— जवाहर सरकार —
प्रस्तुत लेख 4 अगस्त 2023 को ‘द वायर’ (अंग्रेजी) में प्रकाशित हुआ था। मोदी-राज में बैंक-ऋणों के बट्टे खाते में डालने का ऑंकड़ा करीब साढ़े बारह लाख करोड़ इस लेख में बताया गया है। लेकिन इस लेख के छपने कुछ दिन बाद, संभवतः 8 अगस्त को, सरकार ने संसद को सूचित किया कि बैंकों ने 2014-15 से शुरू होने वाले पिछले नौ वित्तीय वर्षों में 14.56 लाख करोड़ रुपये के डूबत ऋण (बैड लोन) बट्टे खाते में डाले हैं। जाहिर है, ताजा ऑंकड़ा और बढ़ा हुआ निकला (इससे संबंधित समाचार समता मार्ग पर 11 अगस्त को प्रकाशित हुआ था)। लेख में उसी ऑंकड़े को रहने दिया गया है जो लेखक ने लिखा था। प्रस्तुत लेख से पहले भी लेखक ने, इसी विषय पर, इसी क्रम में, कुछ-कुछ दिनों के अंतराल पर दो लेख ‘द वायर’ में लिखे थे। लेकिन हम इस सिलसिले के उनके तीसरे लेख को ही दे रहे हैं। मोदी-राज के नौ वर्षों में बैंकों की लूट को समझने के लिए यह बहुत उपयोगी है।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने मेरे तारांकित प्रश्न का 1 अगस्त को जिस तरह से गोलमोल जवाब दिया उससे यह साफ जाहिर था कि बैंकों को हुए भारी नुकसान का जो तथ्य सार्वजनिक जानकारी में है उससे आगे जाकर सरकार कोई भी ऑंकड़ा सामने नहीं आने देना चाहती।
बीस महीनों के सतत प्रयास के बाद आखिरकार किसी ने पता लगा ही लिया कि बैंकों का कुल एनपीए (नॉन परफार्मिंग एसेट्स), और बट्टे खाते में डाली गयी रकम (राइट-ऑफ) साल-दर-साल और बैंक-दर-बैंक कितनी है। इसे 18 जून को ‘द वायर’ (अंग्रेजी) में प्रकाशित किया गया था, इस शीर्षक से कि ‘मोदी सरकार को 12 लाख करोड़ रु की ऐतिहासिक बैंक-हानि के बारे में अवश्य जवाब देना चाहिए’ (द मोदी गवर्नमेंट मस्ट आनसर फॉर इंडिया’ज हिस्टोरिक बैंक लॉस)। उस लेख में मोदी सरकार के शुरू से लेकर आठ वर्षों को समेटा गया था। लेकिन अब हमारे पास पूरे नौ साल के रिजर्व बैंक के ऑंकड़े हैं। सभी बैंकों द्वारा गॅंवाई गयी कुल राशि 12,09,606 करोड़ से बढ़कर 12,50,553 करोड़ हो गयी है।
भारत के इतिहास में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि, साल-दर-साल, इतनी बड़ी रकम बह गयी हो, फिर भी सार्वजनिक चर्चा में किसी घोटाले की फुसफुसाहट तक नहीं सुनाई दे। अनुमान के अनुरूप, मुख्य रूप से सरकारी बैंक ही नुकसान की चपेट में आए, लेकिन प्राइवेट बैंक भी इस बीमारी से अछूते नहीं रहे और उन्हें भी कुछ हद तक नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन दंडित करने की प्रक्रिया प्राइवेट बैंकों में तेज़ और तीखी रही – मसलन यस बैंक के राणा कपूर और आईसीआईसीआई की चंदा कोचर को कीमत चुकानी पड़ी।
इस लेख में हम ताजा ऑंकड़ों के साथ यह बताएंगे कि जान-बूझकर कर्ज की किस्तें न चुकाने वालों, महज संपत्तियाँ बटोरने के मकसद से वित्तीय कठिनाई में पड़ी कंपनियों को खरीदने वालों और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त घोटालेबाज़ों के खातों को दुरुस्त करने के लिए किस तरह हमारी बैंक-जमाराशियों का इस्तेमाल किया गया। इनमें से कइयों को नरेन्द्र मोदी के आसपास मॅंडराते देखा जाता था। जिन्होंने बैंकों के खजाने से लाखों करोड़ रुपए लूट लिये, फिर विदेश भाग गए और वहाँ आलीशान बॅंगलों में मौज कर रहे हैं।
