जीन, गुणसूत्र और आनुवंशिकता का इतिहास

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Genetics

Dr. Shubhnit Kaushik

— डॉ शुभनीत कौशिक —

ज़ारों सालों से मनुष्य अपने आस-पास के जीव-जगत और ख़ुद मनुष्य समाज के भीतर की विविधता पर आश्चर्यचकित होने के साथ ही उस पर गम्भीरता से सोचता भी रहा है। वह उस प्रक्रिया को समझने की कोशिश करता रहा, जो जीव जगत में व्याप्त विविधता की जननी है। उद्विकास की वह प्रक्रिया, जिसमें कोई जीव अपनी संतति पैदा करता है, जो उसके गुणों को धारण तो करती है पर फिर भी कुछ मायनों में उससे अलग होती है। पिछले दो-ढाई हज़ार सालों में दार्शनिक, वैज्ञानिक, चिकित्सकों ने आनुवंशिकता के इस विज्ञान को कैसे जाना-समझा, उसकी एक बेहद दिलचस्प कहानी है सिद्धार्थ मुखर्जी की किताब ‘द जीन : एन इंटीमेट हिस्ट्री’।

पेशे से चिकित्सक सिद्धार्थ ने कैंसर के बारे में ‘द एंपरर ऑफ़ ऑल मैलेडीज’ जैसी शानदार किताब लिखी, जिसे पुलित्जर सम्मान से नवाजा गया। सिद्धार्थ लिखते हैं कि छह सौ पन्नों की वह किताब लिखने के बाद एक समय उन्हें ऐसा लगा कि उनकी सारी कल्पनाशक्ति रीत गई है, कहने के लिए अब उनके पास कुछ भी शेष नहीं है। यहाँ तक कि कुछ समीक्षकों ने यह भी कह दिया कि उनकी इस किताब को ‘द फ़र्स्ट बुक’ प्राइज़ के साथ ‘द ओनली बुक’ प्राइज़ भी देना चाहिए।

इस भय से गुजरते हुए सिद्धार्थ को यह विचार आया कि ‘द एंपरर ऑफ़ ऑल मैलेडीज’ में उन्होंने कोशिकाओं के ‘असामान्य’ हो जाने की कहानी कही है, उनके विचलन की प्रक्रिया और उसके परिणाम बताए हैं। तो क्यों न वे उस किताब की पूर्वपीठिका के रूप में ये बताएँ कि कोशिकाएँ सामान्य स्थिति में कैसे व्यवहार करती हैं, वे कौन-सी प्रक्रियाएँ हैं जो उन्हें ‘सामान्य’ रूप से काम करने को निर्देशित करती हैं। इस समूची प्रक्रिया में जीन, गुणसूत्र और आनुवंशिकता क्या भूमिका निभाते हैं? और फिर इन्हीं सवालों का जवाब ढूँढते हुए उन्होंने जीन के अंतरंग इतिहास पर यह किताब लिखी।

The GENE

सिद्धार्थ की यह किताब जहाँ एक ओर वैज्ञानिकों की खोजों, उनके विचारों और विज्ञान की बदलती समझ का हवाला देती है, वहीं दूसरी ओर इसका एक निजी और बिलकुल आत्मीय पहलू भी है। जहाँ सिद्धार्थ अपने परिवार में आनुवंशिकता व जीन के प्रभाव और मनोविकार के अपने पारिवारिक इतिहास के बारे में बेबाक़ी से बताते हैं।

जीन के इस इतिहास में जीव जगत को समझने की बालसुलभ ललक है, एक समय में एक ही विषय पर काम कर रहे वैज्ञानिकों के बीच प्रतिस्पर्धा और होड़ का भाव है, अपेक्षित परिणाम न मिलने या निष्कर्ष तक न पहुँच पाने की निराशा है, तोड़ कर रख देने वाली उपेक्षा है, लेकिन उसके साथ महाद्वीपों को लांघता सहयोग और मैत्री का भाव भी है, गुणसूत्र और जीन की पहेलियाँ सुलझाने की अदम्य जिजीविषा है और सारे मान-अपमान, निराशा, उपेक्षा को धता बताने वाली वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रवृत्ति है।

इस किताब में इतने सारे आख्यान, इतनी सारी कहानियाँ एक-दूसरे के समानांतर बख़ूबी चलते रहते हैं कि ताज्जुब होता है। सिद्धार्थ की खूबी यह है कि आख्यानों की इस बहुलता में भी वे पाठकों को अपने सम्मोहक गद्य और विश्लेषण की अद्भुत क्षमता से बांधकर रखते हैं। जीन और आनुवंशिकता के इर्द-गिर्द बुनी गई इस पटकथा में एक के बाद एक पाईथागोरस, अरस्तू, डारविन, मेंडल, फ़्रांसिस गाल्टन, वॉट्सन व क्रिक, रोज़ालिंड फ़्रैंकलिन, विलियम बेटसन, फ़्रान्स्वा जैकब, सिडनी ब्रेनर जैसे वैज्ञानिक उपस्थित होते हैं, अपने समग्र व्यक्तित्व के साथ पूरी जीवंतता में और इस तरह आनुवंशिकता का आख्यान आगे बढ़ता रहता है।

यह किताब जीन के हवाले से वैज्ञानिक प्रयोगों, सफलता-असफलता से सीखने और सीख लेकर आगे बढ़ने की भी कहानी है, जिसमें विज्ञान के साथ-साथ साहित्य, कला और संगीत भी मौजूद है। पढ़िए यह शानदार किताब!

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