— कौशल किशोर —
आपातकाल की बरसी 25 जून को मनाते हैं। इसी दिन सन 1975 में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल लागू किया गया जो अगले 21 महीने तक चलता रहा। बिना किसी युद्ध के ही इमरजेंसी लागू करने का यह काम भारतीय लोकतंत्र पर कलंक का टीका है। इस बीच नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों को खत्म कर दिया गया। पूरा देश जेल में तब्दील कर दिया गया था। इस साल आपातकाल का पचासवां साल होने के कारण सरकार विशेष दिलचस्पी लेती दिखती है। आंतरिक चुनौतियों व अराजकता के खिलाफ इसे एक मजबूत और कड़वी दवा के तौर पर प्रचारित किया गया। लेकिन इसकी हकीकत कुछ और ही थी। प्रो. आनन्द कुमार की एक किताब आई है, इमरजेंसी राज की अंतर्कथा। इसमें उन्होंने विस्तार से इसके बारे में लिखा है। आपातकाल के मुश्किल दौर को याद करने से भारतीय परिदृश्य में लोकतंत्र और तानाशाही का भेद स्पष्ट होता है।
पांचवीं लोक सभा का चुनाव 1971 में हुआ था। इसमें तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा सरकारी साधनों का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए किया गया था। इसी वजह से रायबरेली सीट पर उनके प्रतिद्वंदी रहे राज नारायण ने इलाहबाद हाई कोर्ट में मुकदमा दायर किया। 12 जून 1975 को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के अदालत के फैसले में उन्हें दोषी करार दिया गया। उनकी संसद की सदस्यता खत्म हो गई और अगले 6 सालों के लिए प्रतिबंधित भी किया गया था। ऐसी दशा में सत्ता में बने रहने के लिए प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। तत्कालीन राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद द्वारा आंतरिक सुरक्षा के नाम पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत फरमान जारी किया गया था। तानाशाही का यह आलम था कि इसके लिए केबिनेट की मंजूरी लेना भी आवश्यक नहीं माना गया।
21 मार्च 1977 तक चले इस दौर के निरंकुश शासन को अनुशासन पर्व की संज्ञा दी गई थी। इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम लागू किया था। अनिवार्य वस्तुओं की कीमतें कम करना और उनके उत्पादन और वितरण को सुधारना। सरकारी खर्च कम करना। कृषि भूमि की हदबंदी को लागू कर अतिरिक्त भूमि का वितरण और उनके अभिलेख संकलित करना। भूमिहिनो और गरीबों को आवास निर्माण के लिए जमीन दिलाना। बंधुआ मजदूरी को गैर कानूनी घोषित करना। ग्रामीण कर्जदारी को समयबद्ध योजना के जरिये समाप्त कर भूमिहीनो, छोटे किसानों और दस्तकारों से कर्ज की वसूली पर रोक लगाना। न्यूनतम कृषि मजदूरी कानून की समीक्षा करना। देश के 50 लाख हेक्टेयर अतरिक्त भूमि को सिंचाई के अंतर्गत लाना और भू जल के संवर्धन जैसे प्रयास इसमें शामिल हैं। पर सही मायनों में इन पर काम करने के बदले सरकार का ध्यान दूसरी तरफ केंद्रित रहा।
अभिव्यक्ति की आजादी को खत्म कर प्रेस पर सेंसरशिप लागू किया गया। सरकार का विरोध करने वाला विपक्ष ही नहीं बल्कि सवाल उठा रहे सत्ता पक्ष से जुड़े लोग भी इसका शिकार हुए। इमरजेंसी के विरोध में जगह जगह कई तरह की गतिविधि होने लगी। सत्याग्रह कर गिरफ्तारी देने के अलावा प्रभाकर शर्मा का आत्मदाह और बड़ौदा का डायनामाइट काण्ड भी इसी की प्रतिक्रिया थी। पहले से ही देश भर के जेलों में क्षमता से अधिक कैदी थे। आंकड़े बताते हैं कि 1 जनवरी 1975 को 2,20,146 कैदी जेलों में बंद थे। जबकि सभी जेलों की कुल क्षमता 1,83,369 कैदियों की थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इसके बाद भी एक लाख दस हजार लोगों को जेल भेजा गया था। इसके कारण पूरी व्यवस्था चरमरा गई थी। कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने जब इस तानाशाही पर प्रश्न किया तो उन्हें भी तिहाड़ जेल भेज दिया गया था। बुजुर्ग व बीमार कैदियों को राहत देने के बदले अमानवीय यातनाएं दी गई। जय प्रकाश नारायण के बन्दी जीवन की यातनाएं पब्लिक डोमेन में है। इमरजेंसी के दौरान उन्हें मौत के मुंह में धकेल दिया गया था। जेल की अव्यवस्था ने इमरजेंसी राज के सुशासन के तमाम दावों की पोल खोल कर रख दिया है।
प्रो आनन्द कुमार लिखते हैं कि इतिहासकार रोमिला थापर इमरजेंसी में जेल जाने वाले लोगों में तो नहीं थी। पर उन्होंने जब इमरजेंसी राज के समर्थन वाले वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया तो उनके खिलाफ भी आय कर की जांच बैठा दी गई। साथ ही सरकारी सेवा में लगे 25,962 अधिकारियों और कर्मचारियों को जबरदस्ती सेवामुक्त कर दिया गया। बाद में जांच आयोग ने इनमें से 14,187 मामले अनुचित पाए और उनकी पुनः बहाली का काम किया था। अन्याय और अत्याचार का वह भयानक दौर भारत छोड़ो आंदोलन की याद दिलाती है, जब अंग्रेजी हुकूमत द्वारा लाखों देशभक्तों को जेल में डाल दिया गया था।
तानाशाह के रुप में उभरी इंदिरा गांधी की सरकार संजय गांधी के इशारे पर नाचने लगी। 1971 के चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा देकर 352 सीट जीतने वाली सरकार ने गरीबों का सफाया करना शुरू कर दिया। संजय गांधी के नेतृत्व में गरीब व कमजोर लोगों की बस्तियां उजाड़ने का काम तेज गति प्राप्त करता है। इस बीच देश भर में कम से कम 4000 मलिन बस्तियों को हटा दिया गया था। साथ ही उनकी नस्ल खत्म करने का काम बड़े पैमाने पर किया गया। जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर जबरन नसबंदी का सिलसिला शुरु हुआ और 21 महीनों में इसका शिकार हुए लोगों की संख्या 1 करोड़ से ज्यादा हो गई थी। इस मामले में प्रशासन की सक्रियता हैरतअंगेज करने वाली घटनाओं से भरी पड़ी है
सर्वोच्च न्यायालय ने भी मौलिक अधिकारों पर रोक को मान्यता प्रदान किया, जिसे वर्षों बाद खारिज कर कलंक मिटाने का काम किया गया। न्यायपालिका के प्रतिकूल फैसले के भय से संविधान संशोधन के नाम पर बदलने का काम किया गया था। मौलिक अधिकारों का हनन करने वाली सरकार ने मौलिक कर्तव्यों को जोड़ने का काम किया। इन्हीं सब कारणों से लोकतन्त्र खत्म करने और तानाशाही थोपने का काम स्वतंत्र भारत के इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज है। आपातकाल में किए गए संविधान संशोधन की इसके पचासवें साल में समीक्षा की जानी चाहिए।