— अरविन्द कुमार —
हिंदी की दुनिया में चार-पांच सालों के भीतर ही कोई न कोई एक ऐसी नई कवयित्री सामने उपस्थित हो रही है जो अपनी भाषा और शिल्प की नव्यता से हमें न केवल विस्मित कर रही है बल्कि हिंदी कविता को थोड़ा और अधिक विस्तृत भी कर रही है और उसमें एक नया रंग भर रही है। पिछले डेढ़ दशक में लीना मल्होत्रा, बाबुषा कोहली, अनुराधा सिंह, लवली गोस्वामी, मोनिका कुमार, पूनम अरोड़ा, सपना भट्ट के बाद अब एक नई कवयित्री प्रिया वर्मा हमारे सामने अपना पहला कविता संग्रह लेकर उपस्थित हुई हैं जिन्होंने काव्य प्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। हर नया और अच्छा कवि जब साहित्य की दुनिया में प्रवेश करता है तो वह अपनी नव्यता से हमें प्रभावित करता है क्योंकि कविता नई भाषा नए अंदाज और मिज़ाज़ में संभव होती है। कविता का बासीपन कुछ नया सृजित नहीं करता। प्रिया वर्मा एक ऐसी ही कवयित्री हैं जो हिंदी कविता में कुछ नया रच रही हैं और भाषा में तोड़-फोड़ कर रही हैं।
मध्य प्रदेश के मंडला में पद्मविभूषण से सम्मानित विश्व प्रसिद्ध चित्रकार सय्यद हैदर रज़ा की स्मृति में आयोजित समारोह का एक मुख्य आकर्षण युवा कवयित्री प्रिया वर्मा के पहले कविता संग्रह का लोकार्पण भी था।
किसी अच्छे कवि के प्रथम कविता संग्रह का लोकार्पण एक साहित्यिक घटना होती है। लेकिन बहुत कम आलोचकों और काव्यप्रेमियों का ध्यान इस ओर जाता है क्योंकि आज हिंदी में आए दिन कवियों के प्रथम संग्रह छपते रहते हैं लेकिन प्रिया वर्मा की एक कविता की पंक्ति को उधार लेकर कहा जा सकता है कि ‘अंतिम पंक्ति को खंजर की तरह होना चाहिए’। क्या प्रिया वर्मा अपनी ही बनाई गई कसौटी पर खरा उतरती हैं? क्या उनकी कविताएं पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि कोई खंजर आपके सीने में उतर गया है?
आखिर कवयित्री का खंजर से क्या आशय है और वह खंजर किस तरह चुभता है? क्या खंजर का चुभना कविता का एक प्रभाव है जो आपके भीतर जगह बना ले रहा है या वह आपके तहखाने में नीचे उतर रहा है?
रज़ा फाउंडेशन द्वारा प्रकाश वृत्ति के तहत प्रकाशित संग्रह स्वप्न के बाहर पॉंव में 76 कविताएं हैं। 164 पेज के इस संग्रह में उनकी कविता है ‘अचानक नहीं’ जो जीवन और समाज के कई अर्थातों की बात कहती है। यह अर्थात हिंदी का ‘पर्यायवाची’ या उर्दू का केवल ‘यानी’ नहीं है बल्कि यह जीवन में एक लोकतांत्रिक विकल्प की खोज है। प्रिया अपने समय का अतिक्रमण कर इस अर्थात को खोजती रहती हैं और इस खोज में उसके पांव स्वप्न से बाहर निकल आते हैं।
“समवाय” के काव्यपाठ में प्रिया वर्मा की ये कविता बहुतों के मन में गूंजती रही। आखिर यह अर्थात क्या है। इसकी इतनी आवृत्ति हर बार एक नया अर्थ ग्रहण करती है। पहले पाठ में लगता है कि यह कविता केवल यात्रा करती रहती है, कुछ पाती नहीं कहीं जाती नहीं, पर दूसरे पाठ में इसके अर्थ खुलते हैं पर कविता का अंत ‘अर्थात जीवन अर्थात मृत्यु’ से होता है या ‘अर्थात सब कुछ अचानक नहीं’ तो कविता अपने उत्कर्ष पर पहुंचती।
