— परिचय दास —
विजयदेव नारायण साही हिंदी साहित्य के उन विशिष्ट व्यक्तित्वों में से एक हैं, जिनकी साहित्यिक और आलोचनात्मक दृष्टि ने हिंदी आलोचना की धारा में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उनके विचार और दृष्टिकोण साहित्यिक विमर्श में एक नई दिशा का प्रस्ताव करते हैं, जो मार्क्सवादी आलोचना के परे जाती है। यह समझने के लिए कि साही की गैर-मार्क्सवादी आलोचना कितनी प्रासंगिक और प्रभावी है, हमें उनके समग्र दृष्टिकोण, उनकी साहित्यिक रचनाओं और उनके आलोचनात्मक लेखन की गहराई में उतरना होगा।
साही का साहित्यिक और दार्शनिक दृष्टिकोण एक प्रकार की स्वतंत्रता का पक्षधर है, जिसमें साहित्य और कला को किसी एक विचारधारा के अधीन नहीं देखा जाता। मार्क्सवादी आलोचना में जहाँ साहित्य को सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, वहाँ साही साहित्य को एक स्वतंत्र और स्वायत्त इकाई मानते हैं। वे साहित्य को केवल समाज के प्रतिबिंब या वर्ग संघर्ष के साधन के रूप में नहीं देखते, बल्कि उसे मानवीय अनुभव और सांस्कृतिक संवाद का माध्यम मानते हैं। यह दृष्टिकोण उन्हें उस समय की प्रमुख आलोचना प्रवृत्तियों से अलग करता है, जो मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में थीं।
विजयदेव नारायण साही के विचारों की विशेषता यह है कि उन्होंने साहित्य को मानवीय अनुभवों और भावनाओं के व्यापक संदर्भ में देखा। उनके अनुसार, साहित्य का मूल उद्देश्य केवल किसी विचारधारा का समर्थन या विरोध करना नहीं है बल्कि वह मानवीय संवेदनाओं, अस्तित्व की जटिलताओं और सांस्कृतिक विविधताओं को अभिव्यक्त करने का एक साधन है। साही के विचार में, साहित्यकार का काम केवल समाज की आलोचना करना नहीं है, बल्कि वह जीवन के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण और व्याख्या करता है। साहित्यकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वह अपने समय और समाज के साथ एक सजीव संवाद स्थापित करे, जो केवल सामाजिक और आर्थिक कारकों तक सीमित न हो।
साही की आलोचना में हमें एक प्रकार की बहुआयामी दृष्टि देखने को मिलती है। वे किसी एक सिद्धांत या विचारधारा में बंधकर नहीं चलते। मार्क्सवादी आलोचना जहाँ साहित्य को मुख्यतः सामाजिक और आर्थिक संघर्षों की दृष्टि से देखती है, साही वहाँ साहित्य को एक व्यापक सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भ में रखते हैं। उनके अनुसार, साहित्य केवल समाज का प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि वह समाज के साथ एक संवाद स्थापित करता है। यह संवाद केवल वर्ग संघर्ष या आर्थिक स्थितियों के संदर्भ में नहीं होता, बल्कि यह मानवीय अस्तित्व, सांस्कृतिक पहचान और व्यक्तिगत अनुभवों के स्तर पर भी होता है।
साही के विचार में, साहित्य की भूमिका केवल किसी विचारधारा का समर्थन या विरोध करना नहीं है, बल्कि वह जीवन की जटिलताओं, विरोधाभासों और अनिश्चितताओं का अन्वेषण करता है। उनके अनुसार, साहित्य का उद्देश्य केवल किसी सामाजिक व्यवस्था या राजनीतिक संरचना की आलोचना करना नहीं है, बल्कि वह जीवन की गहराइयों में जाकर उन सवालों का सामना करता है, जो अक्सर किसी विचारधारा के दायरे से बाहर होते हैं। यह दृष्टिकोण साही की आलोचना को एक प्रकार की मौलिकता और स्वतंत्रता प्रदान करता है, जो उस समय की अन्य आलोचना प्रवृत्तियों में कम देखने को मिलती है।
विजयदेव नारायण साही की गैर-मार्क्सवादी आलोचना की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने साहित्य को नैतिकता और मूल्य-निर्माण के संदर्भ में देखा। उनके अनुसार, साहित्य का काम केवल समाज की स्थितियों का विश्लेषण करना नहीं है, बल्कि वह एक प्रकार का नैतिक संवाद भी स्थापित करता है। साहित्यकार अपने समय और समाज के नैतिक प्रश्नों से जूझता है और उन पर विचार करता है। यह नैतिकता किसी विचारधारा से निर्देशित नहीं होती बल्कि यह मानवीय अनुभवों और संवेदनाओं से उत्पन्न होती है। साही के विचार में, साहित्य एक प्रकार का नैतिक अन्वेषण है, जो समाज और व्यक्ति के बीच संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करता है।
साही की आलोचना में एक और महत्वपूर्ण तत्व यह है कि वे साहित्य को एक प्रकार की स्वायत्त इकाई मानते हैं। उनके अनुसार, साहित्य का मूल्य केवल उसके सामाजिक या राजनीतिक संदर्भों में नहीं है, बल्कि वह अपने आप में एक स्वतंत्र और स्वायत्त कला है। यह स्वायत्तता साहित्य को किसी भी विचारधारा या सिद्धांत के अधीन नहीं होने देती। साही के अनुसार, साहित्य को केवल एक विचारधारा के चश्मे से देखना उसकी बहुआयामीता और गहराई को सीमित करना है। वे साहित्य को मानवीय अनुभव और सांस्कृतिक संवाद का एक स्वतंत्र क्षेत्र मानते हैं, जहाँ विभिन्न दृष्टिकोण, भावनाएँ और अनुभव आपस में टकराते हैं और नए अर्थ उत्पन्न करते हैं।
