— अनिल सिन्हा —
उन्नीस सौ बयालीस के आंदोलन में समाज के हर तबके की भागीदारी थी और पूरी सांप्रदायिक एकता थी। भारत छोड़ो का प्रस्ताव पास करने वाली बैठक की अध्यक्षता मौलाना अबुल कलाम आजाद कर रहे थे और यह नारा समाजवादी नेता और बंबई के मेयर यूसुफ मेहरअली ने दिया था। किसी तरह के धार्मिक या सांप्रदायिक प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं किया गया था। यह एक सच्चा लोकतांत्रिक और अहिंसक आंदोलन था। अगर इस भावना को जिंदा रखा जाता तो देश को मजहब के आधार पर बांटने के मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के मंसूबे कामयाब नहीं होते।
‘भारत छोड़ो’ आजादी के आंदोलन के इतिहास में पहली ऐसी घटना है जिसमें आमलोगों ने अपनी आजादी की घोषणा बिना इस इंतजार के कर दी कि ब्रिटिश हुकूमत उसे मानती है या नहीं। आजादी की घोषणा इसके पहले 1857 में हुई थी, लेकिन यह राजे-रजवाड़ों की आजादी की घोषणा थी, आमलोगों की नहीं। ब्रिटिश हुकूमत चौकन्ना थी और वह पहले से ही नेताओं को जेल में डाल रही थी। ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित होते ही उसने कांग्रेस के पूरे नेतृत्व को जेल में डाल दिया। लेकिन यह चौकन्नापन काम नहीं आया। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी पहले से बड़ी लड़ाई की तैयारी कर रहीे थी और अंग्रेज सरकार ने जैसे ही गिरफ्तारियां शुरू कीं, डा राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली समेत कई नेता भूमिगत हो गए। गांधी और अन्य नेताओं की अनुपस्थिति में उन्होंने ही आंदोलन को संचालित किया। अगस्त क्रांति का बिगुल बजते ही जयप्रकाश नारायण और उनके साथी जेल तोड़ कर बाहर भाग निकले और भूमिगत आंदोलन संयोजित करने में जुट गए।
आठ अगस्त को आंदोलन की घोषणा और नौ अगस्त को गांधीजी का करो या मरो का संदेश मिलते ही देश के कोने-कोने में लोगों ने अपने को आजाद करने की कार्रवाई स्वतःस्फूर्त ढंग से शुरू कर दी।
पूरे देश में सरकारी तंत्र पर हमले का सिलसिला शुरू हो गया। रेल की पटरियां उखाड़ने, डाकखानों और कचहरियों पर कब्जा करने का काम होने लगा। कुछ जगहों पर लोगों ने प्रति-सरकार यानी समानांतर सरकार बना ली थी। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले ने तो अपनी आजादी की घोषणा ही कर दी।
भागलपुर से 1977 में संसद का चुनाव जीतने वाले जयप्रकाश नारायण के सहयोगी डा रामजी सिंह बताते हैं, ‘‘मैं आठवीं क्लास में था, जब बिहार के मुंगेर जिले में तारापुर के लोगों ने अपनी सरकार बनाई और फैसला लेने लगे थे। हमारे गांव के आंदोलनकारियों की बैठक काली स्थान में होती थी और हम स्कूली बच्चे रास्ते के मोड़ पर खड़े रहते थे ताकि लोगों को उधर जाने से मना कर सकें। गांव में होने वाले अपराधों का फैसला वहीं होने लगा। लेकिन यह ज्यादा समय नहीं चला। सेना और पुलिस की तरफ से भयंकर दमन-चक्र चला। कई लोग मारे गए।’’ सिंह बिहार के दूसरे इलाकों में आजाद दस्ते के गठन और छापामार युद्ध की कोशिशों के बारे में भी बताते हैं।
