गांधी के एक अलक्षित आयाम की पड़ताल

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— अरमान —

गांधीजी की सहज और प्राकृतिक जीवन शैली को देखते हुए कलाओं के प्रति उनकी नकारात्मक छवि बनी या बना दी गई है। इसके विपरीत, गांधीजी की कलाओं के प्रति अपनी दृष्टि रही है। जिस प्रकार गांधीजी का जीवन, कर्म, दृष्टि में नैतिकता, पारदर्शिता का आग्रह रहा है, अशोक वाजपेयी के अनुसार, कलाएं उससे भिन्न नहीं हैं।

गांधीजी, जीवन की तरह कला को भी सहज मानते थे।उनका मानना था कि जो व्यक्ति जीवन जीना जानता है वह सच्चा कलाकार है। हाल में आयी अरविंद मोहन की पुस्तक गांधी और कला कला संबंधित गांधी जी की नकारात्मक छवि को तोड़ती है, वहीं कला के विभिन्न आयामों को गांधीजी के नजरिए से पेश करती है। पुस्तक का आमुख प्रसिद्ध कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने लिखा है। सात पृष्ठों की भूमिका में लेखक ने कला के प्रति गांधीजी की नकारात्मक छवि के कारणों की पड़ताल की है। वहीं गांधीजी की कला संबंधी दृष्टि और उसकी विशेषता को स्पष्ट किया गया है। लेखक प्रस्तावना में कहते हैं कि अपनी कला विरोधी छवि के लिए महात्मा गांधी स्वयं जिम्मेदार हैं। बेस्वाद भोजन, कपड़े का सिमटकर लंगोटी पर आना, फटी चप्पल, गृहस्थ से आश्रम जीवन, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संगीत के नाम पर राम धुन जैसे परिवर्तन उनके जीवन में आए। सामान्य जीवन के हिसाब से ये सारे ऐसे परिवर्तन थे जिनसे रस का गायब होना आप कह सकते हैं, इससे उनकी छवि कला विरोधी बनी।

लेखक के अनुसार वहीं तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। गांधीजी के जीवन में रामधुन के संगीत ने सबसे मुश्किल वक्त में उन्हें संभाला जब वे नोआखाली और दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों को शांत करा रहे थे, स्वयं पर भरोसा करने का आत्मविश्वास पैदा किया। मैसूर की मूर्ति को देखकर उनके आंखों में आंसू आ गए। विश्वयुद्ध में खण्डित हुए गिरजाघर की खबरों को सुनकर उनका मन रोता है। गांधीजी के एक बार कह देने से कई कलाकार जीवन भर गांधीजी के काम में लग जाते हैं। स्वयं गांधीजी बहुत सारे कलाकारों के प्रेरणास्रोत रहे। ऐसे में गांधीजी को कला विरोधी कहना उनके साथ नाइंसाफी होगी। पुस्तक में छोटे-छोटे 28 अध्याय हैं। इन अध्यायों में गांधीजी के कला संबंधी आग्रह व दृष्टि को लेखक ने रेखांकित किया है।

पुस्तक का पहला अध्याय है : “कला विरोधी छवि और सच्चाई”; इस अध्याय में लेखक कई दिलचस्प बिंदुओं व प्रसंगों का जिक्र करते हैं जिनके आधार पर गांधीजी की कला विरोधी छवि ध्वस्त होती है और कला के प्रति गांधी की समझ को उभारकर सामने लाती है। इस प्रसंग में लेखक ने राष्ट्रीय संगीत मंडल अहमदाबाद के दूसरे वार्षिक अधिवेशन में दिए गए वक्तव्य के अंश दिये हैं। अपने वक्तव्य में गांधी जी कहते हैं : “मैं उबा देने वाला वैसा मनहूस बुड्ढा आदमी नहीं हूं, सच तो यह है कि मैं बहुत खुशमिजाज आदमी हूं। आप मुझे ’स्कॉच’ कहें तो गलत नहीं होगा। मैं अपने पाई पाई का हिसाब रखता हूं। किसी समय मैं सिलियम जाया करता था। शेक्सपियर के नाटक मुझे प्रिय लगते थे। अप्रतिम एलन टेरी मुझे बहुत पसंद थी, मैं उसे पूजता था। लेकिन यह तब की बात है जब मेलोड्रामा का चलन नहीं हुआ था।” इसी प्रसंग में गांधीजी कहते हैं : हमारा एक पुराना सुभाषित है कि जिसे संगीत प्रिय नहीं वह या तो योगी है या फिर पशु। हम लोग योगी तो नहीं हैं। हां, जिस हद तक हम संगीतशून्य हैं, उस हद तक हम पशु समान माने जाएंगे।”