साही का यह दृष्टिकोण उन्हें मार्क्सवादी आलोचना से अलग करता है, जो साहित्य को मुख्यतः आर्थिक और वर्ग संघर्ष के संदर्भ में देखती है। साही के विचार में, साहित्य का मूल्य केवल उसकी सामाजिक उपयोगिता में नहीं है, बल्कि वह अपने आप में एक मूल्यवान और स्वतंत्र कला है। साहित्य केवल समाज का प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि वह समाज के साथ एक सजीव और स्वतंत्र संवाद स्थापित करता है। यह संवाद केवल सामाजिक और आर्थिक कारकों तक सीमित नहीं होता, बल्कि वह मानवीय अस्तित्व, सांस्कृतिक पहचान और व्यक्तिगत अनुभवों के स्तर पर भी होता है।
साही की गैर-मार्क्सवादी आलोचना की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने साहित्य को एक सांस्कृतिक संवाद के रूप में देखा। उनके अनुसार, साहित्य केवल सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि वह विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं, मान्यताओं और मूल्यों के बीच संवाद स्थापित करता है। यह सांस्कृतिक संवाद साहित्य को एक प्रकार की व्यापकता और विविधता प्रदान करता है, जो किसी भी विचारधारा के दायरे से बाहर होती है। साही के अनुसार, साहित्य का काम केवल समाज की स्थितियों का विश्लेषण करना नहीं है, बल्कि वह जीवन की गहराइयों में जाकर उन सवालों का सामना करता है, जो अक्सर किसी विचारधारा के दायरे से बाहर होते हैं।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना में इस प्रकार की मौलिकता और स्वतंत्रता उन्हें हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। उनके विचारों में साहित्य की स्वायत्तता, नैतिकता और सांस्कृतिक संवाद की जो अवधारणा है, वह उन्हें उस समय की प्रमुख आलोचना प्रवृत्तियों से अलग करती है। साही के विचार में, साहित्य को केवल एक विचारधारा के चश्मे से देखना उसकी बहुआयामीता और गहराई को सीमित करना है। वे साहित्य को मानवीय अनुभव और सांस्कृतिक संवाद का एक स्वतंत्र क्षेत्र मानते हैं, जहाँ विभिन्न दृष्टिकोण, भावनाएँ और अनुभव आपस में टकराते हैं और नए अर्थ उत्पन्न करते हैं।
इस प्रकार, विजयदेव नारायण साही की गैर-मार्क्सवादी आलोचना हिंदी साहित्य में एक नई दिशा प्रदान करती है। उनके विचारों में साहित्य की स्वायत्तता, नैतिकता और सांस्कृतिक संवाद की जो अवधारणा है, वह हिंदी आलोचना की धारा में एक महत्वपूर्ण योगदान है। साही के विचार में, साहित्य केवल समाज का प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि वह समाज के साथ एक सजीव और स्वतंत्र संवाद स्थापित करता है। यह संवाद केवल सामाजिक और आर्थिक कारकों तक सीमित नहीं होता, बल्कि वह मानवीय अस्तित्व, सांस्कृतिक पहचान और व्यक्तिगत अनुभवों के स्तर पर भी होता है।
विजयदेव नारायण साही का हिंदी समालोचना में स्थान एक विशिष्ट और मौलिक रूप में स्थापित है। उनकी समालोचना को समकालीन आलोचना परंपराओं से अलग और मौलिक इसलिए माना जाता है क्योंकि उन्होंने साहित्यिक मूल्यांकन के लिए न तो केवल एक विशेष विचारधारा का सहारा लिया और न ही किसी सैद्धांतिक ढांचे में अपने विचारों को कैद किया। साही ने साहित्य को व्यापक दृष्टिकोण से देखा, जिसमें साहित्य की आंतरिक बनावट, उसके मानवीय पक्ष और सांस्कृतिक परिवेश को समझने पर जोर दिया गया। इस प्रक्रिया में साही का कार्य साहित्य और समालोचना के मानदंडों को पुनः परिभाषित करना था।
विजयदेव नारायण साही ने हिंदी आलोचना को विचारधारा के जटिल जाल से मुक्त करने का प्रयास किया। उन्होंने समालोचना के उस चलन का विरोध किया, जिसमें साहित्यिक रचना को एक विचारधारा के संदर्भ में बाँधकर देखा जाता था। विशेष रूप से, वे मार्क्सवादी दृष्टिकोण के प्रति सतर्क थे, जो साहित्य को आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं के संदर्भ में सीमित करता है। साही ने साहित्य को केवल सामाजिक वर्ग संघर्ष के परिणाम के रूप में देखने के बजाय उसे मानवीय संवेदनाओं, अनुभवों और जटिलताओं का परिणाम माना। उनका मानना था कि साहित्य किसी भी युग का केवल चित्रण नहीं करता, बल्कि उसे रचनात्मक रूप से व्यक्त करता है। इस प्रकार, साहित्य अपने आप में एक स्वतंत्र अस्तित्व रखता है, जिसका मूल्यांकन केवल सामाजिक, राजनीतिक, या आर्थिक सिद्धांतों के आधार पर नहीं किया जा सकता।
