भारत में बढ़ती गैरबराबरी पर चुप्पी क्यों है?

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— प्रभात कुमार —

भारत आज भी गरीबों, मजलूमों और मजदूरों का विशुद्ध देश है। कम से कम इस देश की 50 फीसद आबादी आजादी के 77 साल बाद भी गरीब है। रोजगार के अवसर लगातार देश में घटते जा रहे हैं। सरकारी नौकरियों के अवसर से गरीबों के बीच जो कुछ खुशहाली आई थी वह अवसर भी अब खत्म हो रहा है। अब कोई रिक्शा चलाकर परिवार के पेट भरने और अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर आईएएस सहित सरकारी नौकरियों में भेजने का सपना नहीं पूरा कर सकता, क्योंकि सड़कों से अब रिक्शा गायब हो रहा है। मजदूरी का हाल यह है कि मनरेगा जैसी योजना में भी मानव श्रम के अवसर खत्म हो रहे हैं। काम मशीन से हो रहा है और पैसे की बंदरबाट मजदूरों के खाते से हो रही है। खेती का भी बुरा हाल है। मानव श्रम की जगह मशीन ने ले ली है। खेत की जुताई अब ट्रैक्टर से हो रही है और हल-बैल का जमाना लद चुका। खेत में भी काम करने के अवसर अब सीमित हो चुके हैं।

रोजी-रोटी के लिए खेती की मजदूरी से अन्य बेहतर अवसर उपलब्ध हो जाने के कारण भारत जैसे खेती प्रधान देश में एक बड़ी आबादी ने खेती लगभग छोड़ दी है और और बचे हुए किसान भी इससे मुंह मोड़ने की स्थिति में अब दीख रहे हैं। इसके कुछ कारण भी साफ हैं। आज की तारीख में खेती कमजोर किसानों के लिए घाटे का सौदा है। मेहनत- मजदूरी के अनुपात में न उपज संभव हो पा रही है और न उपज का सही मूल्य प्राप्त हो रहा है। सरकारी मशीनरी के कोर-कोर में भ्रष्टाचार है। सामान्य किसानों को बैंक से लेकर कृषि विभाग और सरकारी समितियों के द्वारा उपलब्ध सुविधाएं लगभग नहीं मिल पाती हैं। बीज, खाद और अनाजों की खरीद बिचौलियों और व्यापारियों का बड़ा खेल होने के कारण देश के किसान अब हिम्मत हारने लगे हैं। खेती के लिए एक बड़ा अभिशाप जलवायु परिवर्तन भी है।

इस देश में 70 फीसदी से ज्यादा लोग अब किसान भी नहीं, सिर्फ मजदूर हैं। आधा से ज्यादा किसानों ने खेती-बाड़ी को छोड़कर रोटी के लिए मजदूरी का कोई ना कोई रास्ता तलाश लिया है। कोई फैक्ट्री में नौकरी कर रहा है, तो कोई किसी की दुकान में मजदूरी कर रहा। कोई खदान में मजदूरी कर रहा तो कोई किसी निर्माण एजेंसी का ठेकेदार का मिट्टी-गिट्टी, ईंट-पत्थर उठाकर मेहनत मजदूरी कर अपना पेट भर रहा है। उनके बाल-बच्चे और परिवार के लोगों का हाल जानना है तो गांव में जाकर देखें। फैक्ट्री में काम कर रहे अपने पति के बीमार हो जाने के कारण उसकी पत्नी बच्चों के दो वक्त की रोटी के लिए किस तरह किसी सेठ के घर के चौका-बासन से लेकर पोंछे लगाकर घर चला रही है।

कोई ननिहाल अपने पिता के अधिक श्रम करने के कारण टीबी से आक्रांत हो जाने के कारण, पढ़ाई लिखाई छोड़कर, किसी मैकेनिक के यहाँ गैराज हेल्पर बनकर अपना पेट पाल रहा है। अगर किशोर है तो किसी दुकान में सेल्समैन की भूमिका निभा रहा है। यह तब है जब इस देश में बाल मजदूरी दंडनीय अपराध है। फिर भी इस देश के सत्ताधीशों को भारत खुशहाल दिख रहा है। चांद और सूरज की बात हो रही है।

लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश की तरक्की की गाथा सुनाते नहीं थकते। कुछ ही बरसों में देश के चौथी महाशक्ति होने दावा तक करते हैं। अगर यह दावा सही है तो स्वतंत्रता दिवस के अभी 15 दिन भी नहीं बीते कि प्रधानमंत्री को रसोई गैस के दाम में 2 सौ रुपये की कमी की घोषणा क्यों करनी पड़ी? कारण साफ है अगले साल देश का आम चुनाव होना है। पांच साल और गद्दी पर बने रहने के लिए अब जनता की अपेक्षा संभव नहीं। खासकर तब जब पूरे देश का विपक्ष एकजुट होकर हमलावर हो रहा है। कुछ पूंजीपतियों के कदमों में बिछी सरकार किनके लिए काम कर रही है यह किसी से छिपा नहीं है।