गांधीजी के साथ बहुत सारे चोटी के कलाकारों का जुड़ाव रहा। इन कलाकारों के मन में भी गांधीजी की कला विरोधी छवि बनी हुई थी लेकिन गांधी से मिलने उनसे संवाद करने के बाद उनके विचार बदल गए, इनमें संगीतकार दिलीप कुमार राय भी थे। इसी तरह का कुछ अनुभव मधुशाला के लेखक हरिवंश राय बच्चन को भी हुआ जब गांधीजी को उन्होंने ‘मधुशाला’ की कुछ पंक्तियाँ सुनायी थीं। पुस्तक के दूसरे अध्याय का शीर्षक है “कर्म में कुशलता ही उत्तम कला है”; इस अध्याय में महात्मा गांधी के सहायक रहे महादेव भाई देसाई के हवाले से प्रसिद्ध कलाकार दिलीप कुमार राय और गांधीजी के बीच हुए संवादों के आधार पर कई दिलचस्प बातें निकलकर सामने आती हैं। इन्हीं संवादों में गांधीजी एक जगह कहते हैं “हां, परंतु मैं तो कहता हूं कि तपस्या इस जीवन में सबसे बड़ी कला है। संगीत के विरुद्ध तो मैं हो ही कैसे सकता हूं? मैं तो भारत के धार्मिक जीवन का विकास संगीत के बिना सोच नहीं सकता। मैं संगीत के साथ ही तमाम कलाओं का शौकीन हूं। कला के नाम से आजकल कई चीजें चल रही हैं, उनके विरुद्ध मैं जरूर हूं, पर इस कला के लिए हृदय चाहिए। इसे समझने के लिए कोई शिक्षा और ज्ञान नहीं हो सकता।”

संवाद की इस प्रक्रिया में गांधी कहते हैं, जीवन सब कलाओं से अधिक है। मैं तो मानता हूं कि जिसने उत्तम जीवन जीना सीख लिया, वही सच्चा कलाकार है। उत्तम जीवन की पृष्ठभूमि के बिना कला किस प्रकार चित्रित की जा सकती है? कला का मूल्य जीवन को उन्नत बनाने में है।जीवन ही कला है। कला जीवन की दासी है और उसकी सेवा करना ही उसका काम है। इस अर्थ में मैं कला को मानता हूं, उसकी कदर करता हूं। कला को विश्व के प्रति जागृत होना चाहिए, कला को जीवन के प्रति जागृत होना चाहिए।” इस अध्याय में कला संबंधी और कई महत्वपूर्ण प्रश्नों की चर्चा दिखाई पड़ती है जिसमें गांधीजी की दृष्टि स्पष्टता के साथ उभर कर सामने आती है।

तीसरे अध्याय का नाम “रचना बनाम जीवन है”; इस पाठ के अंतर्गत लेखक ने कला, शिल्प, सौंदर्य का जीवन के साथ जुड़ाव और गांधीजी की सैद्धांतिक पक्षधरता का विश्लेषण किया है। लेखक का मानना है कि गांधीजी के लिए कला की सार्थकता हिंसा कम कराने, स्वराज का अनुभव अपने अंदर करने और सत्य का अनुभव करने में लगती है। इस प्रकार गांधी कला और समाज के रिश्ते को तय करने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं जिसका व्यापक विश्लेषण “हिंद स्वराज” नामक पुस्तक में श्रम आधारित सभ्यता के विश्लेषण के रूप में उभरकर सामने आता है।