साही ने साहित्य के मूल्यों को खोजने और समझने के लिए एक खुली और बहुआयामी दृष्टि विकसित की। उन्होंने इस दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया कि साहित्य की आलोचना करते समय, आलोचक को रचना के भीतर के विविध तत्वों—रचनात्मकता, संवेदनशीलता, भाषा, और भावनात्मक स्तर—पर ध्यान देना चाहिए। साही के लिए, साहित्य का मूल्य उसके गहरे मानवीय और सांस्कृतिक संदर्भों में निहित था। वे मानते थे कि साहित्य एक संवाद है, जिसमें लेखक अपने समय, समाज और संस्कृति के साथ संवाद करता है, और इसे एक व्यापक मानवीय परिप्रेक्ष्य से समझना आवश्यक है। यह दृष्टिकोण हिंदी आलोचना में एक नई सोच को जन्म देता है, जिसमें रचना के समग्र पक्षों की ओर ध्यान दिया जाता है, बजाय इसके कि उसे किसी एक विचारधारा के सीमित ढांचे में रखा जाए।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना में एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने साहित्यिक भाषा और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर दिया। साही का मानना था कि भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं है, बल्कि यह एक सृजनात्मक उपकरण है जो साहित्य को जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं से जोड़ता है। साही ने भाषा की इस सृजनात्मकता को महत्वपूर्ण माना और इसे साहित्य के मूल्यांकन का महत्वपूर्ण मानदंड बनाया। उनके अनुसार, एक साहित्यिक रचना की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि वह भाषा के माध्यम से कितनी सजीव और प्रभावी अभिव्यक्ति प्रदान करती है। साही की इस दृष्टि ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी, जिसमें भाषा के सृजनात्मक उपयोग और उसकी संभावनाओं को अधिक महत्व दिया गया।
साहित्यिक आलोचना में साही के मौलिक योगदान का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्होंने साहित्यिक रचनाओं को केवल विषयवस्तु या कथ्य तक सीमित नहीं किया, बल्कि उन्होंने शिल्प, शैली, और साहित्यिक संरचनाओं पर भी जोर दिया। साही के अनुसार, साहित्य केवल विचारों का वाहक नहीं होता, बल्कि वह एक कला है, जिसमें रूप और शिल्प का अपना महत्वपूर्ण स्थान होता है। उन्होंने इस बात पर ध्यान दिलाया कि साहित्यिक रचना का मूल्यांकन करते समय उसकी कलात्मकता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह दृष्टिकोण हिंदी आलोचना में उस समय एक नए प्रकार की सोच को जन्म देता है, जब साहित्य को मुख्य रूप से उसके सामाजिक या राजनीतिक संदेश के आधार पर आंका जा रहा था।
साही की आलोचना का एक और महत्वपूर्ण आयाम यह था कि उन्होंने साहित्यिक रचनाओं को उनके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों में समझने की वकालत की। उनके अनुसार, किसी भी साहित्यिक रचना को उसके समय और समाज से अलग करके नहीं समझा जा सकता। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साहित्य को उस सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसमें वह उत्पन्न हुआ है। यह दृष्टिकोण उन्हें उस समय की प्रचलित आलोचना प्रवृत्तियों से अलग करता है, जहाँ रचनाओं को सामान्यीकृत सिद्धांतों के आधार पर देखा जा रहा था। साही ने साहित्य को उसकी विशेषताओं और संदर्भों में समझने की आवश्यकता पर बल दिया, जिससे साहित्यिक रचनाओं के मूल्यांकन का दायरा व्यापक हुआ।
साही के विचार में, साहित्यिक आलोचना का कार्य केवल साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन करना नहीं है, बल्कि उसे एक प्रकार का सांस्कृतिक और दार्शनिक संवाद स्थापित करना चाहिए। उन्होंने आलोचना को एक रचनात्मक प्रक्रिया के रूप में देखा, जिसमें आलोचक का काम केवल रचना की खामियों को उजागर करना नहीं है, बल्कि उसके विभिन्न पहलुओं को समझना और उसकी सृजनात्मकता को पहचानना है। साही के अनुसार, आलोचना का कार्य रचनात्मकता को बढ़ावा देना और साहित्यिक संवाद को समृद्ध करना होना चाहिए। यह दृष्टिकोण उनकी आलोचना को एक प्रकार की सृजनात्मक स्वतंत्रता और गहराई प्रदान करता है, जो उन्हें हिंदी आलोचना में एक विशिष्ट स्थान दिलाता है।
विजयदेव नारायण साही का साहित्यिक योगदान इस बात में निहित है कि उन्होंने हिंदी समालोचना को एक नया आयाम और दृष्टिकोण प्रदान किया। उनके विचारों में साहित्य की स्वायत्तता, उसकी सृजनात्मकता, और भाषा की अभिव्यक्ति की जो अवधारणा थी, वह उस समय की आलोचना प्रवृत्तियों से अलग थी। उन्होंने साहित्य को एक स्वतंत्र कला के रूप में देखा, जो अपने आप में एक संपूर्णता रखता है और जिसे केवल विचारधारा के संदर्भ में नहीं समझा जा सकता। साही की आलोचना ने हिंदी साहित्यिक विमर्श को एक नई दिशा प्रदान की, जिसमें साहित्य को उसकी समग्रता में देखने और समझने का प्रयास किया गया।
