भारतीय ज्ञान परंपरा अतीत की कैदी नहीं है

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Indian Culture

— शंभूनाथ —

भारत, भारतीय संस्कृति और दर्शन पर पहले भी चर्चा होती थी। लेकिन भारतीय ज्ञान परंपरा पर चर्चा कई बार अपने दरवाजे-खिड़कियां बंद करके होती है। निश्चय ही भारतीय मस्तिष्क का ‘डि-कोलोनाइजेशन’ जरूरी है, क्योंकि हमारे देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों पर यूरोपीय बौद्धिक फैसलों का कुछ ज्यादा असर रहा है। फिर भी भारतीय ज्ञान परंपरा पर चर्चा का अर्थ न अतीत का कैदी होना है और न पश्चिमी, लैटिन अमरीकी और अफ्रीकी देशों की कला-साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों की तरफ से आंखें फेर लेना है।

अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ में ज्ञान को ‘वर्धमान वृक्ष’ कहा है। जो बुद्धिजीवी दो-चार पुस्तकें पढ़कर ज्ञान बघारने लगते हैं, उन्हें ज्यादा छलकने वाली अधजल गगरी समझना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा प्राचीन अतीत में ठहरी हुई एक पूर्व-निर्धारित परंपरा है जिसमें नवजागरण, छायावाद और बाद के हिंदी साहित्य के लिए ही नहीं, 1200 सालों के भक्ति आंदोलन के लिए भी जगह नहीं है, क्योंकि इन जगहों पर विद्रोह और नवोन्मेष हैं। भारतीय ज्ञान संसार के बारे में इस तरह की हर संकुचित सोच उसपर एक बड़ा आघात है।

अत: इन प्रश्नों पर सोचने की जरूरत है, क्या भारत की एक ही ज्ञान परंपरा है? क्या भारत की ज्ञान परंपरा का अन्य देशों की ज्ञान परंपराओं से आदान-प्रदान का कोई संबंध नहीं है? क्या दुनिया में सिर्फ वस्तुओं का आना-जाना रहा है, विचारों का नहीं?

यदि हम भारत के सांस्कृतिक इतिहास पर गौर करें, जिस पहले तथ्य से हमारा सामना होता है वह है, हमारे देश में एक या दो ज्ञान परंपराएं नहीं हैं। शास्त्र और लोक दोनों स्तरों पर अनगिनत ज्ञान परंपराएं हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना भारत को समझने का दावा व्यर्थ है।

छायावाद युग में पंत एक भिन्न रास्ता चुनते हैं। उन्हें अतीत आकर्षित नहीं करता। वे अतीत को गुदड़ी कहते हैं। उसी युग में महाराष्ट्र में अंबेडकर का दलित चिंतन उभरता है, जिसकी प्रेरणा बुद्ध हैं। यहां एक भिन्न ज्ञान परंपरा से ‘कनेक्शन’ है।

भारतीय ज्ञान परंपरा आर्यावर्त्त-केंद्रित नहीं है, क्योंकि हमारे देश में दक्षिण भारत भी है। कहना न होगा कि दक्षिण भारत में ज्ञान परंपरा के कई अलग स्रोत भी हैं, बल्कि उत्तर भारत में फैला भक्ति आंदोलन एक द्रविड़ उपज है।

भारत की ज्ञान परंपराओं से संपर्क के बावजूद पिछले लगभग दो सौ सालों के आधुनिक भारतीय साहित्य को अतीत की अनुकृति नहीं कहा जा सकता, जिस तरह उसे पश्चिम की अनुकृति भी नहीं कहा जा सकता। यह समय नवोन्मेषों और स्वतंत्रता की आवाजों से गूँजता रहा था, जिनका साथ आम भारतीयों ने दिया था। हम जिसे प्रेमचंद या छायावाद युग कहते हैं, वह अतीत की सैकड़ों जंजीरों के टूटने का युग रहा है।

निराला लिखते हैं, ‘शेली की तरह भारतीय कवि भी अपने शब्दों की हिलोर में विश्व वेदना के तार झंकृत कर देना चाहते हैं।’ (कवि और कविता, 1924)। वे यह भी कहते हैं ‘ज्ञान का शिखर वेदांत है, विश्व मैत्री इसकी शिक्षा है।’ (साहित्य की समतल भूमि, 1926)। वे पश्चिम और देश के सांस्कृतिक अतीत दोनों के प्रति बौद्धिक खुलेपन का परिचय देते हैं।

20वीं सदी का पूर्वार्ध हमारे देश का सबसे अधिक आंदोलित समय था। ऐसे दौर के कुछ संकीर्ण विचारों से उद्वेलित होकर निराला ने कहा था, ‘जब कोई एकदेशीय दृष्टि से किसी गंभीर प्रश्न पर रायजनी करता है, तब हृदय को कड़ी चोट पहुंचती है। …एकदेशीयता स्वरूपत: संकीर्णता है।’ (वही)। निराला का आक्रमण राष्ट्रीय भावना पर नहीं है, एकरेखीय राष्ट्रीय सोच पर है जो दीवारें खड़ी करती है। ज्ञान दीवारें नहीं बनाता, शुद्धतावाद और ज्ञान दोनों एक साथ संभव नहीं है!

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