— रामजी प्रसाद ‘भैरव’ —
आँख बड़ी संवेदनशील होती है। किसी खतरे की आहट पर पलकें स्वतः झपक जाती हैं। वह भी अपनी सुरक्षा में, यह छोटी बात नहीं है। बड़ी बात है, महत्त्वपूर्ण बात है। आप ही देखिए, आँख दुनिया को देखती है, पर खुद को नहीं देखती। जीवन पर्यन्त नहीं देखती। मृत्यु पर आँख बंद हो जाती है। हमेशा के लिए, उसे फिर कुछ नहीं देखना पड़ता। कभी नहीं देखना पड़ता। यह जीवन का कितना बड़ा सत्य है। कितना बड़ा सार है।
आँख की सुंदरता पर लोगों ने बड़ी बड़ी बातें कहीं हैं। बड़ी चित्ताकर्षक होती हैं ये आँखें, बरबस मन को बांध लेती हैं। उसके साथ अठखेलियाँ करती हैं। शरारतें करती हैं। बदमाशियां करती हैं। आँखें बड़ी चंचल होती हैं। अब आप ही बताइए, सुंदर आँख को देखकर कौन मोहित नहीं होता है। विद्वानों ने आँख को लेकर जाने कितने मुहावरे गढ़ रखे हैं। किसी की आँख झील सी गहरी होती है। किसी की आँख मछली सी तो किसी आँख हिरनी सी चंचल। किसी किसी की आँख की मारक क्षमता इतनी बेधक होती है कि चतुर से चतुर व्यक्ति भी नारी के नयन शर से बच नहीं सकता। कविवर बिहारी ने अपने एक दोहे में नारी के नयन की बड़ी प्रशंसा की है। घूंघट डाले एक नवयौवना जब अपनी आंख घूंघट के ओट से उठाती है तो वह कह उठते हैं “जुग उछरत जल मीन।” वाह भाई वाह क्या खूब कहा। जैसे दो मछलियां एकसाथ जल में उछल उठती हैं।
अजी छोड़िए, मैं भी कहाँ बहक रहा हूँ। नारी के नयन शरों की चर्चा में सुबह हो जाएगी पर बात खत्म नहीं होगी।
यह तो आँख ही है जो किसी दूसरे के दुख को अपना समझ कर छलक उठती है। अब आप ही बताइए, आँख से भी बढ़कर कोई सगा हो सकता है भला, नहीं न। कैसे होगा। सगा होने के लिए पिघलकर बहना पड़ता है। आंसू बनकर। द्रव बनकर, पानी बनकर। जो ठोस है उसका तरल में परिवर्तित हो जाना केवल वैज्ञानिक घटना नहीं है। बल्कि मानवीय धरातल पर, संवेदनशीलता के उच्चतर सोपान पर पहुंच जाना है। बिना वहाँ पहुँचे ऐसा कायांतरण सम्भव नहीं है। यह भावभूमि पर घटित होने वाली सबसे सम्वेदी घटना है।
गोपियाँ भी उद्धव जी से कह उठती हैं – “निशि दिन बरसत नैन हमारे।” और आगे की पंक्ति में बड़ा खुलासा करती हैं, ” आँसू सलिल सबै भई काया।” काया का जल में बूड़ा हुआ कमल बनना, क्या प्रेम की पराकाष्ठा नहीं है।
एक बात सुनने में और आती है, कहते हैं आँखों के रास्ते ही किसी के दिल में स्थान बनाये जाते हैं। मतलब साफ है हृदय प्रकोष्ठ में प्रवेश का मार्ग आँख ही है। जो हो यह बात तो प्रेमी जन ही बता सकते हैं। मुझ जैसा अनाड़ी इन बातों को क्या समझ पाएगा।
आँखें केवल दूसरे के दुख में ही नहीं बरसतीं, बल्कि अपने दुख में भी बरस उठती हैं। उनका बरस उठना स्वाभाविक क्रिया है। वह भेद जो हृदय के किसी कोने में दबा पड़ा होता है, अवसर पाते ही ऑंखों के रास्ते बाहर हो जाता है। आँसुओं का बाहर आना किसी मुनादी से कम नहीं होता। वह चिल्लाकर चिल्लाकर सबको बता देता है। मुझे फलां दुख है। जैसे किसी घर के सदस्य को घर से बाहर निकाल देने पर घर का भेद कह देता है, घर का भेद, भेद नहीं रह जाता। वह सार्वजनिक हो जाता है। लोग जान जाते हैं और उपहास उड़ाते हैं बल्कि कई कई बार दुष्ट लोग इस बात का फायदा तक उठाते हैं।
भेद खुल जाने पर आदमी की कई प्रकार की ताकत कम हो जाती है। जिसकी ताकत कम हो जाती है, वह बिना सींग के पशु के समान होता है। विपत्ति आने पर अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर पाता। कवि रहीम ने क्या खूब कहा है – “रहिमन अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ।
जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देइ ।।