साही ने इस बात पर जोर दिया कि साहित्य केवल सामाजिक या राजनीतिक संदर्भों में सीमित नहीं है, बल्कि वह जीवन के विभिन्न पहलुओं—मानवीय संवेदनाओं, अस्तित्व की जटिलताओं, और सांस्कृतिक विविधताओं—का अभिव्यक्ति माध्यम है। उन्होंने साहित्य को मानवीय अनुभवों के संवाद के रूप में देखा, जिसमें लेखक अपने समाज, समय और संस्कृति के साथ एक गहरे स्तर पर संवाद करता है। साही के अनुसार, साहित्य का उद्देश्य केवल किसी विचारधारा का समर्थन या विरोध करना नहीं है, बल्कि वह जीवन की गहराइयों में जाकर उन सवालों का सामना करता है, जो अक्सर किसी सिद्धांत के दायरे से बाहर होते हैं। यही वजह है कि साही की आलोचना में एक प्रकार की मौलिकता और स्वतंत्रता दिखाई देती है, जो उन्हें हिंदी आलोचना के परिदृश्य में विशिष्ट स्थान दिलाती है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना में इस प्रकार की व्यापक दृष्टि और सृजनात्मकता उन्हें हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और विशिष्ट स्थान दिलाती है। उन्होंने साहित्य और समालोचना को केवल विचारधारा के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसे मानवीय संवेदनाओं और सांस्कृतिक संवाद के एक व्यापक क्षेत्र में रखा। उनके विचारों ने हिंदी साहित्यिक आलोचना को एक नई दिशा और गहराई प्रदान की, जिसमें साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और उसका मूल्यांकन करने की बात की गई। उनके इस मौलिक योगदान ने हिंदी आलोचना को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया और उसे समकालीन आलोचना प्रवृत्तियों से अलग एक विशिष्ट पहचान दी।
विजयदेव नारायण साही और गजानन माधव मुक्तिबोध हिंदी साहित्य में आलोचना के दो प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। दोनों के आलोचना कार्यों ने हिंदी साहित्य को नई दिशा और दृष्टि दी लेकिन दोनों के दृष्टिकोण और आलोचना की विधियों में गहरे अंतर भी रहे। जहाँ मुक्तिबोध का आलोचनात्मक दृष्टिकोण मुख्य रूप से मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित था और उन्होंने साहित्य को सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में देखा, वहीं साही का दृष्टिकोण अधिक समावेशी और स्वतंत्र था। साही की आलोचना की गहराई और विविधता ने उन्हें कई मायनों में मुक्तिबोध से बेहतर आलोचक के रूप में स्थापित किया है। इस लेख में हम साही की आलोचना को मुक्तिबोध से तुलना करते हुए इस बात का विवेचन करेंगे कि वे क्यों और कैसे बेहतर आलोचक साबित होते हैं।
मुक्तिबोध का आलोचनात्मक दृष्टिकोण मुख्यतः मार्क्सवादी सिद्धांतों पर आधारित था। उन्होंने साहित्य को वर्ग संघर्ष, आर्थिक शोषण, और सामाजिक असमानताओं के संदर्भ में देखा और समझा। उनके लिए साहित्य समाज की सामाजिक संरचनाओं का प्रतिबिंब था, जो एक आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष के माध्यम से समाज के परिवर्तन का साधन बन सकता था। मुक्तिबोध की आलोचना में साहित्य के विश्लेषण का यह दृष्टिकोण महत्वपूर्ण था, लेकिन यह दृष्टिकोण अक्सर साहित्य की कलात्मकता और सृजनात्मकता को सीमित कर देता है। मुक्तिबोध की आलोचना में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि उन्होंने साहित्यिक रचनाओं को उनके सामाजिक और आर्थिक संदर्भों में बाँध दिया, जिससे साहित्य की सृजनात्मक और भावनात्मक गहराइयों को समझने में कमी आई।
दूसरी ओर, विजयदेव नारायण साही की आलोचना में साहित्य के प्रति एक व्यापक और समावेशी दृष्टिकोण दिखाई देता है। साही ने साहित्य को केवल समाज के आर्थिक और राजनीतिक संदर्भों में सीमित नहीं किया, बल्कि उसे एक स्वतंत्र कला के रूप में देखा। साही के लिए साहित्य केवल सामाजिक संरचनाओं का प्रतिबिंब नहीं था, बल्कि वह मानवीय संवेदनाओं, अस्तित्व की जटिलताओं, और सांस्कृतिक संवाद का एक माध्यम था। उन्होंने साहित्य की स्वायत्तता को महत्वपूर्ण माना और उसे किसी विचारधारा के अधीन रखने का विरोध किया। यह दृष्टिकोण साही को मुक्तिबोध से अलग और बेहतर आलोचक बनाता है, क्योंकि उन्होंने साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और मूल्यांकन करने का प्रयास किया।
साही का एक और महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने साहित्य को एक सांस्कृतिक संवाद के रूप में देखा। उनके अनुसार, साहित्य केवल सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि वह विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं, मान्यताओं, और मूल्यों के बीच संवाद स्थापित करता है। यह सांस्कृतिक संवाद साहित्य को एक व्यापकता और विविधता प्रदान करता है, जो मुक्तिबोध की आलोचना में कम दिखाई देती है। मुक्तिबोध का ध्यान मुख्यतः समाज की आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं पर था, जबकि साही ने साहित्य को इनसे परे जाकर देखा और उसे एक बहुआयामी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया।
साही की आलोचना में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने साहित्यिक रचनाओं को उनके शिल्प, भाषा और शैली के संदर्भ में समझने का प्रयास किया। उनके अनुसार, साहित्य केवल विचारों का वाहक नहीं है, बल्कि वह एक कला है, जिसमें शिल्प और शैली का अपना महत्वपूर्ण स्थान होता है। साही ने साहित्यिक रचनाओं के इस कलात्मक पक्ष को पहचाना और उसे आलोचना का महत्वपूर्ण मानदंड बनाया। इसके विपरीत, मुक्तिबोध की आलोचना में साहित्य की कलात्मकता और शिल्प के प्रति अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया गया है। मुक्तिबोध का ध्यान मुख्यतः साहित्य के सामाजिक संदेश और उसकी राजनीतिक प्रासंगिकता पर था, जिससे साहित्य की कलात्मकता को समझने में कमी आई।
