आज विनोबाजी के 129 वीं जयंती के बहाने!

0
vinoba-bhave

suresh khairnar

— डॉ. सुरेश खैरनार —

विनोबाजी के बारे में 1973-75 के दौरान हुए जेपी आंदोलन में उनकी भूमिका को लेकर मैं बेहद नाराज़ था। लेकिन ‘गांधी अब नहीं रहे, आगे क्या?’ इस शीर्षक से एक किताब (जो मुख्यतः सर्व सेवा संघ की स्थापना की बैठक का इतिवृत्त है) जिसे श्री गोपाल कृष्ण गांधी ने, जब वह बंगाल के राज्यपाल के पद पर कार्यरत थे, कोलकाता के राजभवन में रहते हुए संपादित किया था, पढ़ने के बाद, विशेष रूप से आचार्य विनोबा भावे के बारे में मेरी नाराज़गी पूरी तरह से समाप्त हो गई।

गांधी जी की हत्या के छह सप्ताह बाद, सेवाग्राम में 11 से 14 मार्च 1948 तक एक बैठक हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप आज के सर्व सेवा संघ की स्थापना हुई। इस बैठक में नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद, राजेंद्र प्रसाद, कुमारप्पा, जेपी, राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज, आचार्य कृपलानी, डॉ. जाकिर हुसैन, आचार्य दादा धर्माधिकारी, और आचार्य विनोबाजी भी शामिल थे। डॉ. राम मनोहर लोहिया बैठक में शामिल नहीं हो सके, इसका अफसोस गोपाल कृष्ण गांधी जी ने किताब की प्रस्तावना में विशेष रूप से व्यक्त किया है। इस बैठक का इतिवृत्त आचार्य दादा धर्माधिकारी जी ने लिखा है, जिसे गोपाल कृष्ण गांधी ने संपादित करके यह किताब के रूप में प्रस्तुत किया है।

उस पांच दिन की बैठक में विनोबाजी बोले, “मैं कुछ कहना चाहता हूँ! मैं उस प्रदेश का हूँ, जिसमें आर.एस.एस. का जन्म हुआ है। जाति छोड़कर बैठा हूँ, फिर भी भूल नहीं सकता कि मैं उसी जाति का हूँ, जिसके द्वारा बापू की हत्या हुई। कुमारप्पाजी और कृपलानीजी ने परसों फौजी बंदोबस्त के खिलाफ कड़ी बातें कहीं। मैं चुप बैठा रहा। वे दुख के साथ बोल रहे थे, और मैं दुख के साथ चुप था। न बोलने वाले का दुख जाहिर नहीं होता। मैं इसलिए नहीं बोला, क्योंकि मुझे दुख के साथ लज्जा भी थी। पवनार में मैं बरसों से रह रहा हूँ। वहाँ पर भी चार-पाँच आदमियों को गिरफ्तार किया गया है। बापू की हत्या से किसी न किसी तरह का संबंध होने का उन पर शक है। वर्धा में गिरफ्तारियाँ हुईं, नागपुर में हुईं, और जगह-जगह हो रही हैं।

यह संगठन इतने बड़े पैमाने पर और बड़ी कुशलता के साथ फैलाया गया है। इसके मूल बहुत गहरे तक पहुँच चुके हैं। यह संगठन बिल्कुल फासिस्ट ढंग का है। इसमें महाराष्ट्र की बुद्धि का प्रमुख रूप से उपयोग हुआ है। चाहे यह पंजाब में काम करता हो या मद्रास में, सभी प्रांतों में इसके सालार और मुख्य संचालक अक्सर महाराष्ट्रीयन और अधिकतर ब्राह्मण रहे हैं। गोलवलकर गुरुजी भी महाराष्ट्र के ब्राह्मण हैं। इस संगठन के लोग दूसरों पर विश्वास नहीं करते। गांधी जी का नियम सत्य का था, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इनका नियम असत्य का होना चाहिए। यह असत्य उनकी तकनीक, उनके तंत्र और उनकी विचारधारा का हिस्सा है।

“एक धार्मिक अखबार में मैंने गुरुजी का एक लेख या भाषण पढ़ा। उसमें लिखा था कि हिंदू धर्म का उत्तम आदर्श अर्जुन है। उसे अपने गुरुजनों के प्रति आदर और प्रेम था, उसने गुरुजनों को प्रणाम किया और उनकी हत्या की। इस प्रकार की हत्या जो कर सकता है, वह स्थित-प्रज्ञ होता है। वे लोग गीता के मुझसे कम उपासक नहीं हैं। वे गीता को उतनी ही श्रद्धा से पढ़ते होंगे, जितनी श्रद्धा मेरे मन में है। मनुष्य यदि पूज्य गुरुजनों की हत्या कर सके, तो वह स्थित-प्रज्ञ होता है—यह उनकी गीता का तात्पर्य है। बेचारी गीता का इस प्रकार उपयोग होता है! मतलब यह कि यह सिर्फ दंगा-फसाद करने वाले उपद्रवकारियों की जमात नहीं है, यह फिलॉसफरों की जमात है। उनका एक तत्वज्ञान है और उसके अनुसार निश्चय के साथ वे काम करते हैं। धर्मग्रंथों के अर्थ करने की भी उनकी अपनी एक खास पद्धति है।