चौथा अध्याय ‘खादी का सौंदर्य चरखे का संगीत’ है। गांधीजी ने चरखा को आजादी की लड़ाई का न केवल प्रतीक बनाया था बल्कि आजादी मिलने के बाद विकेंद्रीकृत, टिकाऊ व आत्मनिर्भर विकास का प्रतीक भी बनाया था। दरअसल, विकास का चरखा माडल एक ऐसी जीवन शैली का प्रस्ताव था जो आदमी और समाज को सहज बनाता। लेखक के अनुसार इससे एक ऐसी संस्कृति विकसित होती जिसमें मानव कृत्रिम बोध का बोझ उतारकर अबोध बन जाता, जिसे गांधी ने प्राप्त किया। इसी कलाकारी को महात्मा समाज को सिखाना चाहते थे।

पांचवें अध्याय का शीर्षक है ’बहुरूप गांधी’; इस अध्याय में लेखक ने गांधी की बहुरूपकता को दिखाने की कोशिश की है। गांधीजी ने अपने जीवन में विभिन्न तरह की कारीगरी की कला कोशिश करके सीखी थी। इनमें घरेलू काम, खाना बनाने से लेकर जूता चप्पल बनाना, शौचालय की सफाई करना, पुरोहितगिरी तक शामिल है। वहीं कुशल संपादक बनकर अपने समय के सभी मुद्दों पर जमकर कलम चलाई। साफगोई से अपनी बातों को रखा। पुस्तक में एक पाठ है ’पेशेवर नहीं सच्चा कलाकार’; इस पाठ में लेखक ने साफगोई से धर्म, इतिहास, संस्कृति, वास्तुकला आदि के बारे में गांधीजी के ज्ञान को प्रखरता से सामने रखा है। गांधीजी के करीबी कलाकारों में नंदलाल बोस का उल्लेख करते हुए उनके हवाले से अरविन्द मोहन लिखते हैं कि “महात्मा जी भले ही हम पेशेवर कलाकारों की तरह के कलाकार ना हों पर मैं उन्हें सच्चे कलाकार के अलावा कुछ और नहीं मान सकता। अपना यह व्यक्तित्व बनाने और दूसरों को इसी तरह तैयार करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। इसके पीछे उनका पूरा चिंतन और उच्च विचार है। उनका मिशन माटी के लोगों से ईश्वर बनाने का है। मुझे पक्का यकीन है कि उनके विचार दुनिया भर के कलाकारों की प्रेरणा बने रहेंगे।”

बापू कलाकारों के भी कलाकार थे; कई प्रसंग ऐसे मिलते हैं जिनमें बड़े बड़े कलाकार भी कला संबंधी अपने ज्ञान और समझ को गांधीजी के नजरिए से परिमार्जित करते नजर आते हैं। पुस्तक के एक अध्याय ’कलाकार को कला की शिक्षा’ में एक दिलचस्प घटनाक्रम का जिक्र है, जिसमें कला मंदिर के छात्र रामचंद्र जिसे काफी प्रतिभाशाली माना जाता था, को गांधी से कुछ सवाल जवाब करने का मौका मिला जिसे महादेव देसाई ने अपने डायरी में दर्ज किया है। रामचंद्र के प्रश्न के जवाब में गांधीजी कहते हैं : “मेरी मुश्किल यही है, यहीं मैं कला की सामान्य कल्पना से अलग हो जाता हूं। वाइल्ड ने बाहर के रूप और आकृति में कला देखी और अनीति को सुंदर करके दिखाया; अनीति भी सुंदर दिखाई दे तो वह कला है? कला की नीति क्या है? नीति के अर्थ में नहीं लेकिन कला के लिए कला मेरी समझ से बाहर है। जो कला हमें आत्म दर्शन न दिखाए वह कला ही नहीं है। और मेरा काम तो आत्म दर्शन के लिए कथित कला की वस्तुओं के बिना चल सकता है। और इसलिए तुम मेरे आसपास बहुत सी कलाकृतियां नहीं देखोगे। फिर भी मेरा दावा है कि मेरे जीवन में कला भरी हुई है। मेरे कमरे में सफेद झक दीवारें हों और सिर पर छत ना हो तो मैं कला का खूब उपयोग कर सकता हूं। ऊपर आकाश में नक्षत्रों और ग्रहों की जो अलौकिक लीला देखने को मिलती है वह कौन सा चित्रकार या कवि मुझे दिखा सकता है? फिर भी यह मत समझना कि मैं कला नाम से समझी जाने वाली सभी चीजों का त्याग करने वाला हूं। केवल जिस कला से आत्मदर्शन में सहायता मिले उसी का मेरे लिए अर्थ है।”