साही की आलोचना की एक और विशेषता यह थी कि उन्होंने साहित्य को मानवीय अस्तित्व और व्यक्तिगत अनुभवों के संदर्भ में समझने का प्रयास किया। उनके अनुसार, साहित्य का काम केवल समाज की आलोचना करना नहीं है, बल्कि वह मानवीय संवेदनाओं, अस्तित्व की जटिलताओं और व्यक्तिगत अनुभवों का भी अन्वेषण करता है। यह दृष्टिकोण उन्हें मुक्तिबोध से अलग करता है, जिनकी आलोचना में साहित्य को मुख्य रूप से एक सामाजिक-राजनीतिक उपकरण के रूप में देखा गया था। साही ने साहित्य को एक अधिक व्यापक और व्यक्तिगत संदर्भ में देखा, जिससे उनकी आलोचना में एक प्रकार की गहराई और मानवीयता आई।
मुक्तिबोध की आलोचना का एक प्रमुख पक्ष यह था कि उन्होंने साहित्य को समाज के आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के संदर्भ में देखा। यह दृष्टिकोण उस समय की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के लिए प्रासंगिक था, लेकिन यह साहित्य की सृजनात्मकता और स्वतंत्रता को सीमित करता है। मुक्तिबोध का ध्यान मुख्यतः समाज की आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं पर था, जिससे साहित्य की कलात्मकता और मानवीय पक्ष को समझने में कमी आई। इसके विपरीत, साही ने साहित्य को एक स्वतंत्र कला के रूप में देखा, जिसमें शिल्प, भाषा, और मानवीय अनुभवों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। यह दृष्टिकोण साही को मुक्तिबोध से अलग और बेहतर आलोचक बनाता है।
साही की आलोचना में साहित्य की स्वायत्तता और उसकी सृजनात्मकता को महत्वपूर्ण माना गया है। उनके अनुसार, साहित्य केवल समाज का प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि वह एक स्वतंत्र और स्वायत्त कला है, जिसका मूल्यांकन केवल विचारधारा के आधार पर नहीं किया जा सकता। साही के इस दृष्टिकोण ने हिंदी आलोचना को एक नई दिशा दी, जिसमें साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और उसका मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया। यह दृष्टिकोण उन्हें मुक्तिबोध से अलग और अधिक समावेशी बनाता है, क्योंकि उन्होंने साहित्य को किसी विचारधारा के सीमित दायरे में नहीं बाँधा।
साही की आलोचना में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उन्होंने साहित्य को एक नैतिक और सांस्कृतिक संवाद के रूप में देखा। उनके अनुसार, साहित्य का काम केवल समाज की आलोचना करना नहीं है, बल्कि वह जीवन की गहराइयों में जाकर उन सवालों का सामना करता है, जो अक्सर किसी विचारधारा के दायरे से बाहर होते हैं। साही ने साहित्य को एक नैतिक अन्वेषण के रूप में देखा, जिसमें लेखक अपने समय, समाज, और संस्कृति के साथ संवाद करता है। यह दृष्टिकोण साही की आलोचना को एक प्रकार की गहराई और व्यापकता प्रदान करता है, जो मुक्तिबोध की आलोचना में कम दिखाई देती है।
अंततः, साही की आलोचना की एक और विशेषता यह थी कि उन्होंने साहित्य को किसी भी एक विचारधारा या सिद्धांत के अधीन नहीं रखा। उन्होंने साहित्य को एक स्वतंत्र और स्वायत्त इकाई माना, जिसका मूल्यांकन उसके शिल्प, भाषा, और मानवीय अनुभवों के आधार पर किया जाना चाहिए। साही का यह दृष्टिकोण हिंदी साहित्यिक आलोचना में एक नई सोच को जन्म देता है, जिसमें साहित्य की सृजनात्मकता और कलात्मकता को अधिक महत्व दिया गया है। इसके विपरीत, मुक्तिबोध की आलोचना में साहित्य को मुख्यतः समाज की आर्थिक और राजनीतिक संरचनाओं के संदर्भ में देखा गया, जिससे उसकी सृजनात्मकता और कलात्मकता को समझने में कमी आई।
इस प्रकार, विजयदेव नारायण साही की आलोचना की गहराई, व्यापकता, और मानवीय दृष्टिकोण उन्हें मुक्तिबोध से बेहतर आलोचक बनाता है। साही ने साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और उसका मूल्यांकन करने का प्रयास किया, जबकि मुक्तिबोध की आलोचना में साहित्य को मुख्यतः सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में सीमित कर दिया गया। साही की आलोचना में साहित्य की स्वायत्तता, उसकी सृजनात्मकता, और मानवीय अनुभवों की जो गहराई है, वह उन्हें हिंदी आलोचना के परिदृश्य में एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान दिलाती है।
विजयदेव नारायण साही और सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ दोनों हिंदी साहित्य के प्रमुख विचारकों में से हैं, लेकिन उनके साहित्यिक दृष्टिकोण और चिंतन के बीच गहरे भेद भी हैं। जहाँ अज्ञेय एक ओर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अस्तित्ववाद, और आधुनिकतावादी दृष्टिकोण के समर्थक माने जाते हैं, वहीं साही ने साहित्य और समाज को एक बहुआयामी दृष्टिकोण से देखने की वकालत की। साही के आलोचनात्मक और चिंतनशील दृष्टिकोण ने उन्हें न केवल अपने समय के बौद्धिक विमर्श में प्रमुख स्थान दिया, बल्कि उन्हें अज्ञेय से भी अधिक मौलिक और समग्र विचारक के रूप में स्थापित किया।