उनमें से एक को भी मोदी सरकार मुकदमा चलाने और जेल भेजने के लिए वापस नहीं ले आयी, जबकि मनमोहन सिंह सरकार ने सत्यम घोटाले के ताकतवर आरोपी रामालिंगम राजू को जेल भेजा था। जोशीले टीवी चैनल भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग करते हुए मनमोहन सिंह सरकार को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, और भ्रष्टाचार के उन मामलों का नाटकीय ढंग से खुलासा करने वाला सीएजी राकस्टार बना हुआ था। यह अलग बात है कि उनमें से बहुत-से टीवी चैनलों ने अपने आप को मोदी को और उनके पूंजीपति-दोस्तों को बेच दिया, और पूर्व सीएजी पर मोदी ने जमकर मेहरबानी बरसायी।
मेरा तारांकित प्रश्न यह था कि उपरोक्त राशि को वसूल करने के लिए क्या कदम उठाये गए हैं और शीर्ष बीस घपलेबाज़ों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गयी है? निर्मला सीतारमण ने बड़े भोलेपन से जवाब दिया, “बैंकों को धोखाधड़ी की भनक लगते ही कानून लागू करने वाली एजेंसियों के पास शिकायत दर्ज करानी पड़ती है।” एक बच्चा भी यह जानता है। लेकिन मेरे निशाने पर खासकर शीर्ष बीस घपलेबाज़ थे – जिनमें से कइयों को प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। बैंकरों ने बताया कि कइयों ने प्रधानमंत्री से जान-पहचान का हवाला दिया था और प्रधानमंत्री के साथ अपना फोटो भी दिखाया था।
वित्तमंत्री ने सवाल से कन्नी काट ली, वरना उनकी कुर्सी खतरे में पड़ सकती थी। लेकिन उसी दिन उनके राज्यमंत्री ने जवाब दिया कि “भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम के तहत आरोपी बनाये गए लोगों से सरकार ने अभी तक 15,113 करोड़ रुपये वसूल किये हैं।” उनपर चालीस हजार करोड़ से अधिक बकाया है, इसका अर्थ है कि उन्होंने अपने ऊपर बकाये का तीन-चौथाई नहीं चुकाया है।
इस साल 5 फरवरी को, एक अन्य राज्यमंत्री भागवत कराड ने संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि “सीआरआईएलसी (सेंट्रल रिपाजिटरी ऑफ इनफार्मेशन ऑन लार्ज क्रेडिट्स) के मुताबिक कामर्शियल बैंकों के 10 सबसे बड़े कर्जदारों ने कुल 12,71,604 करोड़ रुपये कर्ज ले रखा है।” इससे हम समझ सकते हैं कि बैंकों ने सिर्फ 10 शीर्ष कर्जदारों को कितना ज्यादा उधार दिया हुआ है। और हम अंदाजा लगा सकते हैं कि इससे पॉंच या दस गुनी राशि शीर्ष 100 कर्जदारों ने उधार ले रखी होगी। अगर ‘सही जगह’ उनकी पहुँच होगी और उन पर वरदहस्त होगा, तो इसमें से अधिकांश रकम कभी नहीं लौटेगी। यही हमारा असल मुद्दा है। और हम पाते हैं कि मोदी राज के नौ वर्षों में बैंकों पर एनपीए का बोझ 69 लाख करोड़ हो गया है। उससे पहले के नौ वर्षों से तुलना करें तो उस दौरान का एनपीए इस राशि के एक छोटे हिस्से के बराबर भी नहीं था।
कुल बैंक-ऋण में बुरे ऋण का प्रतिशत