वैसे हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी मोदी खुद को गरीब का बेटा बताते हैं और अपने पिछड़ा वर्ग का होने की भी चर्चा करते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है इस पचड़े में मुझे नहीं पड़ना। मुझे इससे भी कुछ लेना-देना नहीं है कि वह कितने करोड़ के हवाई जहाज में उड़ते हैं, कितनी महंगी कार से चलते हैं। उनका चश्मा कितने का है और घड़ी कितने की। उनके कपड़े की कीमत क्या है। लेकिन इतना सच है कि इस देश में गरीब पर लंबे-लंबे भाषण देने वाले आज के तमाम नेता न गांधी हैं न जेपी, न लोहिया, न डॉ राजेंद्र प्रसाद या लाल बहादुर शास्त्री। आज की राजनीति में गरीबों और पिछड़ों का दर्द समझने वाले जननायक कर्पूरी ठाकुर जैसे राजनेता का घोर अभाव है।

अगर सच कहा जाए तो भारत में आज भी जिसे गरीब कहा जा रहा है वह गरीबी रेखा के नीचे नहीं, भुखमरी के दौर से गुजर रहा है। इस विकट महंगाई के हालात में 800 से लेकर 1700 रुपए आम आदमी वाले व्यक्ति को अगर गरीब माना जाता तो एक सवाल बनता है कि इतने पैसे में कोई परिवार की रोटी का बंदोबस्त कर सकता है क्या। भारत में अभी तक गरीबी को मापने का मानक नहीं बदला। कांग्रेस के शासनकाल में जो हुआ वह अपनी जगह है। भाजपा के शासन में भी यह स्थिति बरकरार है। इंग्लैंड में अगर ₹100000 से किसी व्यक्ति की आय कम है, तो वह गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है। इसी तरह अन्य राष्ट्रों में भी न्यूनतम निश्चित है। यह सच है कि भारत सूडान नहीं है लेकिन भारत में आर्थिक विषमता अपने चरम पर पहुंच रही है।

इस विषमता पर पर्दा डालने के लिए देश के राजनेताओं के द्वारा तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। जनता को संकटों की तरफ देखने से रोका जा रहा है। अन्न के कितने दाम बढ़े, रसोई गैस की कीमत कितनी बढ़ी, पेट्रोल-डीजल की कीमत कितनी बढ़ी, खेती का खर्च कितना बढ़ा, कपड़ा कितना महंगा हुआ, पढ़ाई और दवाई के खर्चे कितने बढ़े, रोजगार का संकट कितना बढ़ा जैसे अनेक मूलभूत सवालों से जनता का ध्यान बॅंटाने के लिए कभी धर्म का मुद्दा तो कभी जाति का मुद्दा और कभी परिवार और भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया जाता रहा है। यह भी उतना ही सच है कि इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर रहे अरविंद केजरीवाल अथवा अन्य अधिकांश राजनेता, गरीबों के सवाल पर वोट तक सीमित हैं।

भारत के एक फीसद पूंजीपतियों की जमापूंजी में बीते 3 दशकों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। खासकर बीते दशक में यह ग्राफ बहुत ही तेजी से बढ़ा है। मोटे तौर पर इसे समझने के लिए यह काफी है कि इसी देश के गौतम अडानी ने दुनिया के दूसरे सबसे धनी व्यक्ति होने का अवसर प्राप्त किया। बीते कुछ वर्षों में अंबानी सहित कई पूंजीपतियों ने दुनिया के धनी व्यक्तियों की सूची में लंबी-लंबी छलांग लगाई और आम आदमी कहां खड़ा रहा! सबसे दुखद तो यह है कि कोरोना जैसी महामारी के बीच भी उनकी तरक्की रुकी नहीं और आम जनता फाकाकशी के दौर से गुजरती रही।

भारत का हर चौथा आदमी आज भी गरीब है। यह नीति आयोग की रिपोर्ट है। अगर सरकारी आंकड़े की बात करें तो आज भी भारत में 25 करोड़ से ज्यादा लोग गरीब हैं। जिनकी मासिक आमदनी 800 से लेकर 1700 रुपए से भी कम है। शायद यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि आज की तारीख में भी भारत में 90 फीसदी लोगों की मासिक आमदनी ₹25000 से कम है। यह हालत तब है जब बीते दशक में भोजन, कपड़ा ही नहीं शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन सब कुछ काफी महंगा हो गया है और उस अनुपात में लोगों की आमदनी नहीं बढ़ी।

कुछ वर्षों में भारत के चौथी-पांचवीं आर्थिक शक्ति होने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले की प्राचीर से जब दावा कर रहे हैं तब दूसरी तरफ की स्थिति क्या है इसे जानना लाजिम हो जाता है। भारत में एक लाख से कम वार्षिक आमदनी वाले लोग 38.6 फ़ीसद हैं। 1 लाख से 3 लाख की आमदनी वाले 49 फीसद, 3 से 5 लाख वाले 8.5 फीसदी और 5 लाख से अधिक आमदनी वाले 4 फीसद हैं।

यह आंकड़ा और जान लें, भारत में 9.1फीसद लोग दिहाड़ी मजदूर हैं। 26.8 फीसद ऐसी महिलाएं हैं जिनकी कोई आमदनी नहीं। वे सिर्फ गृहणी हैं। यह सरकारी आंकड़ा है। जिसके आधार पर इस देश को बहुत जल्द दुनिया की चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति होने का दावा किया जा रहा है। एक अर्थशास्त्री का दावा है कि इस देश के पूंजीपतियों पास 42.21 फीसद धन है और आम आदमी के हिस्से सिर्फ 2 फीसदी धन रह गया है। गरीब कहां खड़े हैं यह आसानी से समझा जा सकता है।

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