“गांधी जी की हत्या के बाद महाराष्ट्र की कुछ अजीब हालत है। यहाँ सब कुछ अत्यंत रूप में होता है। गांधी हत्या के बाद गांधीवादियों के नाम पर जनता की तरफ से जो प्रतिक्रिया हुई है, वह वैसी ही है जैसी पंजाब में पाकिस्तान के निर्माण के वक्त हुई थी। नागपुर से लेकर कोल्हापुर तक भयानक प्रतिक्रिया हुई है। साने गुरुजी ने मुझसे आग्रह किया है कि मैं महाराष्ट्र में घूमूं। जो पवनार को भी नहीं संभाल सका, वर्धा-नागपुर के लोगों पर असर नहीं डाल सका, वह महाराष्ट्र में घूमकर क्या करेगा? मैं चुप बैठा रहा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की और हमारी कार्यप्रणाली में हमेशा विरोध रहा है। जब हम जेल में जाते थे, उस वक्त उनकी नीति फौज और पुलिस में दाखिल होने की थी। जहाँ हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा खड़ा होने की संभावना होती, वहाँ वे पहुँच जाते थे। उस वक्त की सरकार इन सब बातों को अपने फायदे के रूप में देखती थी, इसलिए उसने भी उन्हें प्रोत्साहन दिया। नतीजा हमें भुगतना पड़ रहा है।

आज की परिस्थिति में मुख्य जिम्मेदारी मेरी है, महाराष्ट्र के लोगों की है। यह संगठन महाराष्ट्र में पैदा हुआ है। महाराष्ट्र के लोग ही इसकी जड़ों तक पहुँच सकते हैं। इसलिए आप मुझे जानकारी दें, मैं अपना दिमाग साफ रखूंगा और अपने तरीके से काम करूंगा। मैं किसी कमिटी में प्रतिबद्ध नहीं रहूंगा। आर.एस.एस. से भिन्न, गहरे और दृढ़ विचार रखने वाले सभी लोगों की मदद लूंगा। जो इस विचार पर अडिग हैं कि हम केवल शुद्ध साधनों से काम करेंगे, उनकी मदद लूंगा। हमारा साधन-शुद्धि का मोर्चा बने। इसमें सोशलिस्ट भी आ सकते हैं, और अन्य लोग भी। हमें ऐसे लोगों की जरूरत है, जो अपने को इंसान समझते हैं।

आचार्य विनोबा भावे आज से 76 साल पहले आर.एस.एस. के बारे में कितने स्पष्ट थे! और उनके कुछ अनुयायी कहे जाने वाले लोगों को विनोबाजी की 129वीं जयंती के अवसर पर इसे समझने की आवश्यकता है! क्योंकि मेरे व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर, मुझे कुछ गांधीवादी और विनोबाजी के अनुयायियों में काफी भ्रम दिखाई देता है!

वर्तमान में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार में, कुछ लोगों को मैं बिल्कुल मौन देख रहा हूँ, और कुछ सीधे-सीधे हिंदुत्ववादी खेमे में शामिल हो गए हैं! उन्होंने महात्मा गांधी या विनोबाजी के बारे में सुविधाजनक अर्थ निकालकर अपने पक्ष को बदल लिया है!थे. डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने गांधीवादियों की तीन श्रेणी बांटी. पहली जो सत्ता के साथ थे. दूसरे जो गांधी के नाम संस्थाएं चलाते थे. तीसरी श्रेणी में खुद को रखते थे. वह गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रबल अनुयायी थे. इन लोगों को आज की परिस्थितियों में बहुत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है!

आज आचार्य विनोबाजी की जयंती के अवसर पर उन्हें सही मायनों में समझने और उस पर अमल करने की आवश्यकता है। क्या हम सिर्फ विनोबाजी की जयंती और पुण्यस्मरण ही करते रहेंगे, या फिर उन्होंने दिखाए हुए रास्ते पर चलेंगे? मैं पिछले एक सप्ताह से असम में हूँ, यहाँ भी संघ परिवार के कई काम चल रहे हैं। लेकिन विनोबाजी और गांधीजी के संस्थानों का काम आखिरी साँसें लेता नजर आ रहा है। हमें विनोबाजी के 125 वर्ष और गांधीजी के 150 वर्ष के अवसर पर संकल्प लेना चाहिए कि संघ परिवार के खिलाफ जिस मोर्चे की बात विनोबाजी ने की थी, उसे आगे बढ़ाना चाहिए। आज उस बात को 76 साल हो चुके हैं, लेकिन उस पर चलना तो दूर, हम लोग सिर्फ अपने रोजमर्रा के कर्मकांड में व्यस्त हैं।

अभी भी समय है, हमें विनोबाजी की बात को अमल में लाने के लिए जुट जाना चाहिए। क्योंकि अब कश्मीर, कल नॉर्थ ईस्ट, और फिर 5वीं और 6वीं अनुसूची, जो आदिवासियों के लिए विशेष प्रावधानों के तहत हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाई थी, उसे बदलने की संघ परिवार ने शुरुआत कर दी है। कश्मीर और एनआरसी उसकी शुरुआत है, और आगे भी बहुत कुछ होने वाला है।

साबरमती आश्रम, गांधी विद्यापीठ, बनारस के सर्व सेवा संघ के प्रकाशन विभाग, और जेपी द्वारा स्थापित गांधी विद्या संस्थान पर संघ के लोगों ने कब्जा कर लिया है। कुछ हिस्सों को बुलडोज़र से जमीनदोस्त कर दिया गया है। लेकिन इसके लिए हमारे आपसी झगड़े भी जिम्मेदार हैं, और उसी का फायदा उठाकर संघ अपनी संस्थाओं में घुसपैठ कर रहा है।

हम इस बात का सज्ञान लेने की बजाय एक-दूसरे की गलतियाँ गिनाने में लगे हुए हैं। हमें विनोबाजी की भाषा में एक मोर्चा खोलने की शुरुआत करनी चाहिए, बजाय आपस में झगड़ने के।

Leave a Comment