वन रक्षा कानून व वनाधिकार कानून को पंगु बनाकर आदिवासियों को जंगल से विस्थापित करेगा शासन!

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18 जुलाई। केन्द्र सरकार 20 जुलाई से शुरू हो रहे संसद सत्र में वन सुरक्षा कानून, 1980 के नियमों में बदलाव का विधेयक पेश करने जा रही है। इस संशोधन विधेयक पर सैकड़ों आदिवासी जनसंगठनों, पर्यावरणविदों सभी ने विरोध दर्ज कराया, फिर भी संसदीय संयुक्त समिति ने उसे संसद के समक्ष रखने की मंजूरी दे दी है। प्रस्तावित विधेयक को संसद की स्थायी समिति के सामने ले जाने का आग्रह पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जी ने किया था, पर उसे अनसुना कर दिया गया। इस विधेयक का नतीजा यह होगा कि आदिवासियों के परंपरागत हक छिन जाएंगे। जंगल से उनकी आजीविका और आवास छीनने के साथ, पूरे देश के जंगल बरबाद होकर, हस्तांतरित होकर नदियों, भूजल, मत्स्यव्यवसाय, वन्यपशु और पहाड़, मिट्टी जैसे हर संसाधन तथा प्रकृति पर आघात भी होगा!

1980 के कानून का उद्देश्य था जंगल बचाना, जो आज बेहद जरूरी है। जलवायु परिवर्तन का, कोरोना जैसे संकट का कारण है वन विनाश, जो ‘विकास’ के नाम पर होता आया है। 2015 से 2020 के बीच 6,68,400 हेक्टेयर जंगल 5 साल में खत्म हुआ है। कागज पर भारत का वनक्षेत्र 7.7 करोड़ हेक्टेयर बताया जाता है जबकि पर्यावरणीय शोधकर्ताओं का कहना है, वनक्षेत्र केवल 5.1 करोड़ हेक्टेयर ही बचा है। मध्यप्रदेश में करीब 30 लाख हेक्टेयर वनक्षेत्र गायब है।

अधिकृत जानकारी से जाहिर हुआ है कि 5 सालों में 88,903 हेक्टेयर वनक्षेत्र गैर-वन कार्य के लिए हस्तांतरित किया गया है। इसमें सबसे ज्यादा महामार्गों (हाइवेज) के लिए और खदानों के लिए हस्तांतरण हुआ है।

इस स्थिति में जरूरत तो यह थी कि वन रक्षा कानून पर सख्ती से अमल किया जाता, इसके बदले उसे कमजोर करते हुए, वनक्षेत्र का गैर-वन कार्य के लिए उपयोग, पूंजीपतियों को जंगलों का हस्तांतरण यह उद्देश्य रखते हुए, कानून के 2003 से 2017 तक पारित हुए नियमों को 2022 के विधेयक द्वारा बदला जा रहा है। इससे लाखों आदिवासी विस्थापित होंगे तथा जंगल का पृथ्वी पर छाया, प्रकृति को बचाने वाला हरा आच्छादन बरबाद होगा। देशभर के जनसंगठन इसका विरोध करते हैं।

नियमों में बदलाव को 28/06/2022 के राजपत्र द्वारा केन्द्रीय शासन ने, आदिवासियों या जनप्रतिनिधीयों से कोई चर्चा किये बिना, जनतांत्रिक प्रक्रिया का पालन किये बिना घोषित किया, जो आज संसद की मान्यता के लिए लंबित है। बदले गए नियमों के कारण कई प्रकार के कानूनों के पालन तथा आदिवासियों के कानूनी अधिकार पर आंच आने वाली है।

वन अधिकार कानून, 2006 को अनदेखा करते हुए, आदिवासी व्यक्ति और समुदाय के अधिकार को नजरअंदाज करके, वनक्षेत्र पूंजीपतियों को हस्तांतरित किया जा सकेगा।

‘पेसा’ कानून (1996) तथा उसके तहत पारित हुए राज्यस्तरीय नियमों को भी नकार कर ‘ग्रामसभा’ के अधिकार को यह बदलाव उल्लंघित करेगा। वनक्षेत्र में भू अधिग्रहण, भू हस्तांतरण करते हुए ग्राम सभा की मंजूरी की शर्त जरूरी नहीं मानी जाएगी। इससे जंगल और उसके साथ जीने वाले समुदायों को उजाड़ा जा सकेगा!

ग्राम सभा के सहभाग सहित किसी भी परियोजना के सामाजिक आघात (प्रभाव) का आकलन, विस्थापितों के पुनर्वास की योजना बनाने में ग्राम सभाओं का सहभाग आदि, 2013 के नये भू अधिग्रहण कानून के प्रावधानों का भी पालन नहीं होगा।

वन रक्षा कानून के 2017 तक के नियमों के अनुसार जिलाधिकारी ने ग्रामसभाओं की सहमति लेना, पुनर्वास का ही नहीं, वन अधिकार का कार्य पूरा करना, और फिर वन विभाग के अधिकारियों को सैद्धांतिक मंजूरी देना, यह वनक्षेत्र के हस्तांतरण की शर्त थी। लेकिन वह अब शर्त हटाकर हस्तांतरण को आसान बनाया गया है और जनतंत्र को कुचला गया है।

केन्द्रीय शासन ने वनक्षेत्र के हस्तातरण को मंजूरी देने के पहले नहीं, वनक्षेत्र की कीमत राशि के भुगतान करने के भी बाद में वननिर्भर आदिवासी/दलित समुदायों का 2006 के कानून का अमल का नया नियम बिल्कुल ही अ-व्यावहारिक और अन्यायपूर्ण है।

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के प्रमुख श्री हर्ष चौहान ने भी इन नियम-2022 पर आपत्ति दर्ज जताई तो उन पर इस्तीफा देने के लिए दबाव डालकर, उनका इस्तीफा मंजूर किया गया है, यह भी गंभीर और सूचक है।

देश के आदिवासियों सहित प्रकृति, नदी, जल, जमीन, जंगल, पहाड़ बचाना चाहने वाले सभी जन आंदोलन नियम-2022 से वन और वनजीवियों को असुरक्षित और विस्थापित करने वाले पूंजीपतियों के पक्षधारी सत्ताधीश की साजिश का विरोध करते हैं। हर राज्य की सरकार से वन अधिकार कानून का सख्त अमल चाहते हैं।

संसद के आने वाले सत्र में अगर ‘जल्दबाजी’ में, या ‘पार्टीबाजी’ के तहत ये वनसुरक्षा के नियम 2022 पारित करके आदिवासियों की तथा देश के सभी नागरिकों की जीवनाधार रही प्राकृतिक संपदा छीनी गयी तो इन नियम-2022 को संसद में सहमति देने वाले राजनीतिक दल तथा सांसद आदिवासी विरोधी घोषित किये जाएंगे।

राहुल यादव, पवन सोलंकी
नर्मदा बचाओ आंदोलन

– मेधा पाटकर
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की ओर से जारी वक्तव्य

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