अज्ञेय के साहित्यिक चिंतन का मुख्य फोकस व्यक्तिवाद, अस्तित्ववादी दर्शन, और आत्ममुक्ति पर था। उनके लिए साहित्य एक निजी अनुभव का माध्यम था, जिसमें लेखक की स्वायत्तता और स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती थी। उन्होंने साहित्य को आत्म-अभिव्यक्ति और आत्म-अन्वेषण का साधन माना, और इस प्रक्रिया में समाज और उसकी जटिलताओं को प्राथमिकता नहीं दी। अज्ञेय के विचारों में आधुनिकतावाद का प्रभाव गहरा था, जिसमें व्यक्तिवाद और आत्मपरकता को सर्वोच्च स्थान दिया गया। उनके लिए साहित्यिक रचनाएँ एक निजी अनुभव और व्यक्तिगत सत्य की खोज थी, जो सामूहिकता या सामाजिक संदर्भों से परे होती थी।
दूसरी ओर, विजयदेव नारायण साही का साहित्यिक चिंतन अधिक समग्र और समाज-सापेक्ष था। उन्होंने साहित्य को केवल आत्म-अभिव्यक्ति या व्यक्तिगत अनुभव तक सीमित नहीं किया, बल्कि उसे एक सामाजिक, सांस्कृतिक, और नैतिक संवाद का माध्यम माना। साही के अनुसार, साहित्य का उद्देश्य केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता और अस्तित्व की खोज नहीं है, बल्कि वह समाज और संस्कृति के साथ एक गहरे संवाद का साधन है। उन्होंने साहित्य को एक व्यापक मानवता और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता पर बल दिया। इस दृष्टिकोण ने उन्हें अज्ञेय से अलग और अधिक गहराईपूर्ण विचारक बनाया, क्योंकि उन्होंने साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और मूल्यांकन करने का प्रयास किया।
अज्ञेय के साहित्यिक दर्शन में व्यक्ति की स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर विशेष जोर दिया गया था। उनके अनुसार, साहित्य का काम व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता और आत्ममुक्ति की खोज करना था। अज्ञेय का यह दृष्टिकोण उन्हें पश्चिमी अस्तित्ववादी दार्शनिकों, जैसे जाँ-पाल सार्त्र और अल्बर्ट कामू, के विचारों के करीब लाता है। उन्होंने साहित्य को एक व्यक्तिगत प्रयास माना, जिसमें लेखक अपने अनुभवों और संवेदनाओं को व्यक्त करता है। लेकिन इस दृष्टिकोण में साहित्य के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष की उपेक्षा हो जाती है, जो साही के विचारों में प्रमुख था। साही के अनुसार, साहित्य केवल व्यक्तिगत अनुभवों का दस्तावेज नहीं है, बल्कि वह समाज और संस्कृति के साथ एक संवाद स्थापित करता है।
साही ने साहित्य की सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिकाओं पर अधिक ध्यान दिया। उनके अनुसार, साहित्य केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता और आत्म-अन्वेषण तक सीमित नहीं है, बल्कि वह समाज के विभिन्न पक्षों—आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक—के साथ संवाद करता है। साही का मानना था कि साहित्य केवल व्यक्ति का नहीं, बल्कि समाज का भी एक दस्तावेज है, जिसमें सामाजिक संरचनाएँ, सांस्कृतिक परंपराएँ, और नैतिक मूल्य अभिव्यक्त होते हैं। यह दृष्टिकोण उन्हें अज्ञेय से अलग और बेहतर विचारक बनाता है, क्योंकि उन्होंने साहित्य को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा, जिसमें समाज और संस्कृति के जटिल संबंधों को समझने का प्रयास किया गया।
अज्ञेय का ध्यान मुख्यतः व्यक्तिवाद और आत्मपरकता पर था। उनके अनुसार, लेखक की स्वायत्तता सर्वोपरि है और साहित्य का काम व्यक्ति की स्वतंत्रता और आत्म-अन्वेषण की खोज करना है। उन्होंने साहित्य को एक निजी अनुभव माना, जिसमें लेखक अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करता है। लेकिन इस दृष्टिकोण में साहित्य के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों की उपेक्षा हो जाती है। साही ने इस बात को समझा और साहित्य को एक व्यापक संदर्भ में देखने की वकालत की। उनके अनुसार, साहित्य केवल आत्म-अन्वेषण तक सीमित नहीं है, बल्कि वह समाज और संस्कृति के साथ एक संवाद स्थापित करता है। यह दृष्टिकोण साही को अज्ञेय से बेहतर विचारक बनाता है, क्योंकि उन्होंने साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और मूल्यांकन करने का प्रयास किया।
साही का साहित्यिक चिंतन इस बात पर आधारित था कि साहित्य एक नैतिक और सांस्कृतिक संवाद का माध्यम है। उनके अनुसार, साहित्य केवल व्यक्तिगत अनुभवों का दस्तावेज नहीं है, बल्कि वह समाज के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों का भी प्रतिनिधित्व करता है। साही का यह दृष्टिकोण उन्हें अज्ञेय से अलग और बेहतर विचारक बनाता है, क्योंकि उन्होंने साहित्य को एक व्यापक मानवीय और नैतिक संदर्भ में देखा। अज्ञेय के विपरीत, जिन्होंने साहित्य को मुख्यतः व्यक्ति की आत्म-अन्वेषण की प्रक्रिया माना, साही ने साहित्य को समाज और संस्कृति के साथ एक गहरे संवाद के रूप में देखा।
अज्ञेय का ध्यान आधुनिकतावाद और अस्तित्ववाद पर था, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता और आत्म-मुक्ति की खोज सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती थी। लेकिन इस दृष्टिकोण में साहित्य के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों की उपेक्षा हो जाती है। साही ने इस बात को पहचाना और साहित्य को एक समग्र दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया। उनके अनुसार, साहित्य केवल व्यक्ति का नहीं, बल्कि समाज और संस्कृति का भी एक दस्तावेज है, जिसमें विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, और नैतिक मूल्य अभिव्यक्त होते हैं। यह दृष्टिकोण साही को अज्ञेय से बेहतर विचारक बनाता है, क्योंकि उन्होंने साहित्य को उसकी समग्रता में समझने और मूल्यांकन करने का प्रयास किया।
साही का साहित्यिक चिंतन इस बात पर आधारित था कि साहित्य एक सामाजिक, सांस्कृतिक, और नैतिक संवाद का माध्यम है। उनके अनुसार, साहित्य केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता और आत्म-अन्वेषण तक सीमित नहीं है, बल्कि वह समाज और संस्कृति के साथ एक गहरे संवाद का माध्यम है। साही के इस दृष्टिकोण ने उन्हें हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया और उन्हें अज्ञेय से अलग और बेहतर विचारक के रूप में स्थापित किया।
विजयदेव नारायण साही का साहित्यिक दृष्टिकोण अधिक समावेशी और व्यापक था। उन्होंने साहित्य को केवल आत्म-अन्वेषण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता तक सीमित नहीं किया, बल्कि उसे एक सामाजिक और सांस्कृतिक संवाद का माध्यम माना। साही के अनुसार, साहित्य केवल व्यक्ति का नहीं, बल्कि समाज का भी एक दस्तावेज है, जिसमें विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, और नैतिक मूल्य अभिव्यक्त होते हैं। यह दृष्टिकोण साही को अज्ञेय से अलग और बेहतर विचारक बनाता है, क्योंकि उन्होंने साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और मूल्यांकन करने का प्रयास किया।
अज्ञेय के विपरीत, जिन्होंने साहित्य को मुख्यतः व्यक्ति की आत्म-अन्वेषण की प्रक्रिया माना, साही ने साहित्य को समाज और संस्कृति के साथ एक गहरे संवाद के रूप में देखा। उनके अनुसार, साहित्य का काम केवल आत्म-अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह समाज और संस्कृति के साथ संवाद करता है। यही दृष्टिकोण साही को अज्ञेय से बेहतर विचारक बनाता है।
अंततः, साही की साहित्यिक दृष्टि अधिक समग्र और बहुआयामी थी। उन्होंने साहित्य को एक नैतिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक संवाद के रूप में देखा, जिसमें व्यक्ति और समाज के बीच एक गहरा संबंध होता है। अज्ञेय के विपरीत, जिन्होंने साहित्य को मुख्यतः आत्म-अभिव्यक्ति का साधन माना, साही ने साहित्य को एक व्यापक और समावेशी दृष्टिकोण से देखा। यही कारण है कि विजयदेव नारायण साही को अज्ञेय से बेहतर विचारक माना जा सकता है। उनकी समग्र दृष्टि, समाज-सापेक्ष दृष्टिकोण, और साहित्य के नैतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर उनका ध्यान उन्हें हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय स्थान दिलाता है।
विजयदेव नारायण साही हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण नाम हैं, जिन्होंने साहित्य को समझने, व्याख्या करने और उसे मूल्यांकित करने के लिए एक मौलिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। साही ने साहित्य को केवल किसी विचारधारा के अधीन मानने के बजाय, उसे स्वतंत्र और बहुआयामी रूप में देखने का आग्रह किया। उनके लिए साहित्य मात्र सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तनों का उपकरण नहीं था बल्कि एक सृजनात्मक, मानवीय और नैतिक संवाद का माध्यम था। साही की दृष्टि साहित्य के शिल्प, उसकी संरचना और उसकी अंतर्वस्तु के भीतर छिपे मानवीय अनुभवों की गहराई तक पहुँचने का प्रयास करती है।
साहित्य की व्याख्या और समझ के संदर्भ में साही का दृष्टिकोण अधिक खुला और व्यापक था। उन्होंने इसे एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा, जो सिर्फ किसी एक विचारधारा, राजनीति या सामाजिक सिद्धांत से परे जाती है। साही के अनुसार, साहित्य को समझने के लिए हमें उसकी समग्रता को देखना होगा—न केवल उसके विषयवस्तु को, बल्कि उसके शिल्प, भाषा, शैली और लेखक की दृष्टि को भी। वे मानते थे कि साहित्य की सही व्याख्या तभी संभव है जब हम उसकी बहुआयामीता को समझें और उसे उसकी जटिलताओं के साथ आत्मसात करें।