बहरहाल, प्रिया ने “पर्सनल इज पोलिटिकल” को अपनी कविता में चरितार्थ किया है। ऊपर से लगता है कि उनकी कविताएं केवल निजी हलचलों का दस्तावेज हैं पर गौर से देखने पढ़ने पर पता चलता है कि इन दस्तावेजों में प्रतिरोध का स्वर भी मौजूद है पर वह चस्पाँ नहीं लगता।
उनकी कुछ कविताओं के शीर्षक हैं- नागरिकता के नाम पर, गिरता है तानाशाह, कम्युनिस्ट हो जाओ लड़की, मेरी तरह की औरतों प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखो, ‘अंतिम पंक्ति एक खंजर की तरह होनी चाहिए’ जैसी कविताएं भाषा और शिल्प में नव्यता प्रदान करती हैं।
उनके संग्रह में दिए गए वक्तव्य से भी उनकी कविता को समझने के सूत्र मिल सकते हैं।
“यदि वह कविता है तो उसके पार्श्व में बजते संगीत में कोई कहानी अवश्य मिलेगी। एक मुकम्मल कहानी जो किसी लक्ष्य को वेधने की चाहना नहीं रखती, पर कंधे पर हाथ रखते हुए यह जरूर कहती है कि ‘कोई नहीं है, न हो, मैं हूं।'”
“मेरे अनुभूत जीवन में कविता, समय के प्रत्येक आयाम में एक साथ उपस्थित हो सकती है, हुई भी है। कविता ही परिचय बन रही है।
तो जीवन की प्रसाद कथा ने जितना संगीत मेरे भीतर बचाए रखा, उसमें जितनी करुणा थी, प्रेम था, आशाएं, आकांक्षाएं थीं, उन सब ने समवेत आग्रह में कहा- लिखो। वह यह भी कह सकता था कि नृत्य करो, रंग भरो अथवा कह सकता था कि खिड़की पर कोहनी टिकाए बैठो और देखो अपने देखने भर संसार।”
उनकी कविता ‘सरलता के बीच’ पढ़कर जाना जा सकता है कि वह सरलता और जटिलता के द्वैत को किस रूप में पेश करती है और सरलता के पक्ष में खड़ी होती है। इस तरह वह सरलता के सौंदर्य का बखान करती है –
सरल रेखा की वेदना यह है कि जटिलता से उलझ कर
एक सरल रेखा सरलता से कट जाती है
चाप पर नया कोण बनाती है
एक नया गणित बनता है रेखा से त्रिज्या, परिधि, व्यास लम्ब और चाप निर्मेय, प्रमेय त्रिकोण, चौकोन, सिद्धि
रेखा में ही कहीं गुम होती है
उसकी सरलता राह आगे से मुड़ जाती है।
रेखा संगम में यमुना, भागीरथी और अलकनन्दा-सी गुमनामी कर लेती है
नियति मानकर स्वीकार
ठीक सरल लोग भी इसी तरह रहते हैं इस शहर में
ज्यों बिन्दु रहते हैं
रेखागणित में मौन बनकर।
जिन्हें मिला देने पर एक सरलता तो बन ही सकती थी।
दुःखद है कि हथेली की क़लम हमेशा चाप लगाकर कोण बनाने को बाध्य है।
दो सरल लोगों के बीच ज्यों ही कोई जटिलता आती है
सरलता मर जाती है।”
प्रिया वर्मा की कविताएं बहुस्तरीय हैं। उनकी कविताएं कहती हैं मुझे जरा ठहर कर पढ़ो मेरे साथ नदी में उतरो और मुझे अनावृत करो तभी तुम्हें कविता का अर्थ मिलेगा उसकी रौशनी मिलेगी। प्रिया की प्रेम कविता भी केवल प्रेम कविता नहीं है वह गहरे अर्थों में राजनीतिक कविता भी है।वह चालू राजनीतिक कविताओं से बचती हैं।
उम्मीद है वह अपनी काव्य यात्रा को भाषा शिल्प के भूलभुलैया में भटकने नहीं देंगी क्योंकि कुछ नई कवयित्रियों के साथ यह हादसा हुआ है।
किताब : स्वप्न के बाहर पॉंव (कविता संग्रह)
कवयित्री : प्रिया वर्मा
प्रकाशन बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य : 150 रु.