— प्रभात कुमार —
हिमालय और तिब्बत का सवाल, जब भारत में पहली बार जी-20 समिट का आयोजन हो रहा है, बहुत महत्वपूर्ण है। खासकर चीन की नीयत को देखते हुए। उसकी नीयत भारत के प्रति साफ नहीं दीख रही है। खासकर जिस तरह से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग पहली बार जी-20 के शिखर सम्मेलन में हिस्सा नहीं ले रहे हैं, जबकि अभी हाल में ही ब्रिक्स सम्मेलन में उन्होंने हिस्सा लिया था और भारत में आयोजित होने वाले जी- 20 के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने का भरोसा दिलाया था। लेकिन चीन की दोहरी नीति एक बार फिर से जाहिर हो गई। वैसे, कई मौकों पर पहले भी चीन ने ऐसा ही व्यवहार किया है।
इस शिखर सम्मेलन में चीन की अनुपस्थिति को लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी काफी किरकिरी हो रही है। लिहाजा भारत के लिए हिमालय का सवाल और तिब्बत संकट के परिप्रेक्ष्य में दुनिया के सामने चीन की नीतियों का खुलासा करने का बड़ा अवसर है। इसी बहाने कूटनीति के लिए यह सही समय है।
हिमालय और तिब्बत संकट भारत की पारिस्थितिकी, पर्यावरण और सामरिक दृष्टि से जुड़ा अहम सवाल है। भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस सवाल को उठाकर 1962 में संसद में लिये अपने फैसले को मूर्त रूप दे सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह स्वर्णिम अवसर है। भारत तिब्बत मैत्री संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो.आनंद कुमार कहते हैं कि इतिहास गवाह है, 1962 के चीनी हमले से लेकर कुछ वर्ष पहले डोकलाम फिर गलवान की घाटी में हुई सैनिक झड़प से चीन की नीयत साफ हो चुकी है। वह कहते हैं कि तिब्बत का सवाल पूरी दुनिया के सामने मानवता का एक बड़ा सवाल है। जब तक तिब्बत का अस्तित्व कायम था भारत की सीमा पूरी तरह से सुरक्षित थी। कभी सीमा का विवाद नहीं उठा। पूरा हिमालय शांति और अध्यात्म का क्षेत्र बना रहा। अब यहां एक सभ्यता और संस्कृति को जड़ से मिटाने की कोशिश हो रही है।
पारिस्थितिकी और पर्यावरण का बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के समक्ष अब पर्यावरण की रक्षा एक बड़ी चुनौती है। इसे देखते हुए हिमालय और तिब्बत के संकट की उपेक्षा अनुचित है। भारत को यह सवाल हर हाल में अंतरराष्ट्रीय मंच पर मुखर होकर उठाना ही चाहिए। यह कूटनीति का एक बड़ा अवसर है। अन्यथा हिमालय का संकट आने वाले समय में भारत के लिए बड़ी विपदाओं का कारण बनेगा। हिमालय और तिब्बत के संकट के हल से कई समस्याओं का एकसाथ निदान संभव है। अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह सवाल उठता है और इसका कोई हल निकल आता है, तो इससे हिमालय की सुरक्षा के साथ-साथ दोनों तरफ से सैन्य दबाव घटेगा। इससे प्रकृति और पर्यावरण का संकट भी कम होगा।
हाल के वर्षों में हिमालय क्षेत्र में भी अप्रत्याशित वर्षा, बाढ़ और भूखलन का संकट लगातार बढ़ा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिस तरह से हिमालय में हिमनद (ग्लेशियर) पिघल रहे हैं, आने वाले समय में व्यापक जल संकट की आशंका जताई जा रही है। इस पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंथन लाजिम है। हिमालय और तिब्बत को एक दूसरे से अलग कर देखा जाना संभव नहीं है। यह सच है कि भारत जब भी हिमालय की बात करता है, तो वह चीन को नागवार गुजरता है। उसकी भृकुटी तन जाती है। इसका कारण तिब्बत है जो अब अंतरराष्ट्रीय सवाल बन चुका है और अमेरिका, ब्रिटेन जैसे अनेक राष्ट्र तिब्बत को लेकर अपनी चिंता जता चुके हैं।