इसी संवाद में, सत्य और सौन्दर्य की बात करते हुए गांधीजी कलाकारों के विपरीत सत्य में सौंदर्य का दर्शन करने की बात करते हैं जो आगे चलकर सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है का दर्शन में सामने आता है। पुस्तक में ’भक्ति से शक्ति’ पाठ के अंतर्गत गांधीजी के आश्रमों और विभिन्न अवसरों पर गाए गए प्रार्थना और भजनों का विस्तार से जिक्र किया गया है। प्रार्थना में सभी धर्म मतों को शामिल किया गया, उनकी संख्या लगातार बढ़ती गई। इस पूरी प्रक्रिया में संगीत के तत्वों को जोड़ने के लिए गांधीजी बड़े से बड़े संगीतकारों की सेवाएं लेने से नहीं चूके। भजन और प्रार्थना की ताकत ही थी जिसकी वजह से गांधीजी विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को और दंगों में सबकुछ गंवा चुके समाज को ताकत दे पाए।

गांधीजी को संगीत में अनुशासन दिखाई देता था, उसके लिए उन्हें लय ताल जीवन को चलाने और अनुशासित करने के लिए बहुत जरूरी चीज लगती थी। यही कारण है कि गांधी स्कूली पाठ्यक्रम में संगीत को शामिल करने की वकालत करते रहे। 1920 में कांग्रेस अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि संगीत की उपेक्षा हमारे लिए बाधा है। संगीत का मतलब लयात्मक व्यवस्था है। यह क्षण भर में शांति पहुंचा सकता है।

लेखक ‘आंदोलन की कला’ नामक पाठ के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते हैं कि गांधीजी के लिए कला और कलाकार केवल सजावट की वस्तु नहीं थे। कला का इस्तेमाल देश समाज के लिए और आंदोलन के लिए कैसे हो यह भी महत्वपूर्ण था। उन्होंने नंदलाल बोस जैसे कलाकारों की मदद से कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन से लेकर हरिपुरा अधिवेशन में स्थानीय संसाधनों की मदद से अपनी कला का जौहर दिखाया जो इसके पीछे गांधीजी का निर्देश और उनकी प्रेरणा काम कर रही थी। ऐसे ही चित्रकार मुकुल डे भी गांधीजी से प्रेरित थे, वे अपना कला दीर्घा बनाना चाहते थे जिसे गांधीजी का आशीर्वाद मिला हुआ था। बापू ने अपने आशीर्वाद में कहा था “आखिर में सब कुछ ठीक हो जाएगा। और जब भारत को आजादी मिल जाएगी तो निश्चित रूप से राष्ट्रीय कला दीर्घा भी बनेगी।” गांधीजी स्थानीय और उपयोगितावादी कला के नजरिए को विशेष महत्व देते थे। उन्हें ग्रामीण और देशी कलाकारों की जीवन शैली विशेष पसंद थी जिसमें वे अपने आसपास के संसाधनों की मदद से कलात्मक और आनंदपूर्ण जीवन जीते थे। ऐसी जीवन व्यवस्था हिंदुस्तान और दुनिया के पुरानी सभ्यता वाले अन्य देशों में भी पाई जाती थी।

