— रवींद्रनाथ श्रीवास्तव “परिचय दास” —
भाषा का अधिग्रहण एक गतिशील व जटिल कार्य है। सामाजिक व पारिवारिक संदर्भ में देखें तो भाषा का अधिग्रहण सांस्कृतिक मान्यताओं, उम्मीदों, मूल्यों के रूप में आता है। भाषा का अधिग्रहण सांस्कृतिक धारणात्मक प्रक्रिया का प्रारंभ है।
भाषा के प्रवाह को संस्कृति के सम्मान के रूप में लिया जा सकता है। हिन्दी व भारतीय भाषाओं को प्राथमिक तौर पर तीन अंतर्निहित अर्थों में ले सकते हैं : आवाज, अभिव्यक्ति व प्रवाह। भाषा संस्कृति की मौखिक व लिखित अभिव्यक्ति है। शब्दों से युक्त भाषा के साथ विचार, कस्टम, समुदायों के विकास को संस्कृति का आधार कहा जा सकता है।
पराधीनता को तोड़ने का एक बड़ा आधार भाषा है, जिसे हम दैनंदिन उपयोग में लाते हैं। यदि अपनी भाषा में अपनी ही बात कह पाने की सामर्थ्य न आ पाए तो स्वतंत्रता के बाद भी प्रश्नचिह्न बना रहेगा कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ क्या? भाषा केवल संचरण का हेतु नहीं, आत्मीयता का सेतु भी है। भाषा के माध्यम से सृजन प्रक्रिया, स्रोत एवं संरचना के आधारों का पता चलता है। भारतीय भाषाओं के प्रयोग से अपनी धरती के रचनात्मक उत्स, कलात्मक तत्त्व, कल्पनाशक्ति और मूल्य सृजित होते हैं। यहीं विकेंद्रीयता, विविधता, अस्मिता, स्थानीय स्वायत्तता, वैश्विकता से जुड़ाव व राष्ट्रीय मूलधारा में गति भी उभर कर आती है।
मानविकी, विज्ञान, अभियंत्रण, चिकित्सा, प्रबंधन, प्रशासन, वित्त, शिक्षा आदि से जुड़े विषयों पर हिन्दी और भारतीय भाषाओं में मौलिक विचारों का प्रकाशन दुर्लभ लग सकता है। अकादमिक विमर्श भी भारतीय भाषाओं में कम मिल सकते हैं। सच यह है कि इन पर मंथन की आवश्यकता है। हमारी भाषा में साहित्य के अलावा विचार व बहस भी उच्च कोटि के आने चाहिए ताकि हमें ज्ञान- संपदा मिले व हम अपनी भाषा-संप्रेषण में और अग्रणी हों। महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि हम अपने विचारों को किसी भी भाषा में व्यक्त कर लें।
चुनौती यह है कि जिस भाषा का चयन हम अपनी अभिव्यक्ति के लिए करते हैं, उसके माध्यम से अपने देश की जनता को, अपनी प्राकृतिक व सामाजिक परिस्थितियों के साथ ही समस्त विश्व के संदर्भ को किस तरह परिभाषित करते हैं। हिन्दी व भारतीय भाषाओं के संदर्भ में कह सकते हैं कि विषयवस्तु से भी बढ़कर भाषा का संगीत हमें वहां मिलता है। बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से वह हमें ऐसी दृष्टि देती है, जिसका अपना सौंदर्य है। संस्कृति इतिहास का उत्पाद है, साथ ही इतिहास को व्यक्त करने का माध्यम भी। यहां व्यक्त करने का ध्वन्यर्थ प्रतीकात्मक है तथा स्मृतिपरक भी। हमारी अपनी भाषा में स्मृतियां हैं। अंग्रेजी में संप्रेषण हो सकता है, बखूबी व धड़ल्ले से हो रहा है किंतु स्मृतिहीनता व अजनबीयत के साथ। इसका अर्थ यह नहीं कि विश्व की अन्य अनेक भाषाओं से अछूता रहा जाए। जितनी भाषाएं आएं, वह श्रेयस्कर हैं।
भाषाओं से समृद्ध होना, अपने स्व को समृद्ध करना व सामाजिक परिवेश को बेहतरीन बनाना है। सबसे बारीक व सघन अभिव्यक्ति अपनी भाषा में ही संभव है। इसलिए हिन्दी का प्रयोग स्मृति का खूबसूरत उपयोग है। हमारे देश की वास्तविक बेचैनी तो भारतीय भाषाओं में ही आ सकती है। भारतीय भाषाओं में ही किसानों की संस्कृति समाहित है। कई ऐसे देश हैं, जो अभिव्यक्ति व शिक्षा दोनों के लिए अपनी भाषाओं का प्रयोग करते हैं, जैसे जर्मनी, जापान, चीन, फ्रांस आदि। वे उपनिवेशवादी मानसिकता को सांस्कृतिक रूप से विच्छिन्न कर चुके हैं।
