— कृष्णाथ —
“क्यों जिन्दगी चलते-चलते
यकायक मौत की तरह लगने लगती है?”– विजयदेव नारायण साही
नदी के उद्गम की तरह, शब्द का उद्गम भी धुन्ध में, अन्धकार में है। कई मुख सुझाये जाते हैं। डेनियल वेल (‘सोशलिज्म’, इण्टरनेशनल इन्साइक्लोपीडिया ऑव द सोशल सायन्सेज, 1968, खण्ड-14, पृष्ठ 506/ 32) के अनुसार फ्रांसीसी में इसका पहला प्रयोग फरवरी 13, 1832 ई. के ग्लोब में हुआ। यहाँ ‘सोशलिस्ट्स’ शब्द सेंट-साइमन के अनुयायियों के अर्थ में प्रयोग किया गया। इसके एक साल पहले भी एक धार्मिक पत्रिका में इस शब्द का प्रयोग खोजा गया है। अंग्रेज इस शब्द को गढ़ने का दावा करते हैं। क्योंकि यह शब्द लन्दन कोआपरेटिव मैगजीन में 1826 में छपा। इसके कई साल बाद राबर्ट ओवेन के अनुयायी अपने को समाजवादी कहने लगे। इस प्रकार यह पद 1830 ई. के आस-पास हवा में था। एक सुगबुगाहट, एक हरकत जैसे नाम-रूप ग्रहण कर ही रही थी। समाजवाद पर पहला निबन्ध 1835 में फ्रांसीसी
‘इन्साइक्लोपीडिया’ में पियरे लेराक्स ने छपाया। यहाँ ‘समाजवाद’, ‘व्यक्तिवाद’ के प्रतिपक्ष के रूप में प्रस्तुत है। जो हो, 1840 ई. के आसपास ‘समाजवाद’ का यूरोप में आमतौर पर प्रयोग होने लगा। कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र (1848) समाजवादी और कम्युनिस्ट आन्दोलनों का इसका एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसकी गूंज-अनुगूँज दुनिया के प्रायः छोर तक कम- वेश तक पहुँच चुकी है।
शब्द के प्रथम प्रयोग के प्रायः 150 वर्ष बाद इसकी व्याप्ति प्रायः विश्वव्यापी है। पश्चिमी यूरोप की उदारवादी व्यक्तिवादी शाखा के विकल्प या प्रतिपक्ष या सहअस्तित्व रूप में, एक चुनौती के रूप में यह तथाकथित पहली दुनिया में भी विद्यमान है। इसका बहुत कुछ पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के महाद्वीपों और देशों में कल्याण राज्य, श्रमिकों की पेन्शन, बीमा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य आदि सामाजिक सुरक्षा की सेवाओं में और विचारों में भी जज्ब हो चुका है। फ्रांस, ब्रिटेन, पश्चिमी जर्मनी, आस्ट्रिया, स्वीडेन आदि पश्चिमी यूरोपीय देशों में समाजवादी सरकारें भी समय-समय पर आती जाती हैं। सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में यह स्थापित राजधर्म है। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के महाद्वीपों और देशों की अनेक सरकारों और शासक वर्गों का यह एक मुखौटा है, शोभा और
अलंकरण है।
अरब समाजवाद, अफ्रीकी समाजवाद, एशियाई समाजवाद, भारतीय समाजवाद जैसे प्रकारों में मूल सैद्धान्तिक विश्लेषण पर स्थानीय कलम और रूपरेखा भी इसकी की गयी है। जो हो, विश्व इतिहास में किसी दृष्टि के इतनी तेजी से फैलने का उदाहरण ढूँढ़ना कठिन है। शायद इस्लाम एक निकट का नमूना है। हजरत मुहम्मद के निधन के 150 साल बाद अतलान्टिक महासागर से लेकर प्रशान्त महासागर तक के कुछ क्षेत्रों में इसकी गूंज अरब घोड़े की टापों के साथ सुनायी पड़ने लगी थी। किन्तु आधुनिक दुनिया में संचार के साधनों के विकास के साथ समाजवाद की व्याप्ति शायद इस्लाम से ज्यादा ही व्यापक है।
फिर एक दृष्टि और पद्धति के नाते समाजवादी आलोचना की एक बड़ी देन है। उन्नीसवीं सदी के पूर्व भी प्रगति की अवधारणा रही है। नाम-रूप भिन्न रहा है। किन्तु यह अवधारणाएं प्रधान रूप से आध्यात्मिक, आंतरिक रही हैं। समाजवादी आलोचना ने प्रगति के सामाजिक-आर्थिक पक्ष को न सिर्फ रेखांकित किया है, बल्कि स्थापित भी किया है। आज-कल प्रगति का परम्परागत आध्यात्मिक अर्थ शायद खोता जा रहा है और सामाजिक-आर्थिक अर्थ प्रतिष्ठित है। शायद यह भी अति है। फिर भी, इस अतिशयोक्ति की भी एक भूमिका है।
तो जब इतनी ऐहिक-लौकिक व्याप्ति है तो फिर प्रासंगिकता का प्रश्न कहाँ? व्यावहारिक रूप में तो समाजवाद नितांत प्रासंगिक है। मैं ही अप्रासंगिक हूँ। बल्कि समाजवादी दुनिया में तो समाजवाद की दृष्टि की परीक्षा करना एक हिमाकत की चीज है। कुफ्र है और इसके लिए अगर सिर कलम न कर दिया जाए तो अप्रकाशन, अपेक्षा और निर्वासन का दण्ड तो न्यूनतम है, जो झेलना है।
फिर भी, ‘अवज्ञा परमो धमः’ एक शील है। यहाँ समाजवादी दृष्टि की परीक्षा का दुस्साहस किया जा रहा है, सो शायद इसी शील या दुःशील का फल है।