बिहार के ही बेगूसराय जिले की एक घटना का जिक्र बुजुर्ग लेखक गीतेश शर्मा करते हैं कि लोगों का जनून देखकर किस तरह थाने के सारे सिपाही भाग गए और बाद में जिला मुख्यालय से उफनती गंगा में तैरती नौकाओं में पुलिस का दस्ता लखमिनिया बाजार के समीप उतरा और उसने उस छोटे से बाजार में मार्च किया। लेकिन लोगों का जोश ऐसा था कि एक स्थानीय युवक के नेतृत्व में लोग विरोध में उतर आए, इस प्रतिरोध में बड़ी संख्या दलितों की थी। नेता तो बच निकला। लेकिन पुलिस ने उसके घर पर छापा मारा और उसे पूरी तरह लूट लिया। आंदोलन के दौरान रेलवे टिकट घर को लूट लिया गया था।
देश के कई भागोें में यही कहानी दोहराई गई। लोगों के निशाने पर ब्रिटिश नियंत्रण के औजार यानी रेल, डाक और थाने थे। उत्तर प्रदेश के बलिया के अलावा बंगाल के मेदिनीपुर, बिहार के तारापुर और महाराष्ट्र के सतारा नामक जगहों पर समानांतर सरकारें बन गईं और उनकी काफी चर्चा हुई क्योंकि उन्होंने एक पूरी शासन प्रणाली ही बना ली थी।
सतारा को छोड़कर बाकी जगह की सरकारें एक-दो सप्ताह तक ही चलीं। सतारा की सरकार 1943 से 1946 तक चली और राष्ट्रीय स्तर पर बनी अंतरिम सरकार के आने के बाद ही खत्म हुई। नाना पाटिल के नेतृत्व में बनी यह सरकार महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सिद्धांतों पर आधारित और समाजवादी विचारों से प्रेरित थी। यह ब्रिटिश हुकूमत के समानांतर चलती रही क्योंकि इसे व्यापक जन-समर्थन हासिल था।
बलिया का विद्रोह तो आजादी के संग्राम में एक स्वर्णिम अध्याय है। वहां 19 अगस्त, 1942 को जनता की एक भीड़ ने आंदोलन के नेता चित्तू पांडेय और उनके साथ के दर्जनों लोगों को जेल से आजाद करा लिया और सरकारी तंत्र पर कब्जा कर लिया। उन्होंने स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र की घोषणा कर दी। इस विद्रोह की खूबसूरती यह थी कि आंदोलनकारियों ने एक भी आदमी की हत्या नहीं की। सरकारी मुलाजिमों और सिपाहियों को सिर्फ शहर की चौहद्दी से बाहर कर दिया गया। लेकिन यह आजादी एक सप्ताह भी नहीं चल पायी। एक अंग्रेेज अफसर के नेतृत्व में आई फौज तथा पुलिस ने शहर पर कब्जा कर लिया और बेइंतहा जुल्म ढाए। कई लोगोें को फांसी पर चढ़ा दिया गया। उनके कहर से औरतेें भी नहीं बच सकीं। कुछ को पीट-पीट कर मारा गया और कई की जानें जेल के अत्याचार ने ले ली।
देश को स्वराज दिलाने का लक्ष्य 31 दिसंबर 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ही तय हो गया था, लेकिन उसे पाने की सीधी लड़ाई 1942 में ही की गई। भारत छोड़ो के प्रस्ताव में आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की तस्वीर भी पेश की गई। इस व्यवस्था में चुनिंदा अधिकारों को छोड़कर सारी शक्तियां राज्यों को सौंपने की बात कही गई थी। इसमें हिंदू-मुस्लिम एकता की अपील की गई थी। गांधीजी ने अंग्रेजों से कहा, ‘‘भगवान के भरोसे या वक्त पड़ा तो अराजकता के हाथों देश को सौंपकर ब्रिटिशों को यहां से चला जाना चाहिए।’’
‘भारत छोड़ो’ का ऐलान करते समय गांधीजी के दृढ़निश्चय के बारे में मधु लिमये ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘‘उनके तेज से, उनके प्रखर निश्चय से हम रोमांचित हो गए। गांधीजी को लेकर मेरे मन में जो पूर्वाग्रह या आपत्तियां थीं, वे सभी काफूर हो गईं।’’
अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति की इस बैठक में भाग लेने वाले कम्युनिस्ट नेताओं ने फासिज्म से लड़ने की दलील दी और भारत छोड़ो के प्रस्ताव का विरोध किया।
आर-पार के फैसले पर पहुॅंचने की कहानी
कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन के फैसले पर पहुंचने की कहानी दिलचस्प है। सितंबर 1939 में विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो देश के नेताओं के सामने सवाल था कि वे किसका समर्थन करें- अंग्रेजों या उनके दुश्मनों- जर्मनी, जापान और इटली का। गांधीजी को छोड़कर बाकी सभी नेता मित्र राष्ट्रों- इंग्लैंड, फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों- का साथ देने के पक्ष में थे। लेकिन अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस से बिना बातचीत किए युद्ध में भारत के शामिल होने की घोषणा कर दी। इसके विरोध में प्रांतों में बनी कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस का कहना था कि उसके हाथों में शासन सौंपने के साथ-साथ युद्ध समाप्त होने के बाद देश को आजाद करने का आश्वासन मिलना चाहिए। ब्रिटेन का प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ऐसा कुछ नहीं करना चाहता था और वह गांधीजी का घोर विरोधी था। गांधीजी अहिंसा के कारण युद्ध से अलग रहने के पक्ष में थे। अंत में कांग्रेस ने भारत को युद्ध में शामिल करने के विरोध का निश्चय किया। गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का कार्यक्रम दिया और देश में युद्ध विरोध का आंदोलन शुरू हो गया।
इधर कांग्रेस आजादी की लड़ाई को अंजाम पर पहुंचाना चाहती थी, उधर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी हालात को समझकर एक बड़े संघर्ष की तैयारी में जुट गई थी। उसका मानना था कि आजादी के लिए निर्णायक संघर्ष का समय आ गया है। दूसरी ओर, देश की हिंदुत्ववादी पार्टी हिंदू महासभा और मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का दावा कर रही मुस्लिम लीग अंग्रेज सरकार के साथ खड़ी थीं।
हिंदू महासभा ने 1937 में विनायक दामोदर सावरकर को अपना अध्यक्ष चुन लिया था और वह सरकार के साथ पूर्ण सहयोग के पक्ष में थे। युद्ध छिड़ने पर वह वाइसराय की कौंसिल में हिंदू महासभा को प्रतिनिधित्व दिलाने की कोशिश में भिड़ गए।
मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में हिंदू महासभा ने कांग्रेस और आजादी के आंदोलन के साथ जो रिश्ता जोड़ा था उसे सावरकर ने पूरी तरह खत्म कर दिया क्योंकि वह सीधे-सीधे सरकार के साथ रहना चाहते थे। उन्हें बड़े व्यापारियों और जमींदारों का समर्थन मिला हुआ था। ऐसे लोगों का फायदा सरकार के साथ रहने में ही था। वे हिंदू हितों के नाम पर सरकार के साथ मिले हुए थे।
सावरकर ने अंग्रेज सरकार को युद्ध में बढ़-चढ़कर सहयोग दिया। सैनिकों की भर्ती में भरपूर मदद दी। यही हाल मुस्लिम लीग का था। उसने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कर लिया था और जिन्ना ने साफ कर दिया था वह किसी भी तरह का सहयोग आजादी के आंदोलन को नहीं देंगे क्योंकि उनकी नजर में यह हिंदुओं का आंदोलन है। आरएसएस भी सरकार के खिलाफ आंदोलन नहीं करना चाहता था। वाइसराय लिनलिथगो ने यह घोषणा भी कर दी थी कि भारत के बारेे मेें कोई भी फैसला बगैर मुसलमानों की सहमति के नहीं लिया जाएगा। इस तरह आपस में दुश्मनी रखने वाले हिंदुओं के हितरक्षक और मुसलमानों के हितरक्षक अंग्रेजों की बगल में खड़े थे।