किसी किसी को कोई चीज आँख में खटकती है। आँख में खटकना एक मुहावरा है। उस मुहावरे का अर्थ है, अप्रिय होना। जब व्यक्ति अप्रिय होता है तो खटकता है। चुभता है। कष्ट पहुंचाता है। आंख में चुभना भी एक मुहावरा है, एक दोषजनित भाव है। यूं तो सारे भाव हमारे हृदय में सुषुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जैसे धरती की सुगन्धि हमेशा बाहर नहीं आती, पानी पाते ही, उसकी सोंधी खुशबू हमारे नथुनों में घुसकर आह्लाद पैदा करती है। प्रसन्नता पैदा करती है। आनंद पैदा करती है, वैसे ही हमारे हृदय के भाव हैं, जो मौका पाकर बाहर आते हैं और सबको जना देते हैं। बता देते हैं। सबसे कह देते हैं।
कभी-कभी अचानक से आँख में कचरा पड़ जाता है। अनायास, असंभावित घटना की तरह, और दुख देता है। कष्ट देता है। बहुत कष्ट देता है। थोड़ा थोड़ा कष्ट देता है। रुक रुक कष्ट देता है। शनैः शनैः कष्ट देता है। रह रह कष्ट देता है। कचरा तब तक कष्ट देता है जब तक वह बाहर नहीं हो जाय। कचरा बाहर होते ही दुख खत्म हो जाता है। आँख को आराम मिल जाता है। सुकून मिल जाता है। राहत मिल जाती है।
विद्वान जन मानते हैं आँख में लज्जा होती है, वह शरमा जाती है, झुक जाती है, विनम्र हो जाती है। वास्तव में लज्जा एक आभूषण है स्त्री के लिए। यदि कोई स्त्री तमाम वस्त्र, आभूषण पहने, और उसकी आँखों में लज्जा न हो तो स्त्री की मर्यादा न रहे। मर्यादा बड़ी चीज है। वह संस्कार जनित उपलब्धि है। इसके बिना कोई स्त्री, स्त्री नहीं होती। रामायण में एक शूपर्णखा है। वह लज्जाहीन स्त्री है। पर पुरुष के पास प्रणय प्रस्ताव लेकर स्वयं जाती है। उसकी आँखें निर्लज्जता से उघरी हुई हैं। नत नयन नहीं हैं। इसलिए लक्ष्मण के कोप का भाजन बनी। वहीं एक ओर सीता हैं, जो रावण को देखते ही तिरस्कार से मुँह फेर लेती हैं। क्रोध में अंगारे बरसाती उनकी आँखें देख रावण भयभीत हो जाता है। अपने कदम पीछे कर लेता है। स्त्री के लिए ये दोनों अस्त्र की तरह हैं। प्रेम करते समय लज्जा से परिपूर्ण नत नयन और प्रतिकार करते समय अंगारे बरसाती, क्रोध से भरी आँखें।
कभी-कभी भूख आँख में होती है। मन तृप्त होता है, पर भूख बनी रहती है। विज्ञान वाले मानते हैं, भूख पेट को नहीं लगती। मस्तिष्क को लगती है। सच्चाई जो हो, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। हाँ, आँख जरूर बता देती है। समझा देती है कि आँख में भूख है। आँख में जो भूख होती है, यह जरूरी नहीं कि वह अन्न की भूख हो। ये भूख कई प्रकार की होती है। इसके विस्तार में हम जाएंगे तो भटक जाएंगे। आँख से स्नेह वर्षा भी होती है। इस वर्षा में तन, मन दोनों भीग उठता है। इस भीगने के मोद के क्या कहने, सब तरबतर हो जाता है। हम इसे वात्सल्य और दाम्पत्य के स्नेह में विभक्त कर दें तो ज्यादा अच्छा रहेगा। वात्सल्य पूरित आँखें अपने पुत्र, पुत्री या उनके समवयस्क बच्चों को देखकर उमड़ पड़ता है। मन बार-बार यही चाहता है, थोड़ी देर के लिए बच्चों के संग बच्चा बन जाएं। उनकी जैसी तोतली आवाज में टूटे फूटे शब्द मैं भी निकालूं। झूठमूठ रोने का स्वांग करूँ श। उनसे रूठ जाऊं और जल्दी मान जाऊं। वहीं दाम्पत्य भाव से भरी आँखें प्रेम के धागे से बांध लेती हैं। यह धागा बड़ा सूक्ष्म होता है। इसे न तो नंगी आँखों से देखा जा सकता है ना ही किसी यंत्र से। इसे तो बस मन की आँखों से देखा जा सकता है। मौन निमंत्रण देती आँखें किसे नहीं बांध लेतीं। केवल बांधती नहीं बल्कि ठगती भी हैं। इन नैनों की ठगहारी का शिकार कौन नहीं होना चाहेगा।
भाई मैं तो कहूंगा अपनी आँख में कचरा आने ही न दें।कचरा पड़ जाने पर दिखाई नहीं पड़ता, दुख सहना पड़ता है सो अलग से। इस व्यथा को भला कौन समझने वाला है। आँख साफ-सुथरी रहेगी तो दृष्टि भी ठीक रहेगी। दूर तक दिखाई और सुझाई भी देगा।