हम जानते हैं कि बैंक-ऋण बढ़ने के साथ बुरे ऋण की मात्रा भी बढ़ती है। इसलिए कुल ऋण में बुरे ऋण का अनुपात ही सही पैमाना हो सकता है। इस अनुपात की तुलना हम एनपीए के इसी तरह के अनुपात से कर सकते हैं, यानी यह देखना होगा कि कुल बैंक-ऋण में उनका प्रतिशत कितना है। तब हम कहीं ज्यादा अच्छी तरह समझ सकेंगे कि भारत में क्या चल रहा है और यह क्यों इतना संदेहास्पद है, तथा दुनिया के अन्य देशों से तुलना करें तो हमारे यहाँ स्थिति इतनी ज्यादा खराब क्यों है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) की वेबसाइट पर दिए गए ऑंकड़े बताते हैं कि विकसित देशों में कुल बैंक-ऋण में एनपीए का अनुपात 0.4 फीसद से 1.4 फीसद है। जाहिर है वहाँ ईमानदारी अधिक है, यारानावाद (क्रोनीज्म) कम है और भ्रष्टाचार पर सख्त निगरानी है। इटली, स्पेन और पुर्तगाल में यारानावाद अपेक्षया अधिक है और यह वहाँ खतरे में पड़े ऋण में भी प्रतिबिंबित होता है – कुल ऋण का 1 से 5 फीसद।
वेबसाइट globaleconomy.com से विकासशील देशों के बारे में कहीं अधिक जानकारी मिलती है। इससे पता चलता है कि चीन, वियतनाम, मलेशिया, और कंबोडिया में बुरे ऋण का अनुपात 1.6 फीसद से 1.7 फीसद के बीच है, जबकि इंडोनेशिया में यह 2.6 फीसद है। तुर्की, थाईलैंड और ब्रूनेई में एनपीए कुल ऋण का लगभग 3 फीसद है। इसके मद्देनजर, मोदी सरकार के कार्यकाल में भारत की स्थिति बहुत ही शोचनीय कही जाएगी। मोदी राज में एनपीए अमूमन 7 फीसद से 8 फीसद के बीच रहा है, और वित्तमंत्री के मुताबिक यह 31 मार्च 2018 को 11.46 फीसद पर पहुँच गया था, जो कि रिकार्ड है। उनके वित्त राज्यमंत्री ने एक अन्य जवाब में बताया कि पिछले सात साल में रिकार्ड दरअसल 12.17 फीसद का था।
मोटी बात यह है कि अगर हम मान लें कि अंतरराष्ट्रीय पैमाने से संकटग्रस्त ऋण का अनुपात 2 फीसद होता है, तो भारत में यह अनुपात बहुत ज्यादा है। हम मानते हैं कि इसके पीछे धोखाधड़ी, मिलीभगत, या बैंक-ऋण का चरम दुरुपयोग जैसे कारण होते हैं, और चूंकि कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता, कुछ लोगों की जेब गरम की जाती है, बैंकों को होने वाले इस नुकसान को रुटीन नुकसान में बदलने के लिए। लिहाजा, मोदी राज में जब एनपीए कुल बैंक-ऋण के 11.46 फीसद पर पहुँचा, तो 9.46 फीसद (अर्थात औसतन 2 फीसद घटाने पर) या तो रिश्वतखोरी में गया, जबकि हो सकता है कि इसका एक छोटा अंश हमारे बैंकिंग सिस्टम में वित्तीय संकुचन में प्रतिबिंबित होता हो।
हर कोई यह बात कहता है कि राजनीतिक वरदहस्त या सफारिश के बगैर बड़ा कर्ज अमूमन नहीं मिलता। पहले नौ सालों के दरम्यान कुछ लोग अपना सिर तेजी से कभी बायें कभी दायें करते रहे हैं, जैसे भरतनाट्यम का कोई दक्ष नर्तक करता है। कोई यह दलील दे सकता है कि कुल कर्ज का केवल 2 प्रतिशत तकलीफदेह कर्ज में बदलता है, यह अंतरराष्ट्रीय पैमाना भारत के लिए बहुत सख्त है। लेकिन अगर दुनिया के अधिकतर देश, जिनकी अर्थव्यवस्था मायने रखती है, और अन्य एशियाई देश बैंकिंग सिस्टम में गड़बड़ी को 2 फीसद (या कुछ अधिक होने पर भी इसी के आसपास) तक सीमित रखते हैं, तो भारत यह क्यों नहीं कर सकता?