1925 में जब गांधीजी खादी यात्रा के सिलसिले में बर्मा (म्यांमार) गए तो वहां के जीवन और उनमें मौजूद कलात्मकता को देखकर मोहित हो गए। लेखक अरविंद मोहन ने ‘उपयोगितावादी कला’ शीर्षक में इसका शानदार वर्णन किया है। गांधीजी कला के नाम पर परोसी जाने वाली दिखावटी कला को, कला मानने के लिए तैयार नहीं थे। रोमा रोलां के साथ संवाद में कला संबंधी उनकी मान्यता उभरकर सामने आ जाती है। वहीं ‘तत्वज्ञान में कला’ वाले अध्याय में लेखक ने सूक्ष्म रूप से गांधी के कला संबंधी नजरिए को सामने लाने की कोशिश की है। यह तत्वज्ञान सवाल जवाब की शक्ल में है जिसमें गांधीजी एक सवाल के जवाब में कहते हैं : “कला की आपकी और मेरी व्याख्या अलग हो सकती है। मेरे विचार से कला जितना अधिक बाह्य पर अवलंबित है, वह उतना ही कम कला है। बाह्य साधन जितने बढ़ेंगे, उतनी अधिक कृत्रिमता आने का खतरा बढ़ेगा। यह एक दृष्टि है। दूसरी दृष्टि है कि सर्वोत्कृष्ट कला व्यक्ति भोग्य नहीं होगी, बल्कि सर्व भोग्य होगी। और सर्व भोग्य कला बाह्य साधनों से अधिकाधिक मुक्त होगी तभी सर्व भोग्य बनेगी।” इस पाठ के अंतर्गत एक अन्य सवाल के जवाब में जिसमें चरखे को मोक्ष का साधन बताया गया था जिसमें सूत काटने की कला को सुंदर कला कहा गया है बापू कहते हैं “मैंने चरखे को सबके लिए मोक्ष का साधन नहीं बताया। मेरे लिए तो वह मोक्ष का साधन है, क्योंकि मेरे लिए स्थूल चरखा नहीं, परंतु उसके आसपास मैंने बड़ी सृष्टि रची है। इस चरखे को मैं गरीबों की जीवन रज्जू के रूप में, रंक के साथ मुझे प्रेम के धागे से बांध कर जोड़ने वाले, एक करने वाले के रूप में चलाता हूं और अपनी मोक्ष साधना का आधार मानता हूं।सबके लिए वह मोक्ष साधना का आधार नहीं होगा : जैसे राम नाम में किसी अंग्रेज को चमत्कार मालूम नहीं होगा, जबकि तुलसीदास के लिए राम नाम की गूंज के सामने सारा जगत मिथ्या था। और स्थूल साधन मोक्ष क्यों नहीं प्राप्त करा सकता? तंबूरे और मंजीरे की धुन में अनेक भक्तों को भगवान से तादात्म्य होता होगा, वैसे ही चरखे की धुन में भगवान के साथ एकतारा होने का मेरा मनोरथ है।”

इस प्रकार गांधी जी को चरखे में जीवन का संगीत नजर आता है। उन्हें हिंदू मुसलमान सबको जोड़ने वाला दिखाई पड़ता है। वे कहते हैं यदि हम अपने करोड़ों घरों में संगीत का प्रवेश चाहते हैं तो हम सब लोगों को खादी पहननी होगी और चरखा चलाना होगा। इस पुस्तक में गांधी के जीवन में नाटकों के प्रभाव का आकलन भी दिखाई पड़ता है, शायद सत्य के प्रति निष्ठा का आग्रह और उसका प्रवेश उनके जीवन में नाटक से ही आया हुआ है, स्वयं बापू ने इसे स्वीकार किया है। इसी प्रकार तस्वीरों की कलाकारी, मूर्तियों का माध्यम, प्रिय साहित्य की पहचान, चल पड़े जिधर दो डग, फिल्मों की अनिवार्य बुराई, फिल्मवालों की कलाकारी, शिक्षा का आधार कला, कला का स्थायी साथी धर्म, प्रकृति सबसे बड़ी कलाकार, कला में नैतिकता का प्रयास, सबसे बड़ी कलाकारी जैसे पाठ इस पुस्तक में हैं। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद न केवल कला संबंधी समझ बनती है बल्कि गांधी जी के जीवन के अन्य आयाम भी हमारे सामने खुलते हैं।

किताब : गांधी और कला
लेखक : अरविन्द मोहन
प्रकाशक सेतु प्रकाशन, सी-21, नोएडा सेक्टर 65, (उ प्र) -201301
setuprakashan@gmail.com

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