— शिवानंद तिवारी —
वह दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री थे। कहते हैं कि बगैर उनकी जानकारी के दिल्ली में पत्ता भी नहीं हिलता था। चौधरी साहब जवाहरलाल नेहरू के दुलरुआ थे। उन पर मेरा ध्यान तब गया था जब मैंने डॉ लोहिया के किसी भाषण में उनका नाम पढ़ा था। चौधरी साहब का नाम लोहिया जी ने किसी अच्छे संदर्भ में नहीं लिया था। स्वयं चौधरी साहब ने मुझे बताया था कि लोहिया ने उनको नेहरू का ‘अलशेसियन डॉग’ कहा था। उन्होंने जिस अंदाज में यह बात मुझे बताई थी उससे लगा कि लोहिया जी के उस संबोधन का उन्होंने बहुत बुरा नहीं माना था। संभव है कि लोहिया जी के इस संबोधन में जवाहरलाल नेहरू से उनके नजदीकीपन की ही गवाही मिलती थी।
जब इंदिरा जी ताकतवर हुईं, तब मैंने एक खबर पढ़ी कि चौधरी साहब की इंदिरा जी से नहीं बनी और राजनीति से उन्होंने संन्यास ले लिया है। उनके इस फैसले से उनके प्रति मेरा भाव थोड़ा बदला। लगा कि इस आदमी में थोड़ी बहुत ख़ुद्दारी है।
बिहार में जब जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में आन्दोलन की शुरुआत हुई तो उस दरम्यान किसी अखबार में चौधरी साहब का प्रेस कॉन्फ्रेंस पढ़ा। उन्होंने घोषणा की थी कि बिहार आंदोलन का वे समर्थन करते हैं और बिहार जाएंगे। वे बिहार आए। कुछ दिन कंकड़बाग स्थित दयानंद सहाय के घर ठहरे। दिल्ली से फियेट गाड़ी में आए थे। गाड़ी की छत पर सामान रखने का कैरियर लगाथा। उस पर होलडॉल में उनका ओढ़ना बिछौना था। बड़ी सी अटैची भी थी। गाड़ी की डिक्की में चूल्हा चौका का सारा सरंजाम था।
शुरुआती दौर में उनके प्रति मेरे अंदर बेरुखी का भाव बना हुआ था। लोहिया ने जिस आदमी की आलोचना की है वह जरूर गड़बड़ आदमी होगा! संयोग ऐसा हुआ कि इमरजेंसी में गिरफ्तार होकर चौधरी साहब फुलवारीशरीफ जेल में बंद थे। उसके कुछ दिनों बाद मेरी भी गिरफ्तारी हुई। संयोग देखिए मैं भी फुलवारीशरीफ जेल पहुँचा दिया गया। दूसरा संयोग यह हुआ कि जेल के उसी कमरे में मुझे भी रख दिया गया जिसमें चौधरी साहब पहले से थे।
जेल का वह वीआइपी कमरा था। चौधरी साहब के अलावा उस कमरे में जनसंघ के उस समय के नेता रुद्रप्रताप सारंगी और मनेर का शैलेश नाम का एक नौजवान था। चौधरी साहब से मेरा असली परिचय उसी दरम्यान हुआ।
बहुत शानदार आदमी थे चौधरी साहब। अपना खाना खुद बनाते थे। राशन भी जेल का नहीं लेते थे। जेल में थे। लेकिन अपने ड्राइवर को उन्होंने हटाया नहीं था। सप्ताह में दो दिन ड्राइवर जेल गेट पर आता था। पहले जिन सामानों की लिस्ट मिली थी उनको लेकर आता था। उसके आने की खबर मिलने पर चौधरी साहब जेल गेट पर जाते थे। बगैर औपचारिक बुलावा के वे कभी जेल गेट पर नहीं गये। ड्राइवर जो सामान लाता था उसका हिसाब लेते थे। हिसाब के पक्के थे। बहुत फख्र के साथ कहते थे, उनके पास दस साल पहले जो खर्च किया है उसके भी पाई पाई का हिसाब है।
चौधरी साहब का ‘टी क्लब’ चलता था। उसकी शुरुआत छह बजे सुबह हो जाती थी। उस समय जेल में कई मीसा बंदी थे। कुछ डीआईआर में भी बंद थे। या आंदोलन से ही जुड़े मामलों में जेल में थे। मीसाबंदियों का राशन पानी सबकुछ निर्धारित था। अन्य लोग भी निर्धारित कच्चा राशन ले लेते थे। अपने-अपने हिसाब से दो-चार लोग मिलकर मेस चलाते थे। खाना बनाने और चूल्हा-चौका के लिए आम कैदियों में से आदमी मिल जाते थे। उनको ‘पनीहा’ कहा जाता था। जो पनीहा होते थे उनका भी खाना-पीना उसी मेस में हो जाता था। हमारे यहाँ सिस्टम कैसे काम करता है पनीहा का मामला एक उदाहरण है। कभी-कभी ऐसा होता था कि पनीहा की कमी पड़ जाती थी। वैसी हालत में जेल अधिकारी पटना जंकशन के रेल मैजिस्ट्रेट को फोन करता था। रेल मैजिस्ट्रेट जेल में पनीहा संकट के समाधान के लिए रेल में टिकट चेकिंग करा देता था। शाम तक कमर में रस्सा लगा, बिना टिकट में सज़ायाफ्ता, एक झुंड चला आता था। और इस प्रकार पनीहा संकट का समाधान हो जाता था।
