यादों में ज़िन्दगी, मुक्तिबोध से मुक्ति नहीं

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Kanak Tiwari

— श्री कनक तिवारी —

दिग्विजय काॅलेज की बहुत सी यादें हैं। वे लेकिन उलझती रहती हैं। गड्डमगड्ड होती रही हैं। एक दूसरे पर चढ़ी उतरी जाती हैं, लेकिन सब यादें धूमिल भले हो गई हों, मिटना नहीं चाहतीं। कुछ यादें इतनी धूमिल हो गई हैं कि महसूस होता है कि कहीं अन्तर में, जेहन में कुलबुला रही हैं लेकिन स्मृति पटल पर उभरकर आ नहीं पातीं। मानो कोई रोक रहा है। उधेड़बुन की ऐसी हालत तो पूरा विस्मरण हो जाए से भी ज़्यादा परेशानी वाली हो जाती हैं। ऐसी बहुत सी भूलती हुई सी यादें अंदर ही अंदर उन बादलों की तरह घुमड़ती रहती हैं, जो बरसने को बेचैन तो होते हैं, लेकिन बरस पड़ने के लिए उन्हें मुनासिब मौसम नहीं मिलता। यादों के बादल तपती विस्मृतियों पर बरस पड़ने के लिए वर्षों तक घुमड़ते रहते हैं। कभी किसी संदर्भ में या दुर्घटना में भी उनकी याद आ जाए, तब वे लेखी में बरस लेना चाहते हैं।

मैं 1963 में दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में अंगरेज़ी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त होकर उनका भी सहकर्मी बना। गृहनगर में बरगद के पेड़ों पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और मुक्तिबोध तथा काॅलेज के बाहर डा0 बलदेवप्रसाद मिश्र की शख्सियतों की छांह मिली। यादों का कबाड़ तक मूल्यवान होता है। ऐसा पारचून इतिहास का प्राथमिक ड्राफ्ट भी होता है। साहित्यिक दुनिया में तब तक मुक्तिबोध की प्रायोजित, प्रचारित या सुपात्रित वह ख्याति नहीं थी जिसका बवंडर उनकी मृत्यु के बाद अचानक उठा। सादे कपड़ों, गंभीर मुद्रा और धीमी गति से अपने घर की सीढ़ियां उतरकर शिक्षकों के स्टाफ रूम में पड़ी दो आराम कुर्सियों पर बख्शीजी और मुक्तिबोध के बैठने से उन्हें ही इन दोनों साहित्य-अध्यापकों का बोझ सबसे ज़्यादा उठाना पड़ा।

मुक्तिबोध 1958 में ही दिग्विजय महाविद्यालय में मुदर्रिसी करने आ गए थे। अजीज़ दोस्त विलास खरे का मित्र होने के नाते उनके ज्येष्ठ पुत्र रमेश से मेरी अन्तरंगता हो गई। बाद में रमेश का विवाह विलास की बहन से होने के कारण वे मेरे बहनोई हो गए। मुक्तिबोध को सबसे पहले 1958 में साइंस काॅलेज रायपुर के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में मैंने देखा सुना था। हिन्दी साहित्य समिति का मैं कक्षा-प्रतिनिधि बनाया गया था। विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए मुक्तिबोध का यश पूरी तौर पर अजूबा और अपरिचित था। बाद में मुक्तिबोध के निधन का समाचार मुझमें भूकंप रच गया था। उनकी यादें धूमिल होकर भी गुम नहीं हो सकीं। उनके व्यक्तित्व का असर जिस पर भी पड़ा, स्थायी हुआ है।

गैरशादीशुदा तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहने के कारण मेरे दो सौ नब्बे रुपये मासिक वेतन का बड़ा हिस्सा होटलों में ही खर्च होता। मुक्तिबोध अमूमन चाय पीते, बख्शी जी कई बार काॅफी। मुक्तिबोध सिगरेट और बीड़ी दोनों पी सकते थे, बख्शी जी लगातार बीड़ी। बख्शी जी को इमरती भी भाती और भजिए कचौरी भी। मुक्तिबोध खाने से बचते, लेकिन दूसरा कप चाय पीने से पहले कप के बनिस्बत ज़्यादा खुश होते। तीन पीढ़ियों का यह काफिला खाली पीरियड के पैंतालीस मिनटों में लौट आने की मर्यादा में बंधा रहता क्योंकि बख्शी जी के शिष्य, मुक्तिबोध के नियुक्तिकर्ता और मेरे चाचा जी ही तो प्राचार्य थे।