भाषाओं का वैज्ञानिक तथ्य यह है कि उनका प्रयोग होते रहने से ही उनकी जीवंतता बनी रहती है। यह अच्छा है कि इस समय केंद्र में विराजमान सत्ता हिन्दी व भारतीय भाषाओं के प्रयोग में रुचि दिखा रही है। देशी व विदेशी यात्राओं में भी हमारा शीर्ष नेतृत्व हिन्दी का प्रयोग कर रहा है और चाहता है कि हिन्दी आगे बढ़े। इसके बरक्स यह बहुत आवश्यक है कि संघ लोक सेवा आयोग, मंत्रालयों, सार्वजनिक स्थलों व विचार विमर्श के केंद्रों में भी हिन्दी का बेहतर प्रयोग हो। केवल अनुवाद व राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास उसे सीमित कर देगा। उसमें राष्ट्र के आलोड़न की क्षमता है। इतने सारे अखबार, पत्रिकाएं, चैनल, प्रसार माध्यम हिन्दी में हैं। उनका सटीक व ऊर्जापूर्ण इस्तेमाल होना चाहिए। उनसे रोजगार के रास्ते तलाशे जाने चाहिए।
फिल्मों का निर्माण सबसे अधिक हिन्दी में ही होता है। दुर्भाग्य यह है कि हिन्दी फिल्मों के निर्माता, निर्देशक, कलाकार हिन्दी का उपयोग करके धन तो अर्जित करते हैं किंतु हिन्दी बरतते नहीं। उनका कोई इंटरव्यू ले तो वे चाहेंगे कि बात अंग्रेजी में ही हो। भले ही अपनी फिल्मों का प्रचार वे हिंदी में करते हों। इस दोहरेपन से उन्हें मुक्ति पानी होगी। वे दिल से यदि हिन्दी व भारतीय भाषाओं को बरतें तो यह भारतीय जनता के लिए बड़ा उदाहरण होगा।
हमारी अपनी भाषा में अनुभव, स्मृति व विचार का अमूर्त नर्तन होता है। इसीलिए जब हम हिन्दी या भारतीय भाषा का प्रयोग करते हैं तो उसमें आवेगात्मकता व तन्मयता दोनों होते हैं। सहजवृत्ति के संबंध के साथ-साथ सृजनशीलता व स्वतंत्रता की गतिशीलता वहां होती है। साहित्य के अलावा अन्य विचारपरक अनुशासनों में हिन्दी बेहतर हो, उसके प्रयोग के लिए राजनीतिक संकल्प शक्ति हो, उसे द्वितीयक (सेकेंडरी) होने का दंश न झेलना पड़े, हिन्दी की उपभाषाओं का बराबर विकास हो, उप भाषाएं भी भाषाओं की तरह ही सम्मान की अधिकारिणी बनें तो कोई वजह नहीं कि हिन्दी को अपना प्राप्य न मिले। हिन्दी सबसे समता रखती है, यही बंधुता उसे आगे ले जाएगी।
सच पूछिए तो हिन्दी को पुनर्जागरण की आवश्यकता है, जिसे नई व्यवस्था व जनता मिलकर लाए। सत्ता के संकल्प, भारतीय भाषाओं को सही तरीके से लागू करने के भाव तथा जनता की भारतीय भाषाओं के प्रति स्मृतिशील सम्पत्ति के आधार पर भाषा के नए यथार्थ की रचना हो सकती है। हिन्दी को राजभाषा दर्शाते हुए मंत्रालयों में आंकड़ों, संख्याओं व सांख्यिकी से परे जाना चाहिए। उसे वास्तविक, शक्तिशालिनी, समन्वयकारिणी व बहुलता को समेटने वाली भाषा की वृहत्तरता को धारण करना उचित होगा। इससे वह इस देश की जनता के अस्तित्व के मर्म तक पहुंचेगी तथा अन्य के साथ संपर्क का बड़ा मंच भी बनी रहेगी। हिन्दी व भारतीय भाषाओं को वास्तविक बौद्धिक वातावरण का कारक बनना होगा, जिसमें सामाजिक क्रियाकलाप व अनगढ़ अनुभव शामिल होंगे तथा समकालीन जटिलताओं व परंपरा दोनों को समाहित करने का यथार्थ। हिन्दी रसोई की भाषा मात्र नहीं। उसमें सभी विचार, प्रबंधन, प्रशासन, ज्ञान-विज्ञान समेटने की क्षमता है। उसमें यह भी क्षमता है कि वह आधारहीनता, परायापन, बेगानापन व अलगाव को समाप्त कर दे। वह देश को एक करने की क्षमता रखती है। सबको जोड़ने की अपनी विरासत को दृष्टिगत रखते हुए, अपनी बहुलपरकता के आधार को पुष्ट करते हुए वह शासन-प्रशासन व बौद्धिकता: सबमें उचित स्थान व गतिशीलता प्राप्त करेगी तथा नए सिरे से भाषाई पुनर्जागरण होगा, ऐसा विश्वास है।