— ध्रुव शुक्ल —
तीन सितंबर की शाम भोपाल के रवीन्द्र भवन में रंगकर्मी बालेन्द्र सिंह के निर्देशन में उनके ‘हम थियेटर’ के अभिनेताओं द्वारा फिर ‘अंधा युग’ नाटक की सुचारु प्रस्तुति देखी। उन्हें हार्दिक बधाई देता हूॅं। यह नाटक कवि-कथाकार धर्मवीर भारती ने रचा है। कई बरस पहले इसे रंगकर्मी इब्राहीम अलकाजी ने पेश किया था। चालीस बरस पहले यह नाटक भोपाल के भारत भवन में ब.व. कारन्त के निर्देशन में देखा था।
इस नाटक में अट्ठारह दिन तक चले महाभारत युद्ध के अंतिम दिन की कथा है—दोनों तरफ़ के बड़े-बड़े योद्धा मारे जा चुके हैं। पांच पाण्डव, कुलगुरु कृपाचार्य, कृतवर्मा और वह द्रोणपुत्र अश्वत्थामा बच गया है जिसके गुरु-पिता को धर्मराज युधिष्ठिर के झूठ ने मारा है। वह एक कौरव युयुत्सु भी बच गया है जो दुर्योधन के अन्याय के पक्ष से नहीं, पाण्डवों की तरफ़ से अपने ही भाइयों से लड़ा।
युद्ध का अंत आते ही उस संजय ने वह दृष्टि भी खो दी है जो अंधे धृतराष्ट्र को युद्ध का आंखों देखा हाल बताने में समर्थ थी। पर युद्ध में इतने संहार के बाद इस अंतिम दिन भी प्रतिशोध की आग ठण्डी नहीं हुई। अश्वत्थामा पाण्डवों को रात के ॲंधेरे में अभी भी छलपूर्वक मारना चाहता है। वह अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे उत्तराधिकारी शिशु का भी अंत करना चाहता है। पर इस युद्ध में प्रारंभ से अंत तक एक तटस्थ उपस्थिति भी है जिसे युद्ध का दोष लगाकर गांधारी शाप देती है पर वही निष्काम उपस्थिति उस निर्दोष शिशु को बचा लेती है।
इतने बरस बाद यह नाटक देखते हुए फिर उसी तटस्थ-निष्काम उपस्थिति की याद आयी जो हमारी देह के रथ को सारथी होकर न जाने कब से चला रही है। खचाखच भरे रवीन्द्र भवन में नाट्यप्रेमियों के चेहरों को पढ़ते हुए लगा कि सब मिलकर जैसे अपने आपको ही देख रहे हैं—आखिर हमारी देह में ही वह धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र का मैदान फैला हुआ है जिसमें यह युद्ध हो रहा है। अपनी आसक्तियों के कारण अपने आपसे बार-बार हो रही अपनी पराजय का गवाह तो हमारे अलावा और कोई नहीं। हमारे ही भीतर के ॲंधेरे की परछाइयां बाहर आकर कल्पित शत्रुओं का पीछा कर रही हैं। हम ही बार-बार अपने आपको अपना मित्र बनाने से चूक जाते हैं और अपने आपसे बाहर आकर रोज किसी न किसी युद्ध में दुश्मनी मोल लेते रहते हैं।
मैं सोचने लगा कि आखिर यही नाटक हमारे सामने बार-बार क्यों पेश होता है?—क्यों न हो, हम ही तो इस नाटक के रचयिता हैं जो हमारे अंत:पट पर रोज़ लिखा जाता है और युद्ध का कोई अंतिम दिन आता ही नहीं। हमारे प्रतिशोध और शाप रोज़ हमारा ही पीछा करते हैं। फिर एक दिन ऐसा भी आता है कि पश्चाताप का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह नाटक हमसे बार-बार कहता है कि ऐसा कोई भविष्य नहीं जो वर्तमान को चुनौती दे सके। जीवन वर्तमान के सिवा और कुछ नहीं—जो भी है बस यही एक पल है। अतीत का बोझ और भविष्य की कल्पना में हिंसा छिपी है जबकि वर्तमान में घटते हर नश्वर पल के बोध में ही अहिंसा का वास है। इसी पल में हमारे हृदय से मैत्री की छोटी-छोटी पगडण्डियां निकलती हैं जो बाहर की दूरी को पाट देती हैं।
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हैरां हूॅं अय वतन तुझे इस ख़त में क्या लिखूॅं
(शाइर हसरत जयपुरी को याद करते हुए)
इण्डिया लिखूॅं
कि भारत लिखूॅं
या हिन्दोस्तां लिखूॅं
हैरां हूॅं अय वतन तुझे इस ख़त में क्या लिखूॅं?
ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर वतन आवाज़ तुम देना,
कि तुम मेरी ज़िन्दगी हो कि तुम मेरी बंदगी हो।
वतन मेरी नाव तू ही है, मेरी पतवार तू ही है।
तू दिल के पास है इतना, मेरा प्यार तू ही है।
वतन तू ही वो साहिल है जो सबके —
इंतज़ार में, इंतज़ार में, इंतज़ार में।
ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर वतन आवाज़ तुम देना,
कि तुम मेरी ज़िन्दगी हो कि तुम मेरी बंदगी हो।
तेरी सुबहों में रहता हूं, तेरी शामों में रहता हूं।
वतन कई नाम हैं तेरे, कई नामों में रहता हूॅं
बता किस नाम से कह दूॅं कि मुझको —
तुझसे प्यार है, तुझसे प्यार है, तुझसे प्यार है।
ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर वतन आवाज़ तुम देना,
कि तुम मेरी ज़िन्दगी हो कि तुम मेरी बंदगी हो।