एक दिन मुझे चाय पिलाने के बहाने पकड़कर ले गए मुक्तिबोध ने ताई को चाय बनाने कहा। खुद हमारी ओर पीठ कर उस पुरानी हवेलीनुमा मकान की आखिरी सीलनभरी दीवार से सटी छोटी सी मेज पर बैठकर कुछ लिखने लगे। वे अपने में डूब गए। चाय पीते मैंने उनकी चाय को ठंडा होते देखा। मुंह खोला, लेकिन ताई की उंगली ने मना कर दिया। बरसाती दिन थे। मुक्तिबोध के सामने दीवार पर लगा पलस्तर का एक टुकड़ा सहसा मेज के आसपास गिर गया। उनके मन में इतना बड़ा भूचाल था कि वे हिले तक नहीं। दूसरे दिन मैंने मज़ाक के कच्चेपन में कहा कि दीवार पर पलस्तर इस तरह झरा है मानो ब्रह्मराक्षस का चेहरा उकेरा गया है। आपके लेखन में इतना पुण्यप्रताप है? मुक्तिबोध मुझे फिर पकड़कर चाय पिलाने घर ले गए।

अब वे अंतर्मुखी कवि नहीं, बहिर्मुखी मनुष्य थे। हम बहुत देर खड़े होकर ब्रह्मराक्षस की आकृति के कंटूर समझते रहे। उन्होंने सहमति व्यक्त की ‘पार्टनर यह ब्रह्मराक्षस ही दिख रहा है। लेकिन कल से अब तक इस पर मेरी निगाह क्यों नहीं पड़ी?‘ ब्रह्मराक्षस, ओरांग उटांग, क्लाॅड ईथर्ली जैसे बीसियों अटपटे नाम मुक्तिबोध की रचनाओं में अटे पड़े हैं। मुक्तिबोध के प्रतीकों में अंधेरा, काला जल, सर्प, पत्थर, मृत्यु, चीत्कार वगैरह की परछाइयां नहीं झाइयां हैं। ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध के उपचेतन में उकडूं बैठा रहता है।

साइंस काॅलेज रायपुर के अंगरेज़ी विभाग के प्रोफेसर प्रेमनारायण श्रीवास्तव मेरे दिग्विजय महाविद्यालय में पदस्थ होने के बाद मुक्तिबोध से मिलने के लिए उतावले हो उठे थे। नवम्बर 1963 के आसपास मेरे आग्रह पर वे एक दिन मुक्तिबोध से मिलने राजनांदगांव आए। मैंने अपने घर पर दोनों के लिए दोपहर के भोजन का इंतजाम किया। आने का वायदा करके भी मुक्तिबोध नहीं आए। महाविद्यालय प्रशासन से छात्र संघ के चुनाव तथा अन्य आजादियों को लेकर छात्रों का पक्ष लेने के आरोप लगाता प्रशासन मुझसे खफा था। वह दिन छुट्टी का था। फिर भी प्रशासन समिति के सदस्यों तथा प्रमुख अध्यापकों की बैठक प्राचार्य निवास पर आयोजित कर ली गई। मुक्तिबोध भी उस बैठक में शामिल थे।

मैंने हिम्मत कर प्राचार्य के टेलीफोन पर मुक्तिबोध से बात करने की कोशिश की। प्राचार्य खुद ही टेलीफोन उठाते थे। मेरी अनसुनी कर दी। मैंने दोबारा कोशिश की। उन्होंने मुक्तिबोध को टेलीफोन पकड़ा दिया। मुझे सुनाई पड़ा मैं आपके यहां भोजन पर नहीं आ सकता। उन्होंने कहा मुझे समझना चाहिए कि प्राचार्य के घर का और अध्यापक के घर का भोजन का आमंत्रण एक नहीं होता। प्राचार्य के घर से अध्यापक का उठ आना अनुशासनहीनता के दायरे में भी होता है। दूसरे दिन मुझसे कहा था कि खेद प्रकट करने का ढोंग नहीं करेंगे। हम दोनों को दायरों को निर्विकार ढंग से समझ लेना चाहिए। उन्होंने अलबत्ता कहा मुझे प्रोफेसर श्रीवास्तव से माफी मांगते वक्त उनकी भी नुमाइन्दगी कर लेनी चाहिए थी। उनकी आंखों में जो भाव था उसकी ही स्याही से ही शायद ‘विपात्र‘ की कथा का मुख्य किरदार रचा गया होगा।

दिग्विजय महाविद्यालय के दो मकानों में एक के बाद एक मुक्तिबोध का निवास रहा है। उसका वर्णन उनकी कविताओं में ढूंढ़ा जा सकता है। खासतौर पर दूसरे मकान के परिप्रेक्ष्य में रहस्यमयता, ब्रम्हराक्षस, झाड़ियां, पेड़, तेज हवाएं, तालाब और अतल गहराइयां जैसी कई अभिव्यक्तियां मुक्तिबोध के आवास को आज भी जीवित रखे हुए हैं। दुमंजिले मकान के ऊपरी छोर में बैठकर पश्चिम की ओर खुली खिड़कियों से बाहर निहारते मुक्तिबोध अपनी कल्पनाशील साहित्यिक रहस्यमयता में ऐसा एक संसार देख रहे थे जो अपने एक एक तंतु में मुक्तिबोध पर निर्भर था कि उसे कैसे दृष्टिगत किया जाए।

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि जिस मकान में मुक्तिबोध रहे थे। उस मकान में उनके जाने के बाद करीब 15 वर्ष रसायनशास्त्र के प्रोफेसर डी. एस. भारद्वाज रहे। मृत्यु के बाद जब मुक्तिबोध की प्रसिद्धि, वाहवाही और लोकप्रियता बढ़ती गई। भारद्वाज को वह मकान अपने मौन में बहुत कुछ कहता रहा है। उन्हें लगता कि वे एक कालजयी बौद्धिक के रहवास के उत्तराधिकारी हो गए हैं। यह अनोखा अनुभव और गर्व अंततः प्रो. भारद्वाज के खाते में रह गया है। वे बताते हैं।

अंधेरी रातों में खासतौर पर बरसात और ठंड में जब तेज़ हवाएं चलतीं या बारिश होती। तब मुक्तिबोध की कविताओं का मुझमें साक्ष्य उगता रहता। इस अमर कवि की कविताओं को साहित्य के पाठक पढ़कर समक्ष होते रहते हैं। मैं रसायन शास्त्र का विद्यार्थी होने के बावजूद साहित्य और विज्ञान की अन्योन्याश्रितता का एक नामालूम हस्ताक्षर तो हो गया। मुक्तिबोध के शब्दों की उनकी कविता की भंगिमाएं भले ही मुझमें जीवंत नहीं रही होंगी लेकिन दिग्विजय महाविद्यालय परिसर में मुक्तिबोध के अस्तित्व के अहसास का उत्तराधिकार मेरे खाते में तो आया। हिन्दी साहित्य में ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जब किसी महाकवि या शीर्ष लेखक के निवास का उत्तराधिकार ऐसे किसी प्रबुद्ध व्यक्ति को मिला हो जो पूर्ववर्ती रहवासी की आत्मिक उपस्थिति की अनुभूति से दो चार होता रहा हो।

मुक्तिबोध के निधन के तीस वर्षों बाद मध्यप्रदेश गृह निर्माण मण्डल का अध्यक्ष पद मुझे मिला। मैंने अध्यक्ष की हैसियत में गृह निर्माण मण्डल की राजनांदगांव स्थित तीन काॅलोनियों का नामकरण बख्शीनगर, मुक्तिबोधनगर तथा बलदेवनगर रखा। राजनांदगांव को छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक केंद्र कहते नहीं अघाते भद्रजनों को अब तक यह अहसास नहीं है कि इन काॅलोनियों को इनके अधिकृत नामों से ही पुकारा जाए।

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