— अशोक शरण —
पारंपरिक कारीगरों, शिल्पकारों की भूमिका हमारे समाज में महत्वपूर्ण रही है परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि विकास की अवधारणा में जितना महत्व इनको दिया जाना चाहिए था वह नहीं दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में विकास की मिश्रित अर्थव्यवस्था का जो मॉडल अपनाया गया उसकी धुरी बड़े-बड़े उद्योग बनते गए जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों की भूमिका महत्वपूर्ण बनती गई। मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री रहते हुए तत्कालीन अर्थव्यवस्था को 1991 में वैश्वीकरण का एक बड़ा आधार मिला जिसकी वजह से देश की आर्थिक नीतियों, परिस्थितियों में बड़ा बदलाव आया।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि विकास के इस दौर में पारंपरिक कारीगर, शिल्पकार बिल्कुल हाशिये पर चले गए, पर उनके सामने आजीविका और पारंपरिक शिल्प को बचाये रखने की चुनौतियां बढ़ती गईं। इसके कई कारण रहे जिनमें मुख्य रूप से पारंपरिक एवं विरासत शिल्प की तुलना में मशीन द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादित वस्तुओं को कई उपभोक्ता प्राथमिकता देने लगे, हमारी शिक्षा प्रणाली में पारंपरिक और विरासत कौशल की शिक्षा को अधिक महत्व नहीं दिया गया। कई विरासत शिल्प अद्वितीय होने के बावजूद उचित मान्यता नहीं पा सके, कॉर्पोरेट सेक्टर की तुलना में इस सेक्टर को पर्याप्त सरकारी बजट उपलब्ध नहीं हो पाया।
कोविड महामारी के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा उद्योगों के लिए आर्थिक पैकेज घोषित किये गए परंतु कारीगरों, शिल्पकारों के लिए बहुत कुछ नहीं मिल पाया। उपर्युक्त बिंदुओं पर ध्यान दिया जाए तो पारंपरिक एवं विरासत शिल्प की मांग भी आधुनिक डिजाइन के साथ बढ़ सकती है बशर्ते उनकी पहुंच बाजार तक हो सके और सरकार से उन्हें पर्याप्त आर्थिक और नीतिगत संरक्षण प्राप्त हो।
सरकारें आती जाती रहती हैं पर समस्या यह है कि सरकार द्वारा घोषित योजनाओं का जीवन कितना होता है और जिस उद्देश्य से ऐसी योजनाएं बनायी जाती है वे उसमें खरी उतरती भी हैं कि नहीं। प्रधानमंत्री रोजगार योजना वर्ष 1993 में शिक्षित बेरोजगारों के लिए बनायी गयी थी जिसमें दो लाख रु का लोन दिया जाता था। यह कार्यक्रम ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा चलाया गया। एक और योजना ग्रामीण रोजगार सृजन कार्यक्रम खादी ग्रामोद्योग आयोग, सूक्ष्म, लघु, माध्यम उद्यम मंत्रालय द्वारा चलाया जाता था। सरकार ने वर्ष 2008 में दोनों योजनाओं को मिलाकर एक नयी योजना – प्रधानमंत्री स्वरोजगार सृजन कार्यक्रम घोषित किया। इसकी नोडल एजेंसी खादी ग्रामोद्योग आयोग को बनाया गया जिसे राज्य स्तर पर खादी ग्रामोद्योग बोर्ड और जिला उद्योग केंद्र क्रियान्वयन कर रहे हैं। इस योजना में लोन पर दी जाने वाली सबसिडी शहरी क्षेत्र 15 फीसद की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र 25 फीसद के साथ-साथ महिलाओं और अन्य वर्गों के लिए काफी अधिक है।