इसका उत्तर पाने के लिए, हमें देखना होगा कि मोदी राज के दौरान धीरे-धीरे कितनी रकम चहेतों ने और अन्य गुनहगारों ने बेईमानी से निकाली है – और भी दुखद यह है कि इसके लिए वे दंडित नहीं हुए।
सरकार अब इस बात का ढिंढोरा पीट रही है कि एनपीए घटकर 31 दिसंबर 2022 को 4.41 फीसद पर आ गया था। लेकिन आरबीआई का अनुमान है कि “सरकारी बैंकों का कुल एनपीए बढ़कर सितंबर 2023 में 9.4 फीसद तक हो जा सकता है।” बेशक यह सही है कि एनपीए का प्रतिशत यूपीए सरकार के अंतिम वर्षों में ही चढ़ने लगा था। लेकिन तब भी वह 3 प्रतिशत था, और आखिरी साल में बढ़कर 4 प्रतिशत हुआ था। तब भी मनमाने ढंग से ऋण देने के कुछ मामले जरूर हुए थे। लेकिन मोदी सरकार के पास छानबीन करने, स्थिरीकरण करने और बुरे ऋणों से छुटकारा पाने के लिए पूरे नौ साल थे। लेकिन इस अवधि में खराब ऋण दुगुने और तिगुने हो गये, उनके करीबी व्यापारियों द्वारा बैंकों को चूना लगाने की घटनाएँ चरम पर पहुँच गयीं। लेकिन सब कुछ ठीक चल रहा है, क्योंकि ज्यादातर मतदाता जमाराशि पर मिलने वाली ब्याज दर और होम लोन/कार लोन के अलावा बैंकिंग के बारे में कुछ नहीं जानते।
अब हम एनपीए को छोड़कर उस राशि की बात करते हैं जो स्वाहा हो गयी, जो हमेशा के लिए बट्टेखाते में डाल दी गयी। सरकार दावा करती है कि बैंक किसी ऋण को निर्णायक रूप से बट्टे खाते में डालने की कार्रवाई इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें आरबीआई के निर्देशानुसार “कर-लाभ पाने और अपनी पूंजी का अनुकूलन करने के लिए अपना हिसाब-किताब साफ रखना पड़ता है।” सच कहें तो, इस तरह की बात बार-बार दोहराने के दिन लद गये हैं और ऐसी घिसी-पिटी बात को दोहराते रहने का एक ही मतलब होता है, अप्रत्याशित नुकसान पर परदा डालना। यह नुकसान सरकार का नहीं होता, बल्कि बैंक के साधारण ग्राहकों का होता है जिनकी जमापूॅंजी बैंक के पास रहती है और जो ठगों तथा संपत्ति जमा करनेवालों के द्वारा किये गये नुकसान को ढकने के लिए इस्तेमाल की जाती है।
जो सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक, या ग्रामीण रोजगार के मदों में बहुत मुश्किल से अतिरिक्त हजार करोड़ रुपए का आवंटन करती है, 12.5 लाख करोड़ रुपये (बिना चुकाये हुए ऋण के) बह जाने पर कुछ नहीं करती, किसी भी जाने-पहचाने अपराधी को जेल नहीं होती। बहुत कम लोग इस ठगी को समझते हैं क्योंकि नागरिकों के पास इतनी सूचना नहीं होती कि वे यह सवाल उठा सकें कि इस “अपूरणीय मान लिये गये विशाल नुकसान” की भरपाई बैंक में उनकी जमाराशि से तथा मुश्किल से हासिल किये गए बैंक के शुद्ध लाभ (परिचालन खर्च को घटाकर) के सहारे क्यों की जा रही है। इस तरह हिसाब-किताब को साफ-सुथरा किया जाना कितना जुल्मी है। उनकी चॉंदी और हमारी बरबादी।