कम्युनिस्टों को संघर्ष से परहेज नहीं था, लेकिन उनकी नीति कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से तय होती थी जो सोवियत रूस के नेता स्टालिन के इशारे पर चलती थी। जर्मनी ने रूस के साथ समझौता कर लिया था, इसलिए कम्युनिस्टों ने युद्ध में अंग्रेज सरकार को सहयोग नहीं देने की नीति अपना ली थी। लेकिन जब जर्मनी ने सोवियत यूनियन पर हमला कर दिया तो उनकी नीति बदल गई; उन्होंने जर्मनी, जापान तथा इटली के खिलाफ युद्ध को ‘जन-युद्ध’ घोषित कर दिया और अंग्रेजोें के साथ हो गए।
ऐसे में, गांधीजी पूरी तरह अकेले पड़ गए थे। नेहरू और मौलाना आजाद जैसे नेता भी जर्मनी के खिलाफ युद्ध में सहयोग करना चाहते थे क्योंकि उन्हें फासीवाद का खतरा बड़ा खतरा लगता था। राजगोपालाचारी तो सरकार से किसी भी तरह का समझौता करने के पक्ष में थे। उन्हें तो ब्रिटिशों के मातहत वाली स्थिति यानी आधी स्वतंत्रता भी मंजूर थी और उनकी योजना को कांग्रेस कार्यसमिति ने मंजूरी भी दे दी थी। युद्ध में तटस्थ रहने की गांधीजी की नीति को सबसे जबर्दस्त समर्थन डा राममनोहर लोहिया जैसे नेताओं की ओर से मिल रहा था। समाजवादी युद्ध में किसी का पक्ष नहीं लेने और आजादी के लिए निर्णायक संघर्ष करने के पक्ष में थे।
उधर सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज बनाकर जर्मनी तथा जापान के सहयोग से भारत को मुक्त कराने का युद्ध छेड़ दिया था। हिंदुत्ववादी लोग आजादी की इन सारी पुकारों को अनसुना कर सरकार को सहयोग कर रहे थे और क्या विडम्बना है कि आज वे आजादी के आंदोलन से खुद को जोड़ना चाहते हैं!
जापान भारत के दरवाजे पर आ चुका था। उसने बर्मा और अंडमान पर कब्जा कर लिया था। विशाखापट्टनम पर हवाई हमले के बाद तटवर्ती शहरों से लोगों का पलायन होने लगा था। लोगों को यह विश्वास हो गया था कि अंग्रेज उनकी रक्षा में असमर्थ हैं। देश में असुरक्षा की भावना फैल गई थी। बीच में, अमेरिकी दबाव में चर्चिल ने स्टैफर्ड क्रिप्स मिशन को भारत भेजा। उसका इरादा कुछ देने का नहीं था, सिर्फ बातचीत का नाटक करने का था। क्रिप्स ने जो प्रस्ताव दिया उसमें कोई वास्तविक अधिकार तो नहीं मिलना था, देश के कई टुकड़े होने का रास्ता बनने का खतरा भी था। उसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया और युद्ध में सहयोग का नेहरू का उत्साह भी ठंढा हो गया था क्योंकि अंग्रेज रक्षा समेत देश के शासन का दायित्व भारतीयों के हाथ में सौंपना नहीं चाहते थे। रक्षा विभाग किसी भारतीय के हाथ में देना उन्हें मंजूर नहीं था। इन्हीं हालात ने गांधीजी को अगस्त आंदोलन का ऐलान करने को मजबूर किया।
क्रांति का बिगुल
भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा ने लोगों के बीच एक नया उत्साह पैदा कर दिया। लेकिन ‘करो या मरो’ की घोषणा के आते ही दो महत्त्वपूर्ण बयान आ गए। एक सावरकर और दूसरा मोहम्मद अली जिन्ना का। सावरकर ने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को आंदोलन से दूर रहने के लिए कहा और जिन्ना ने आंदोलन को मुसलमानों की सुरक्षा के लिए खतरा बताया। उन्होंने आंदोलनकारियों को मुसलमानों से दूर रहने को कहा।
सन् बयालीस में समाजवादी नेताओं में आचार्य नरेंद्रदेव, यूसुफ मेहरअली और अशोक मेहता को नौ अगस्त के दिन ही पकड़ लिया गया। भूमिगत आंदेालन के संचालन के लिए बनी कांग्रेस की केंद्रीय टीम में सुचेता कृपलानी के साथ अच्युत पटवर्धन, डा राममनोहर लोहिया को महत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई। एसएम जोशी को महाराष्ट्र का भार सौंपा गया।