अब प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना 17 सितंबर से लागू की गयी है जिसका प्रधानमंत्री ने अपने जन्मदिन और भगवान विश्वकर्मा जयंती पर उदघाटन किया। इसकी ऋण सहायता राशि भी प्रधानमंत्री रोजगार योजना की भांति दो लाख रु है जिसे पांच प्रतिशत की ब्याज दर पर शिल्पियों को दिया जाएगा। योजना का नाम बदल-बदल कर परोसना सरकारों की मजबूरी है क्योंकि उन्हें अपना काम भी दिखाना होता है। समय बताएगा कि क्या पांच वर्षों में 13000 करोड़ रुपये सुपात्रों तक पहुच पाते हैं और यह भी देखना रोचक होगा कि इसमें से कितना कितना रुपया ग्रामीण और शहरी परंपरागत कारीगरों/ शिल्पियों तक पहुंच पाता है।
पहले वर्ष में कारपेंटर, नाव बनाने वाले, लोहार, मोची, नाई, राजमिस्त्री, धोबी, दर्जी, खिलौने बनाने वाले आदि 18 व्यवसायों के कारीगरों, शिल्पियों के 6 लाख परिवार इसमें शामिल किए जाएंगे। 5 वर्ष में 30 लाख परिवार इस योजना से जुड़ जाएंगे। इसमें ओबीसी हिंदू और पसमांदा मुसलमान जो पारंपरिक कौशल आधारित शिल्पी होंगे उन्हें शामिल किया जाएगा। इस योजना के अंतर्गत एक परिवार से एक सदस्य को ₹2 लाख का ऋण 5% ब्याज पर दो किस्तों में उपलब्ध कराया जाएगा।
पहली किस्त में एक लाख रु दिया जाएगा। इस ऋण की वापसी के बाद दूसरी बार दो लाख रु का ऋण दिया जाएगा। इन लाभार्थियों को 5 दिन का सामान्य और 15 दिन का उच्च प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा जिसके लिए 500/- प्रतिदिन स्टाइपेंड मिलेगा। आधुनिक उपकरण खरीदने के लिए केंद्र सरकार प्रति प्रशिक्षार्थी 15000/- की सहायता प्रदान करेगी। सरकार इन उत्पादों की बिक्री को सुगम बनाने के लिए गुणवत्ता प्रमाणपत्र उपलब्ध कराएगी तथा ऑनलाइन मार्केटिंग में भी सहायता की जाएगी।
सरकार द्वारा ऐसी प्रत्येक योजना में प्रशिक्षण के माध्यम से कौशल विकास पर जोर दिया गया है, बल्कि वर्ष 2014 में अलग से एक कौशल विकास मंत्रालय बनाया गया। इसके बावजूद वैश्विक दृष्टि से देखा जाए तो हमारे देश की स्थिति बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। कौशल विकास उद्यमिता पर राष्ट्रीय नीति 2015 की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भारत में कुल कार्यबल का केवल 4.7 फीसद ने औपचारिक कौशल प्रशिक्षण प्राप्त किया है जबकि अमरीका में 52 फीसद, जापान में अस्सी फीसद और दक्षिण कोरिया में 96 फीसद है।
सरकारी मंशा यदि सही हो तो भी योजना का क्रियान्वयन सूझबूझ से होना आवश्यक है। अन्य कई योजनाओं की भांति यदि इसका केंद्र भी शहरी क्षेत्र रहा तो निश्चित है कि शहरों के पारंपरिक शिल्पियों को इसका अधिक लाभ होगा। ऐसा इसलिए भी प्रतीत होता है कि भारत सरकार ने सूक्ष्म, लघु, मध्यम उध्यम मंत्रालय को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है जिसमें अन्य चार मंत्रालय इसके सहयोगी हैं। यदि इस योजना को लागू करने का कार्य ग्रामीण विकास मंत्रालय को दिया गया होता और लाभार्थियों के चयन की प्रक्रिया के लिए बनायी गयी चयन समिति जिला उपायुक्त के बदले ब्लाक स्तर के अधिकारी की अध्यक्षता में बनायी गयी होती तो वास्तविक, जरूरतमंद, जमीनी स्तर के गरीब पारंपरिक कारीगरों/शिल्पियों की मदद होती। भारत सरकार का एक प्रमुख संगठन खादी ग्रामोद्योग आयोग पिछले 65 वर्षों से इसी ऊहापोह की स्थिति, कभी ग्रामीण विकास मंत्रालय, उद्योग मंत्रालय, कृषि ग्रामीण उद्योग मंत्रालय से होता हुआ काफी वर्षों से सूक्ष्म, लघु, मध्यम उद्यम मंत्रालय में आकर टिका है। इस संस्थान ने पूर्व में ग्रामीण विकास मंत्रालय में रहते हुए ग्रामीण कारीगरों/ शिल्पियों को रोजगार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