धन फ़ना नहीं होता – यह एक जेब से दूसरी जेब में चला जाता है। कर्ज की किस्तें न चुकाने वाले (या ग़बन करने वाले) व्यापारियों का एक वर्ग ही असल में बट्टे खाते में डाल कर माफ कर दी जाने वाली राशि से लाभान्वित होता है, क्योंकि उनका कुछ नहीं बिगड़ता। वे बड़े खिलाड़ी जो किसी राजनीतिक दल की वित्तीय मदद करते हैं, कारपोरेट संगठन की तरह अपने मामले को बड़ी सफाई से सॅंभाल ले जाते हैं, और नकदी के संदिग्ध लेन-देन तथा धन के हस्तांतरण का कोई सुराग नहीं छोड़ते। अगर बैंकों के मुखिया, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई, राजस्व खुफिया निदेशालय, गंभीर धोखाधड़ी कार्यालय, तथा अन्य कारपोरेट और वित्तीय गवर्नेन्स नियामक सचमुच गंभीर हैं, तो वे इस चालबाज़ी का भंडाफोड़ कर सकते हैं, जैसे वे नकद लेनदेन के साधारण मामलों का पता लगा लेते हैं।
एनपीए और बट्टे खाते में डाले गए मामलों की संख्या बताने का अनुरोध संसद में पूछे गए मेरे प्रश्न में शामिल था। लेकिन वह संख्या बताने के बजाय निर्मला सीतारमण ने किसी डिप्टी सेक्रेटरी द्वारा तैयार किया गया पूरे एक पेज का प्रवचन पेश कर दिया। 18 अगस्त, 2022 को वित्त मंत्रालय ने ऑल इंडिया बैंक इंप्लाइज एसोसिएशन के उस बयान की पुष्टि की थी, जिसमें बताया गया था कि उनके कुल बैंक-ऋण 4.47 लाख करोड़ का दो तिहाई हिस्सा केवल 13 एनपीए की भेंट चढ़ गया है। यह मुद्दा गहरे सोच-विचार और विस्तृत छानबीन की मांग करता है लेकिन इस तकाजे को पूरा करने के बजाय वित्त मंत्रालय ने ध्यान बॅंटाने का तरीका अख्तियार किया हुआ है, क्योंकि इन घपलेबाज़ों के सियासी आका इन्हें संरक्षण दे रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी, जिन्हें थोक में कानून बदलने में कोई हिचक नहीं होती, ने उन वित्तीय कानूनों को बनाये रखा है जो इन महाशातिर अपराधियों के बच निकलने की गुंजाइश छोड़ते हैं। दिवालियेपन की बाबत सरकार का ताजा प्रस्ताव यह सुनिश्चित करता है कि बैंक अपने दावे का मुश्किल से लगभग 40 फीसद हिस्सा वसूल कर सकते हैं।
मसलन, वीडियोकान पर 46,000 करोड़ का ऋण था। यह वेदान्ता (मोदी के एक चहेते की कंपनी) को बेच दी गयी, इसी प्रक्रिया के तहत, केवल छह फीसद के दावे के साथ। एबीजी शिपयार्ड पर बैंकों का 22,800 करोड़ का कर्ज था, लेकिन उसके दिवालिया होने पर, उसके परिसमापन के लिए, उसकी सिर्फ 5 फीसद संपत्ति रखी गयी – क्योंकि सियासी पहुँच वाले उसके मालिकों ने नए कर्ज लेकर न सिर्फ कंपनी के बारंबार हुए घाटे को छिपाया बल्कि कंपनी के फंड से काफी पैसा निजी स्वार्थ के लिए निकाला।
मोदी और निर्मला सीतारमण को मानो पता ही नहीं है कि उनकी छड़ी से उन पेशेवर ‘बैंक लुटेरों’ को कोई फर्क नहीं पड़ता, जिनकी खाल बहुत मोटी है, जो रसूखदार लोगों को खुश करके, सार्वजनिक धन को निजी दौलत में बदलते रहते हैं।
(लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं; प्रसार भारती के सीईओ तथा संस्कृति सचिव रह चुके हैं)
‘द वायर’ से साभार
अनुवाद : राजेन्द्र राजन