भारत का तिब्बत से आध्यात्मिक रिश्ता बहुत पुराना रहा है और आज भी बना हुआ है। तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु परम पावन दलाई लामा भारत में ही रहकर अपनी साधना में जुटे हैं और भारत को गुरुदेश बताते हैं। यही नहीं, वह तिब्बत संकट का हल महात्मा गांधी के मूल मंत्र अहिंसा के जरिए चाहते हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से लेकर डॉ राममनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश समेत कई बड़े नेताओं और भारत के लोगों की हमदर्दी तिब्बत के साथ रही है। वहां लाखों की संख्या में तिब्बती भाई-बहन चीनी अत्याचार के शिकार हैं। हजारों तिब्बती भारत की शरण में हैं। वैसे यह निर्वासित तिब्बती बंधु आज की तारीख में दुनिया के कई देशों में बसे हैं और अपनी आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ आजादी के लिए संघर्षरत हैं।वे हिमालय व तिब्बत के सवाल को पूरी दुनिया में बार-बार उठा रहे। दूसरी तरफ चीन की तानाशाही और दमनकारी नीतियों के कारण एक देश का अस्तित्व खतरे में है। उसकी पहचान धीरे-धीरे मिट रही है। तिब्बत की सभ्यता, संस्कृति और जनसंख्या को मिटाने का हर संभव प्रयास जारी है।
तिब्बत एक ऐसे क्षेत्र में स्थित है जिसे ट्रांस हिमालय कहा जाता है। जो मुख्य रूप से तिब्बत का पठार है और जिसे भारत में हिमालय के पठार के नाम से जाना जाता है। यह दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पूर्वी एशिया का सबसे ऊंचा विशाल पठार है। मालूम हो कि इस पठार पर होने वाली प्रकृति विरोधी तमाम गतिविधियों का प्रभाव सीधा भारत पर पड़ता है। लिहाजा इस क्षेत्र से भारत के हित सीधे तौर पर जुड़े हैं। यही कारण है कि हिमालय की खतरनाक गतिविधियों पर भारत की पैनी दृष्टि जरूरी है।
यह क्षेत्र पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है लेकिन चीनी गतिविधियों के कारण हिमालय क्षेत्र में खतरे से इनकार नहीं किया जा सकता। जिस तरह से इस क्षेत्र को चीन ने खतरनाक सैन्य परीक्षण स्थल, परमाणु कचरे के लिए डंपिंग यार्ड बनाया है, उससे यहां रेडियोधर्मिता का खतरा बढ़ गया है। साथ ही चीन अपनी सैनिक गतिविधियों के लिए हवाई पट्टी, रेल लाइन और सड़कों के जाल के साथ-साथ सैन्य स्टेशन बनाने के लिए लगातार अंधाधुंध पहाड़ों और वन की कटाई कर रहा है। इसके नतीजे सामने आने लगे हैं। मालूम हो कि हिमालय की गोद में स्थित तिब्बत का पठार एशिया का सबसे बड़ा जलमीनार है। यह सात नदियों का उद्गम क्षेत्र है। स्वच्छ पानी का सबसे बड़ा स्रोत है। जिस पर लगभग दो अरब लोगों की निर्भरता है। जिस तरह से जलस्रोत को लेकर चारों तरफ संकट शुरू हो गया है यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2050 तक जल संकट अपने चरम पर पहुंच जाएगा और जलस्रोत का संकट उत्पन्न होगा। यह मामला काफी गंभीर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस ओर दुनिया का ध्यान खींच सकते हैं। भारत चाहे तो चीन पर एक बड़ा दबाव अंतरराष्ट्रीय मंच पर बना सकता है। यह एक संकट को हल करने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल हो सकती है।
हिमालय सिर्फ जल का ही बड़ा स्रोत नहीं। यह साफ हवा, मिट्टी एवं जैव संपदा का बड़ा स्रोत है। लिहाजा इसकी उपेक्षा भविष्य में भारत के लिए काफी खतरनाक हो सकती है। मालूम हो कि भारत का 16.3 फीसद क्षेत्र हिमालय से जुड़ा है। भारत के कई राज्य इसकी गोद में हैं। जिसके कारण हिमालयी क्षेत्र की तमाम गतिविधियों का प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस पूरे भूभाग पर पड़ता है और कालांतर में शेष क्षेत्र भी अछूता नहीं रहता।
कुछ साल पहले हिमालयी क्षेत्र लगातार भूकंपीय झटकों का केंद्र बना था। इससे आसपास के भी कई देश प्रभावित हुए थे। इसे पर्यावरण के जानकारों ने हिमालय के प्राकृतिक असंतुलन से जोड़कर देखते हुए एक बड़े खतरे की घंटी बताया था। मालूम हो कि भारत की जनता लगातार हिमालय और तिब्बत के संकट को लेकर मुखर रही है लेकिन सरकार चीन के भय से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मुखर होकर इस सवाल को उठाने से परहेज करती रही है। जी-20 का शिखर सम्मेलन भारत के पास तिब्बत और हिमालय का सवाल दुनिया के सामने उठाने का स्वर्णिम अवसर है। देखना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी-20 के शिखर सम्मेलन में इस पर कुछ बोलने का साहस करते हैं या चुप्पी बनी रहती है।