उपर्युक्त विवेचना के सापेक्ष में विभिन्न राजनैतिक दलों की सरकारों ने समय-समय पर खादी ग्रामोद्योग आयोग/ राज्य खादी बोर्ड, सिल्क बोर्ड, हथकरघा आयुक्त, हस्तशिल्प आयुक्त, अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग आदि विभागों के माध्यम से एवं प्रधानमंत्री स्वरोजगार सृजन कार्यक्रम, स्फूर्ति (SFURTI) योजना आदि कार्यक्रम चलाकर समाज के गरीब पारंपरिक कारीगरों, शिल्पियों के लिए प्रशिक्षण, विपणन, कम ब्याज पर ऋण आदि सहायता देकर मदद की है। सरकार के सहयोग से बाजारीकरण के इस दौर में कारीगर और शिल्पी स्वयं को जीवन्त बनाये हुए हैं। यह न केवल रोजगार प्रदान करते हैं बल्कि देश की समृद्ध, सांस्कृतिक विरासत को भी संरक्षित करने में सहायक हैं। चुनौतियों, आधुनिक प्रौद्योगिकी के उपयोग और अंधाधुंध औद्योगीकरण के बावजूद इन शिल्पियों और इनके उत्पादों की प्रासंगिकता बनी हुई है। पहले वर्ष में कारपेंटर, नाव बनाने वाले, लोहार, मोची, नाई, राजमिस्त्री, धोबी, दर्जी, खिलौने बनाने वाले आदि कारीगरों, शिल्पियों के 6 लाख परिवार इसमें शामिल किए जाएंगे। 5 वर्ष में 30 लाख परिवार इस योजना से जुड़ जाएंगे।
प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए इससे मिलती जुलती योजना जैसे ‘प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम’ (PMEGP) आदि में जो कमियां नजर आयी हैं वैसी कमी इस योजना को लागू करते समय नहीं आए इसका ध्यान रखना होगा। प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम की भांति प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना में भी एक परिवार के एक व्यक्ति का चयन किया जाएगा। अतः लाभार्थी को एक शपथपत्र देना होगा कि उसके परिवार में किसी और सदस्य ने इससे मिलती जुलती किसी अन्य सरकारी योजना का लाभ नहीं लिया है।
परंतु यह देखा गया है कि लाभार्थियों के ऐसे शपथपत्र प्रायः असत्य होते हैं। एक ही परिवार के कई सदस्य ऐसे अनुदान वाली सरकारी योजना का लाभ लेते हैं और कई परिवार एक भी सरकारी योजना का लाभ नहीं ले पाते हैं जिसकी वजह से सरकार का मूल उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता है। कई लोग पहले से ही ऋण लेकर छोटा-मोटा व्यवसाय कर रहे होते हैं और जब भी ऐसी अनुदान वाली कोई सरकारी योजना आती है तो बैंक से कम ब्याज दर का ऋण लेकर पैसा पहले से चल रहे निजी व्यवसाय में लगाते हैं। सरकार जितनी भी ‘संपार्श्विक मुक्त ऋण’ (collateral free loan) की घोषणा करे बैंक मैनेजर अपने बचाव का कोई न कोई रास्ता निकाल लेते हैं। प्रायः इसमें वे लाभार्थी या उनके अन्य किसी साथी का सावधि जमा करने की मांग करते हैं। जो ऐसा कर लेते हैं उन्हें आसानी से ऋण उपलब्ध हो जाता है, बाकी के लिए कठिनाई होती है।
प्रधानमंत्री द्वारा विश्वकर्मा योजना का उदघाटन करने के बाद इसके क्रियान्वयन में यदि संबंधित मंत्रालय ने ध्यान दिया तो योजना अपने वास्तविक उद्देश्य को पूरा करते हुए ग्रामीण और शहरी कारीगरों और शिल्पियों को कम ब्याज पर ऋण, नए औजार देने के साथ-साथ प्रशिक्षण, रोजगार, और उनके उत्पादों के विपणन में सहायक होगी अन्यथा यह योजना कहीं चुनावी योजना बनकर न रह जाए।
(लेखक सर्व सेवा संघ, सेवाग्राम के ट्रस्टी हैं)