रात में चूल्हा बुझता नहीं था। काम से निवृत्त हो जाने के बाद चूल्हे की आग को राख से ढँक दिया जाता था। इससे कोयला कम बर्बाद होता था। इसका दूसरा लाभ यह भी था कि ऊपर से राख को झाड़ दीजिए और आग जग जाती थी। चौधरी साहब सुबह पौने छह बजे जगते थे। बगल के वार्ड में निवृत्त होने के लिए जाते हुए चूल्हे की राख को झाड़ देते थे। पानी भरी केतली को उस पर रख देते थे। लौटने के समय तक केतली का पानी खौलता मिलता था और इस प्रकार ठीक छह बजे चौधरी साहब का टी क्लब शुरू हो जाता था।
बीस-बाईस लोग उस टी क्लब के स्थायी सदस्य थे। ग्रीन लेवेल चाय बनती थी। चाय में कौन कितना चीनी लेता है, कौन फीकी पीता है यह वे जान गये थे। चाय की प्याली खुद धोते थे। कपड़े से प्याली को ड्राई कर लेने के बाद दूसरी चाय पेश होती थी। यह सिलसिला आठ बजे तक चलता था। आठ बजे सुबह का रेडियो समाचार सुनने के बाद विसर्जन होता था। पकड़े जाने के बाद घर से मैंने तीन चार किताबें ले ली थीं। नाम तो याद नहीं है लेकिन उनमें वेबस्टर की एक डिक्शनरी भी थी। चौधरी साहब की किताबों में एक एचजी वेल्स की आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री थी। एक दिन चौधरी साहब ने मुझसे कहा कि शिवानंद जी यह किताब समाजवादियों के लिए टेक्स्ट बुक की तरह है। इस किताब को आप पढ़ जाइए। चौधरी साहब के कहने पर डिक्शनरी लेकर मैंने आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री पढ़नी शुरू की। उस किताब का पहला चैप्टर विज्ञान पढ़ने जैसा था। उसकी एक एक लाइन के अर्थ को समझने के लिए मुझे एक से अधिक बार डिक्शनरी देखनी पड़ती थी। तीन चार दिन के बाद मेरी हिम्मत पस्त हो गई।
बहुत संकोच के साथ किताब लौटाते हुए मैंने चौधरी साहब से कहा कि- मुझे माफ कीजिए, एचजी वेल्स साहब मेरे बस के नहीं हैं। उसके हफ्ता-दस दिन बाद चौधरी साहब ने मुझसे कहा कि शिवानंद जी, इस किताब को आप अगर जेल में नहीं पढ़िएगा तो बाहर तो नहीं ही पढ़ सकिएगा। चौधरी साहब के नैतिक दबाव में मैंने पुनः एचजी वेल्स को उठाया। ठंड का समय था। चटाई लेकर धूप में डिक्शनरी लेकर पढ़ना शुरू किया। बार-बार डिक्शनरी देखनी पड़ रही थी। किताब से ज्यादा समय डिक्शनरी देखने में लग रहा था। लगभग छह महीना लगा किताब समाप्त करने में। इसके बावजूद उसको ठीक से समझा हो, इसका दावा मैं नहीं कर सकता। लेकिन एक बोध जरूर बना। इसके लिए मैं चौधरी साहब का आभार मानता हूँ।
इंदिरा जी ने अचानक लोकसभा चुनाव का एलान कर दिया। नेताओं के जेल से रिहा होने का सिलसिला शुरू हुआ। चौधरी साहब हमसे पहले छूटे। जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में वह 77 का चुनाव भी लड़े और सांसद बने। जेल से छूटने के बाद भी चौधरी साहब से मेरा रिश्ता बना रहा। पहली दफा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर मुझे वही लेकर गए थे। उन्होंने बताया था कि वे इस सेंटर के फाउंडर मेंबर हैं। वहाँ बड़े-बड़े बौद्धिक तथा रसूखदार लोग जुटते थे। एक जेडी सेठी थे। उनको मैंने पढ़ा था। गांधीजी पर लिखते थे। मैंने उनका लिखा ‘सेमिनार’ में या किसी और पत्रिका में पढ़ा था। चौधरी साहब को जब मैंने बताया कि में सेठी जी का प्रशंसक हूँ लेकिन पहली मर्तबा उनको सशरीर देख रहा हूँ तो उन्होंने मेरा परिचय उनसे करवाया था। चौधरी साहब बाद में चरण सिंह की सरकार में कृषि मंत्री बनाये गये थे। 1993 में उनका इंतकाल हुआ।
बहुत शानदार इंसान थे। उनमें कोई छोटापना मैंने नहीं देखा। आभिजात्य व्यक्तित्व था उनका। उनके साथ फुलवारीशरीफ जेल में बिताए गए दिन खूबसूरत और शानदार थे। उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ।