दुनिया की पॉंचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था मगर प्रतिव्यक्ति आय में फिसड्डी

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— डॉ. लखन चौधरी —

भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में सातवें स्थान पर और जनसंख्या में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत अब पहले स्थान पर है। केवल 2.4 फीसद क्षेत्रफल के साथ भारत में विश्व की 17 फीसदी आबादी रहती है।

1991 के बाद से भारत में तेज आर्थिक प्रगति हुई है, जब उदारीकरण, बाजारीकरण, निजीकरण तथा वैश्विकरण के साथ आर्थिक सुधार की नीतियां लागू की गई हैं। लेकिन देश के मूलभूत बुनियादी आर्थिक ढांचे में तेज प्रगति के बावजूद देश का एक बड़ा तबका अब भी नाखुश और इसके फायदों से वंचित है।

1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था तब इसकी जीडीपी या कुल आय 2.7 लाख करोड़ रुपये और जनसंख्या 34 करोड़ थी। 2022 में देश की जीडीपी लगभग 235 लाख करोड़ रुपये और जनसंख्या 1.4 अरब से अधिक है। भारतीय अर्थव्यवस्था के 2031 तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की उम्मीद है। दुनिया के सामने भारतीय अर्थव्यवस्था का कद बढ़ा है और भारत एक ‘महाशक्ति’ के रूप में उभर रहा है। 1947 में भारत की स्वतंत्रता उसके आर्थिक इतिहास का सबसे बड़ा कदम था। भारत की साक्षरता दर 1947 में लगभग 12 प्रतिशत से बढ़कर आज 80 प्रतिशत हो गई है। आजादी के समय खाद्यान्न की कमी का सामना करने वाला भारत अब आत्मनिर्भर भारत बनकर दुनियाभर के देशों में खाद्यान्न निर्यात कर रहा है। हरित क्रांति के परिणामस्वरूप रिकॉर्ड अनाज उत्पादन हो रहा है। भारत अब दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता बन चुका है। चीनी का दूसरा और कपास का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। 1970 के श्वेतक्रांति के बाद दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है।

सड़क और राजमार्ग निर्माण, हवाई अड्डों और बंदरगाहों का विस्तार आर्थिक गतिशीलता बढ़ाने के लिए किया गया है। भारतीय रेलवे अब दुनिया के सबसे बड़े रेलवे नेटवर्कों में से एक है, जिसमें 1,21,520 किमी ट्रैक और 7,305 स्टेशन शामिल हैं। 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का शुभारंभ किया, जो भारत में दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता के चार प्रमुख शहरों को जोड़ने वाली सबसे बड़ी राजमार्ग परियोजना है। 1947 में देश के राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लंबाई 24,000 किमी थी जो अब 1,40,115 किमी हो गई है। आज भारतीय सड़क नेटवर्क दुनिया में सबसे बड़ा बन गया है। 1950 में सिर्फ 3,061 गांवों में बिजली उपलब्ध थी, जबकि 2020 तक 5,97,376 गांवों में विद्युतीकरण हो चुका है।

देश के डिजिटली विकास अस्सी के दशक के मध्य में बड़े पैमाने पर कम्प्यूटरीकरण के आगमन से आरंभ हो चुके हैं, जो कि स्वतंत्रता के बाद के महत्वपूर्ण सकारात्मक विकासों में से एक है। भारत आज एक विशाल आईटी शक्ति के रूप में जाना जाता है। वर्ष 1991 में अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण करके औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रणाली को समाप्त करते हुए अर्थव्यवस्था को निजी क्षेत्र की अधिक भागीदारी के साथ-साथ विदेशी निवेश के लिए खोला गया। तात्पर्य यह है कि 1991 के सुधारों के कारण वैश्विक जीडीपी में भारत की रैंकिंग तेजी से बढ़ी है।

किसी अर्थव्यवस्था का उत्थान और पतन काफी हद तक उसके वित्तीय क्षेत्र के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। बैंकों का बढ़ता नेटवर्क बताता है कि देश के विकास में बैंकिग क्षेत्र की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती जा रही है। 1947 में जहां 664 निजी बैंकों की लगभग 5000 शाखाएं थीं, आज 12 सरकारी, 22 निजी, 43 क्षेत्रीय ग्रामीण और 46 विदेशी बैंकों की लगभग 1.40 हजार शाखाएं कार्यरत हैं। फार्मास्यूटिकल्स सेक्टर में भारत अब एक प्रमुख उत्पादक है। इंजीनियरिंग और इलेक्ट्रिकल मशीनरी में देश नए वैश्विक बेंचमार्क छू रहा है। 60 के दशक में सेवा क्षेत्र में कामकाजी आबादी केवल 4 फीसदी थी जो अब लगभग 40 फीसदी से अधिक है।

आजादी के इन 75 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है, लेकिन हकीकत यह भी है कि बेरोजगारी दर पिछली आधी सदी 45-50 साल के चरम पर है। विकास दर के मामले में भारत दुनियाभर में अग्रणी है, लेकिन प्रतिव्यक्ति आय ढाई हजार डॉलर से नीचे है। ऑक्सफैम सहित कई एजेंसियों की रिपोर्ट बताती है कि भारत के सबसे अमीर एक फीसद लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40 फीसदी से अधिक संपत्ति है, जबकि देश की 50 फीसद आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का मात्र तीन फीसदी हिस्सा है।

2022 में 88 फीसद भारतीय अरबपतियों की संपत्ति दुनिया के रईसों से दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। देश के 166 अरबपतियों में से मात्र 21 की संपत्ति 70 करोड़ भारतीयों की कुल संपत्ति से अधिक है।

तात्पर्य यह है कि दुनिया की तमाम विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था में आय एवं धन-संपत्ति की असमानता तेजी से बढ़ रही है, जो कि बेहद चिंता की बात है।

यह सच है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 5-6 फीसद के आसपास बनी हुई है, जो दुनिया भर में सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में चिन्हित है। लेकिन चिंता की बात यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिका और चीन की हिस्सेदारी या भागीदारी लगभग 45 फीसदी है, जबकि भारत की हिस्सेदारी मात्र तीन फीसद है।

किसी भी अर्थव्यवस्था के विकास के चार महत्वपूर्ण सूत्रधार या चालक अथवा अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने वाले इंजन होते हैं। उपभोक्ता यानी निजी खपत, निवेशक यानी पूंजी निवेश, सरकार यानी सरकारी खर्च और निर्यात। इस समय दो इंजन निर्यात और सरकारी खर्च, कोविड-19 के समय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में मददगार तो रहे हैं, लेकिन दो प्रमुख इंजन पूंजी निवेश और निजी खपत की रफ्तार बहुत सुस्त है। इसलिए सरकार को पूंजी निवेश और निजी खपत पर काम करने की जरूरत है। इस समय राज्यों और केंद्र का संयुक्त राजकोषीय घाटा जीडीपी के 90 फीसदी से ऊपर बना हुआ है।

बढ़ती बेरोजगारी और गिरती विकास दर की चिंताओं एवं चुनौतियों से भारतीय अर्थव्यवस्था उबर नहीं पा रही है। अब तो विकास दर की चिंता उन पुराने दिनों की याद दिलाने लगी है, जब अर्थव्यवस्था की निम्न विकास दर को ‘हिंदू विकास दर’ कहा जाने लगा था। इतिहास में भारतीय अर्थव्यवस्था की 1950 से लेकर 1980 तक की निम्न आर्थिक वृद्धि दर को ‘हिंदू विकास दर’ कहा गया है या कहा जाता है।

बहरहाल, पड़ोसी देश बांग्लादेश प्रतिव्यक्ति आय एवं विकास दर के मामले में भारत से आगे निकल गया है। बांग्लादेश ने प्रतिव्यक्ति आय के मामले में तगड़ा झटका देकर सिद्ध कर दिया है कि विकास के लिए जाति-धर्म एवं हिन्दुत्व की राजनीति भारत को अब भारी पड़ने लगी है।

बांग्लादेश ने वित्तवर्ष 2020-2021 में भारत के मुकाबले ज्यादा तरक्की की है। इस वक्त बांग्लादेश की प्रतिव्यक्ति आय 2,064 डॉलर से बढ़कर 2,227 डॉलर हो गई है। बांग्लादेश की प्रतिव्यक्ति आय अब भारत की प्रतिव्यक्ति आय 1947 डॉलर से 280 डॉलर अधिक हो गई है। इस दृष्टि से बांग्लादेश की विकास दर 9 प्रतिशत बैठती है, जो सार्क देशों में मालदीव के बाद सबसे अधिक है। अध्ययन बताते हैं कि 2007 में बांग्लादेश की प्रतिव्यक्ति आय भारत की तुलना में आधी थी, और अब भारत की तुलना में लगभग 500 डॉलर तक अधिक हो गई है। इस लिहाज से हमारे पड़ोसी देश मालदीव, श्रीलंका, भूटान और बांग्लादेश हमसे अधिक संवृद्ध एवं सम्पन्न हो गये हैं।

उदारीकरण की नई आर्थिक नीति को लागू हुए तीन दशक पूरे हो गये। इन तीन दशकों में भारतीय अर्थव्यवथा के तीनों प्रमुख क्षेत्रों (कृषि, उद्योग एवं सेवा) में उल्लेखनीय तरक्की हुई है। कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में भारत आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुका है। वायरलेस दूरसंचार के क्षेत्र में देश की उपलब्धि इतनी उल्लेखनीय है कि दुनिया की सबसे सस्ती दरों पर यह सुविधा उपलब्ध है। दुनिया का सबसे कम लागत वाला सुपर कम्प्युटर भारत ने तैयार कर लिया है।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1991 के ऐतिहासिक बजट के 30 साल पूरा होने पर कहा है कि कोरोना महामारी के कारण पैदा हुए हालात के मद्देनजर भारतीय अर्थव्यवथा के लिए आगे का रास्ता 1991 की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्णं है। आर्थिक उदारीकरण की बुनियाद माने जाने वाले बजट के 30 साल पूरे होने पर उन्होंने कहा कि ‘1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण सुधारों की शुरुआत हुई थी और देश की आर्थिक नीति के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त हुआ था। पिछले तीन दशकों में देश की अर्थव्यवस्था तीन हजार अरब डॉलर की हो गई और यह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। इस अवधि में करीब 30 करोड़ भारतीय नागरिक गरीबी से बाहर निकले, करोड़ों नयी नौकरियों का सृजन हुआ, सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ने से स्वतंत्र उपक्रमों की भावना शुरू हुई।

राष्ट्र निर्माण के नाम पर महंगाई का बोझ एवं जिम्मेदारी मध्यमवर्ग के कंधे पर, इसके बावजूद पिछले 9 साल में भारत पर कर्ज का बोझ 181 फीसदी बढ़ा है।

महंगाई लगातार मध्यमवर्गीय परिवारों के सामने जीवन-यापन की नई-नई चुनौतियां खड़ी कर रही है। कोरोना कालखंड के बाद से महंगाई न सिर्फ मध्यमवर्गीय परिवारों की आर्थिक स्थिति को खोखला कर रही है, बल्कि इन करोड़ों मध्यमवर्गीय परिवारों का ’मध्यमवर्गीय दर्जा’ ही खत्म कर चुकी है। नये-नये अनुसंधान बता रहे हैं कि कोरोना कालखंड में उपजी महंगाई की मार से देश के एक-तिहाई मध्यमवर्गीय परिवार ’मध्यमवर्ग से निम्नवर्ग’ में शिफ्ट हो चुके हैं।

देश के 14 प्रधानमंत्रियों ने मिलकर 67 साल में कुल 55 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लिया था। मोदी सरकार ने पिछले 9 साल में कर्जा तिगुना कर दिया है। 100 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा कर्ज मात्र 9 साल में ले लिया है।

2014 में सरकार पर कुल कर्ज 55 लाख करोड़ रुपए था, जो अब बढ़कर 155 लाख करोड़ हो गया है। भारत सरकार की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक 31 मार्च 2023 तक भारत सरकार पर 155 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। अगले साल मार्च तक ये बढ़कर 172 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। इस हिसाब से देखें तो पिछले 9 साल में देश पर 181 फीसदी कर्ज बढ़ा है।

2004 में जब मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो भारत सरकार पर कुल कर्ज 17 लाख करोड़ रुपए था। 2014 तक तीन गुना से ज्यादा बढ़कर ये 55 लाख करोड़ रुपए हो गया था।

अब 2023 में हर भारतीय पर एक लाख रुपए से ज्यादा का कर्ज है। इसी तरह अब अगर विदेशी कर्ज की बात करें तो 2014-15 में भारत पर विदेशी कर्ज 31 लाख करोड़ रुपए था, जो 2023 में बढ़कर 50 लाख करोड़ रुपए हो गया है। 2014 के बाद से अब तक मोदी सरकार ने विदेश से कुल 19 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लिया है, जबकि 2005 से 2013 तक 9 साल में पिछली सरकार ने करीब 21 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज लिया था।

सवाल उठता है कि भारत सरकार इतना पैसा कर्ज लेकर कहां खर्च कर रही है? इस पर सरकार का कहना है कि कई तरह की सब्सिडी दे रही है। 80 करोड़ लोगों को हर महीने मुफ्त अनाज। करीब 10 करोड़ महिलाओं को उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त गैस सिलेंडर। करीब 9 करोड़ किसानों को सालाना 6 हजार रुपए इत्यादि। लेकिन बात यह है कि देश पर कर्ज बढ़ने से महंगाई बढ़ती है।

आज ’महंगाई और विकास-दर के बीच सन्तुलन’ बनाना सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार जब तक न्यूनतम प्रतिव्यक्ति आय, बेरोजगारी, महंगाई, लगातार बढ़ती और गहराती असमानता, जलवायु परिवर्तन जैसे ज्वलंत मसलों पर ईमानदारी से फोकस नहीं करेगी, तब तक भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थायित्व असंभव है।

पिछले दिनों वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी ने सही कहा कि “देश में सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को खत्म किए बिना आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य हासिल कर पाना संभव नहीं है। कृषि, ग्रामीण भारत और आदिवासी विकास पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। सरकारी नीति का मकसद होना चाहिए कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान बढ़ाकर 25 फीसदी करना चाहिए, जो इस समय मात्र 12 फीसदी है।”

दरअसल, किसी देश की विकास रणनीति की सफलता उसकी दीर्घकालीन योजनाओं, नीतियों एवं कार्यक्रमों पर निर्भर करती है। केन्द्र सरकार की तरह राज्य सरकारों ने भी विकास को केवल आर्थिक पैमाने पर तौलने की भूल की और यह समझ लिया कि प्रगति महज आंकड़ों की कलाबाजी है। हकीकत यह है कि विकास का फलक आर्थिक से अधिक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय होता है। विकास, प्रगति एवं तरक्की केवल आंकड़ों का खेल नहीं है। नीतियां जब तक जाति-धर्म के पैमाने से बाहर नहीं आती हैं, तब तक विकास मात्र ढकोसला बन कर रह जाता है।

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