— निर्मल कुमार बोस —
राममनोहर लोहिया से मेरी पहली मुलाकात सन् 1935 या 1936 में हुई। मेरे कुछ दोस्त ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ में काम करते थे और ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ को लोहिया और उनके कुछ समाजवादी मित्र चलाते थे। मैं लोहिया की निष्ठा और समाजवाद के प्रति गहरी लग्न से बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ; पर उन दिनों हम बहुत ज्यादा नहीं मिल पाए, बीच-बीच में कभी मुलाकात हो जाती थी।
इसी तरह कई वर्ष बीत गए और फिर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन छिड़ा। समाजवादी इस आंदोलन के एकदम भीतर कूद पड़े। जेल में हमें रह-रहकर जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और अरुणा आसफ अली के कामों के समाचार मिलते कि वे किस तरह देश में चारों ओर आंदोलन फैलाने की कोशिश कर रहे हैं।
दो-तीन बरस और बीत गए और जब हम सन् 1945 में नजरबंदी से छूटे तो हमारी हालत शायद हारे और शिथिल व्यक्तियों की-सी थी। इसके बाद सन् 1946 में बंगाल में दंगे शुरू हुए। सन् 1946 के अंत में मैं में गांधी के साथ उनके नोआखाली शिविर में काम कर रहा था। राममनोहर लोहिया भी नोआओखाली आए। नोआखाली में गांधीजी के साथ उनकी मुलाकात की मुझे एकदम पूरी याद है।
गांधीजी ने स्थानीय हिंदू-मुसलमान किसानों से मिलने के लिए गाँवों की यात्रा करने का निश्चय किया था, ताकि वे किसानों को भरोसो दे सकें और उन्हें एकदम् नए ढंग से रहने और नए जीवन का निर्माण करने के लिए मदद कर सकें, उन्हें प्रेरित कर सकें। उन दिनों देश के राजनीतिक क्षितिज पर चारों तरफ अँधेरा-ही-अँधेरा दीख पड़ता था- आशा और उत्साह की कोई किरण नहीं थी। निराशा के ऐसे क्षणों में गांधीजी का कूदम् प्रकाश की नई किरण-सा प्रकट हुआ।
इसी वक्त राममनोहर लोहिया गांधीजी से मिले और उन्होंने गांधीजी को ठीक यही कहा कि निराशा के इस समुद्र में निकलने का एकमात्र रास्ता दिखानेवाले व्यक्ति आज सिर्फ आप ही (गांधीजी) हैं। पर गांधीजी ने तनिक उदास भाव से जवाब दिया, “पर मुझे तो चारों ओर निराशा के सिवाय कुछ नहीं दीख पड़ता। यदि मैं अपने अभी के काम में सफल होऊँ तो शायद दूसरे लोग भी इसका अनुकरण करें। पर अभी तो मैं इस काम को दूसरों के खातिर नहीं, सिर्फ अपनी ही खातिर क्रे रहा हूँ।”
उन्हीं दिनों देश के एक और राजनीतिक नेता गांधीजी से मिलने आए थे। उस नेता से गांधीजी ने कहा था, “मैं अपना काम देश के सबसे बड़े आदमी के सहयोग के बिना कर रहा हूँ।”
कुछ महीनों बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत को आजादी प्रदान की गई। इस वक्त कलकत्ता में हमारी फिर राममनोहर लोहिया से मुलाकात हुई। आजादी के बाद कुछ दिनों गांधीजी कलकत्ता रहे। उनका इरादा आजादी का दिन पूर्वी पाकिस्तान के नोआखाली जिले में बिताने का था, पर श्री हसन शहीद सुहरावर्दी और मुसलिम लीग के कई अन्य नेताओं के अनुरोध पर वह कलकत्ता रह गए।
आजादी के वक्त कलकत्ता शहर में थोड़ी-बहुत खुशी थी। गांधीजी ने हिंदू-मुसलमानों के बीच मेल-मिलाप के कुछ दृश्यों को देखा पर उनका उन पर असर नहीं पड़ा। उन्होंने यह महसूस किया कि यह सच्ची शांति नहीं है और यही बात उन्होंने बंगाल के राज्यपाल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से कही, “एक बरस के झगड़ों के बाद लोग थक गए हैं और आजादी ने उन्हें आराम करने का एक मौका दिया है। अभी इस बात के कोई आसार नहीं कि हिंदू मुसलमान मुहल्लों के अपने घरों को और मुसुलमान हिंदू मुहल्लों के अपने घरों को लौट रहे हैं। बहुत मुमकिन हैं कि 9 दिन का यह जादू उड़न-छू हो जाए और फिर दंगे भड़क उठें।”
अगस्त 1947 के अंत में फिर दंगे भड़क उठे। इस बार हिंदू नवयुवकों ने बममारी और आगजनी से मुसलमानों को हिंदू मुहल्लों से एकदम खदेड़ देने की ठानी। गांधीजी बहुत चिंतित और दुःखी थे। सितंबर के पहले सप्ताह में कलकत्ता की शांति और सद्बुद्विध के लिए उन्होंने अनशन शुरू कर कर दिया। सौभाग्यवश हिंदू, मुसलमान और सिख नेताओं द्वारा अपने-अपने लोगों के बीच प्रयत्न किए जाने से दंगे रुक गए और गांधीजी ने 72 घंटे के बाद अपना अनशन तोड़ दिया।
इसी वक्त राममनोहर लोहिया फिर आए और उन्होंने जो किया, उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को हमेशा उनका कृतज्ञ होना चाहिए। बताया गया कि वह शहर के कई हिस्सों में स्टेनग्न और हथगोलों से लैस युवकों से मिलने गए, उनसे लगातार बहस की और उन्हें बहस से राजी किया कि वे अपने सारे शस्त्रों को गांधीजी के आगे समर्पण करें। उन्होंने युवकों से कहा कि स्वतंत्र भारत में दंगे कभी नहीं होने चाहिए, क्योंकि हिंदू और मुसलमानों को भारत के समान नागरिकों की तरह एक नई जिंदगी बितानी है। दरअसल राममनोहर लोहिया गांधीजों को उन स्थानों पर भी ले गए जहाँ पर वह पहले कभी न पहुँचे थे और न असरदार हए थे।
और चमत्कार हुआ। बहुत से हिंदू नवयुवक औए और उन्होंने गांधीजी के चरणों पर अपने शस्त्र रख दिए। एक नवयुवक ने तौ गांधीजी से कहा कि “आखिरकार मैं हार गया। कल तक मुझे ‘हीरो’ माना जा रहा था; पर आपके अनशन के कारण मुझे प्रत्येक आदमी ‘गुंडा’ मान रहा है।” कलकत्ता के युवकों पर गांधीजी के अनशन की इस नैतिक विजय का बहुत कुछ श्रेय् राममनोहर लोहिया और शचीन मित्र तथा स्मृतीश बनर्जी जैसे लोगों को था। शचीन मित्र और स्मृतीश बनर्जी ने तो शांति की इस यात्रा में अपने प्राणों की बलि दे दी।