर उसका वोट शेयर 2019 वाला ही कायम रहे तब भी महिला आरक्षण सरकार की सत्ता में वापसी करा देगा। कैसे?
बताया जाता है कि 543 सीटों पर तो चुनाव पूर्व की तरह होंगे पर लोकसभा में महिलाओं के लिए 280 नई सीटें जोड़ दी जाएंगी। इन 280 पर चुनाव नहीं होंगे। लोकसभा चुनावों में राजनीतिक दलों को राज्यों में जो भी वोट शेयर प्राप्त होगा उसी के अनुपात में (आनुपातिक प्रतिनिधित्व) उन दलों की महिलाओं को इन 280 सीटों में से स्थान मिल जाएगा। इसके लिए प्रत्येक दल को 280 महिलाओं की सूची प्राथमिकता के क्रम में सौंपनी होगी।
मतलब यह कि राजद और जद(यू) अगर चाहेंगे तो वोट शेयर के आधार पर मिलने वाली अपनी कुछ या सभी सीटें पिछड़ी जाति की महिलाओं को दे सकेंगे। स्मरण दिलाया जा सकता है कि पिछले विधेयक का सबसे मुखर विरोध लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और नीतीश कुमार के जद(यू) ने पिछड़ी जाति की महिलाओं के हितों को मुद्दा बनाकर किया था।
जिस तरह का तर्क भाजपा के हलकों में चर्चा में है उसके अनुसार,1984 के चुनावों में भाजपा को सीटें चाहे दो ही मिली थीं, वोट शेयर के मामले में कांग्रेस के बाद वही थी। कांग्रेस का 404 सीटों के साथ वोट शेयर 49.10 प्रतिशत था जबकि भाजपा का दो सीटों के बावजूद 7.74 प्रतिशत। (भाजपा तब 96 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। इनमें से 84 पर भाजपा ने 1989 में जीत प्राप्त कर ली थी।) तर्क यह है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर महिला आरक्षण होता तो 1984 में भाजपा की सीटें कहीं ज्यादा होतीं।
जो तर्क भाजपा की खुशहाली के संदर्भ में दिया जा रहा है वही कांग्रेस को खुश करने के लिए भी बाँटा जा रहा है। समझाया जा रहा है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को 37.35 प्रतिशत वोट शेयर पर 303 सीटें मिलीं थीं जबकि 19.49 प्रतिशत वोट शेयर प्राप्त कर दूसरे नंबर पर रहने के बावजूद कांग्रेस को सिर्फ 52 ही सीटें प्राप्त हुईं। अगर आनुपातिक प्रतिनिधित्व के साथ महिला आरक्षण होता तो कांग्रेस की सीटें भी बढ़ जातीं और उसे विपक्ष का नेता बनने का हक भी मिल जाता।
उपसंहार में यही कहा जा सकता है कि भाजपा मानकर चलने लगी है कि 2024 में उसकी सीटें काफी कम होने वाली हैं पर उसे यकीन है कि उसका वोट शेयर (कर्नाटक की तरह) पूर्ववत रहेगा। महिला आरक्षण के जरिए लंबे समय के लिए उसकी सरकार में वापसी हो सकती है।
देखना यही रह जाता है कि महिला आरक्षण विधेयक कब, कैसे और किस शक्ल में पेश होता है ! शायद राज्यसभा में ही पहले पेश होगा। असली चुनौती भी वहीं है। कृषि कानून विधेयक का स्मरण कीजिए। नीतीश कुमार, केजरीवाल और केसीआर आदि के चेहरे आँखों के सामने तैराइए। हरिवंश नारायण सिंह की नीतीश कुमार के साथ पटना में क्या चर्चा हुई होगी उसका अनुमान लगाइए। अमित शाह की चेतावनी और जाँच एजेंसियों की क्षमताओं का ध्यान कीजिए और अंत में ‘मन की बात’ सुनिए कि 2024 के चुनावों के बाद सत्ता में वापसी के लिए भाजपा क्या-क्या कर सकती है? क्या विपक्षी पार्टियाँ सरकार के विधेयक का समर्थन कर देंगी? नहीं करेंगी तो देश की राजनीतिक परिस्थितियां क्या बनेंगी? सोचकर यह भी देखिए कि लाडली-बहनों की उपस्थिति से उज्ज्वल 823-सदस्यीय नई लोकसभा कैसी नजर आने वाली है?