अच्युत पटवर्धन और अरुणा आसफ अली सन् बयालीस के दो ऐसे नेता थे जिन्हें पुलिस कभी पकड़ नहीं पाई। डा लोहिया नेपाल चले गए। हजारीबाग सेंट्रल जेल से भागने के बाद जेपी ने देश भर का दौरा किया और वह भी नेपाल चले आए। दोनों ने देश को आजादी के संघर्ष में नेतृत्व के लिए आजाद दस्ते बनाने का काम शुरू किया। डा लोहिया ने आंदोलन के प्रचार के लिए रेडियो केंद्र भी स्थापित किया। एक बार नेपाल की पुलिस ने दोनों को पकड़कर अंग्रेजों के हवाले करना चाहा, लेकिन आजाद दस्ते ने उन्हें छुड़ा लिया और वे घायल अवस्था में भाग निकले।
अंत में, वे पकड़े गए और उन्हें लाहौर के किले में बंद कर दिया गया। वहां उन्हें और उनके साथियों, रामनंदन मिश्र आदि को कठोर यातनाएं दी गईं। सन् 1944 में ज्यादातर लोगों को छोड़ दिया गया। लेकिन लाहौर किले के इन कैदियों को तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक आजादी की हलचल शुरू नहीं हो गई। कैबिनेट मिशन के भारत आने के बाद 11 अप्रैल सन् छियालीस को आगरा जेल से उन्हें रिहा किया गया तो अपार भीड़ उनके स्वागत के लिए खड़ी थी। दोनों जहां-जहां गए उनके स्वागत में बड़ी भीड़ खड़ी होती थी। लेकिन गांधीजी और कांग्रेस ने सन् बयालीस के उस आंदोलन को अपना आंदोलन मानने से मना कर दिया जिसके बारे में वायसराय लिनलिथगो ने कहा था कि भारत की सरकार 1857 के बाद के सबसे बड़े विद्रोह का सामना कर रही है।
सच माना जाए तो गांधीजी ने ईमानदारी दिखलाई थी। उन्होंने यह उभार पैदा तो किया था, लेकिन यह गांधीवाद के परिचित ढांचे से बाहर निकल गया था। यह अहिंसा की उनकी परिभाषा को लांघ गया था। लेकिन इसने अहिंसक जन-प्रतिरोध का नया आयाम दिया जिसमें सरकार के भौतिक तंत्र को तोड़ने की इजाजत तो थी, लेकिन किसी की जान लेेने की नहीं।
डा लोहिया तथा जेपी ने आजाद दस्तों के प्रशिक्षण के लिए जो पुस्तिकाएं लिखी हैं, उनमें इस अहिंसक लेकिन सक्रिय प्रतिरोध की रूपरेखा मिलती है। इसमें जुलूस पर गोली चलाने वाले पुलिस की बंदूक छीनने की इजाजत तो है, लेकिन खुद गोली चलाने की नहीं। बेशक यह गांधी जी के निष्क्रिय प्रतिरोध से अलग था। लेकिन सन् 1942 की अगस्त क्रांति को नहीं स्वीकारने से देश को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, इस ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है।
यह देश की आजादी का पहला संघर्ष था जिसमें समाज के हर तबके की भागीदारी थी और पूरी सांप्रदायिक एकता थी। भारत छोड़ो का प्रस्ताव पास करने वाली बैठक की अध्यक्षता मौलाना अबुल कलाम आजाद कर रहे थे और यह नारा समाजवादी नेता और बंबई के मेयर यूसुफ मेहरअली ने दिया था। किसी तरह के धार्मिक या सांप्रदायिक प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं किया गया था। यह एक सच्चा लोकतांत्रिक और अहिंसक आंदोलन था। अगर इस भावना को जिंदा रखा जाता तो देश को मजहब के आधार पर बांटने के मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के मंसूबे कामयाब नहीं होते। लेकिन कांग्रेस के अस्वीकार कर देने के कारण इस आंदोलन को बीती हुई घटना मान लिया गया और देश के राजनीतिक जीवन को इससे जो प्रेरणा मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पाई।