साहित्य की व्याख्या के लिए साही ने एक स्वतंत्र और आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें साहित्य की कलात्मकता और उसके मानवीय पक्षों को महत्व दिया गया। उनके अनुसार, साहित्य केवल समाज का प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि वह मानव अनुभवों, संवेदनाओं और जीवन के गहरे सवालों का अन्वेषण भी करता है। उन्होंने साहित्य को विचारधारात्मक चश्मों से देखे जाने का विरोध किया और उसकी सृजनात्मकता, संवेदनशीलता और नैतिकता पर अधिक जोर दिया। उनके लिए साहित्य का उद्देश्य केवल सामाजिक परिवर्तन लाना नहीं है, बल्कि वह मानवीय अस्तित्व के गहरे और जटिल सवालों का सामना भी करता है।
साही की दृष्टि में साहित्य का विश्लेषण करते समय हमें उसकी स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए। उनके अनुसार, साहित्य को किसी विशेष राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा के तहत बाँधकर उसकी व्याख्या करना साहित्य की समग्रता को नुकसान पहुँचाता है। उन्होंने साहित्य को एक स्वतंत्र कला के रूप में देखा, जिसमें भाषा, शैली और शिल्प का अपना महत्त्व होता है। साही के लिए साहित्यिक कृति की व्याख्या केवल उसके विषयवस्तु तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसमें निहित शिल्प, संरचना, और उसकी कलात्मकता को भी समझना आवश्यक है।
साही के साहित्यिक दृष्टिकोण में मानवीय संवेदनाओं और नैतिक प्रश्नों का गहरा स्थान था। उनके अनुसार, साहित्य का कार्य केवल विचारधारा या सामाजिक संरचनाओं का अन्वेषण करना नहीं है, बल्कि वह मानवीय अस्तित्व की जटिलताओं और नैतिक सवालों का सामना करता है। साही की यह दृष्टि उन्हें एक विशिष्ट आलोचक बनाती है, जो साहित्य को एक नैतिक और मानवीय संवाद के रूप में देखता है। उनके अनुसार, साहित्यकार समाज से संवाद करते हुए मानवीय मूल्य और नैतिकता के प्रश्नों पर भी विचार करता है, और इस प्रक्रिया में वह न केवल समाज को प्रभावित करता है, बल्कि उससे स्वयं भी प्रभावित होता है।
साही ने साहित्य की व्याख्या में एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया, जो न केवल आलोचनात्मक था, बल्कि संवेदनशील और खुला भी था। उनके अनुसार, साहित्य केवल विचारधाराओं के प्रचार का माध्यम नहीं है, बल्कि वह मानवीय भावनाओं, इच्छाओं, और समाज की जटिलताओं का एक सृजनात्मक चित्रण है। साही का मानना था कि साहित्य की सही व्याख्या तभी संभव है जब हम इसे एक स्वतंत्र कला के रूप में देखें, जिसमें लेखक की दृष्टि, उसकी भाषा और उसके शिल्प का समावेश होता है।
साही की दृष्टि में साहित्य का काम केवल सामाजिक संरचनाओं का विश्लेषण करना नहीं है, बल्कि वह मानवीय अनुभवों का भी अन्वेषण करता है। उनके अनुसार, साहित्य का सबसे बड़ा मूल्य उसकी मानवीयता और नैतिकता में निहित होता है। साहित्य समाज के उन पहलुओं को उजागर करता है, जो अक्सर विचारधाराओं या राजनीतिक संरचनाओं के तहत छिपे रहते हैं। साही का मानना था कि साहित्य की व्याख्या करते समय हमें उसकी जटिलताओं और उसकी गहराई को समझने की कोशिश करनी चाहिए, न कि उसे किसी पूर्वनिर्धारित ढाँचे में बाँधने की।
साही के साहित्यिक दृष्टिकोण में साहित्य को समझने की यह गहनता और समग्रता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। उन्होंने साहित्य को एक ऐसा माध्यम माना, जो व्यक्ति और समाज के बीच एक संवाद स्थापित करता है। साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं, मान्यताओं और मूल्यों पर सवाल उठाता है, और इस प्रक्रिया में वह पाठक को भी उन प्रश्नों का सामना करने के लिए प्रेरित करता है। साही की दृष्टि में साहित्य का काम केवल मनोरंजन या सामाजिक आलोचना करना नहीं है, बल्कि वह जीवन के गहरे और जटिल सवालों का सामना भी करता है।
विजयदेव नारायण साही का साहित्यिक योगदान इस बात में निहित है कि उन्होंने साहित्य को एक स्वतंत्र और सृजनात्मक दृष्टि से देखने का आग्रह किया। उनके अनुसार, साहित्य की सही व्याख्या तभी संभव है जब हम उसे उसकी समग्रता में देखें—उसके शिल्प, उसकी भाषा, उसकी शैली, और उसके मानवीय पक्षों को ध्यान में रखते हुए। साही की यह दृष्टि उन्हें हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान दिलाती है, जहाँ उन्होंने साहित्य की व्याख्या को एक नए और अधिक समावेशी दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया।
साहित्य की व्याख्या और समझ में साही का दृष्टिकोण हमें इस बात की याद दिलाता है कि साहित्य एक बहुआयामी कला है, जिसमें शिल्प, भाषा, शैली, और मानवीय अनुभवों का गहरा स्थान होता है। उनके लिए साहित्य केवल समाज का प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि वह एक स्वतंत्र और सृजनात्मक कला है, जो मानवीय अस्तित्व और नैतिक सवालों का सामना करता है। यही दृष्टिकोण साही को एक महान आलोचक और विचारक बनाता है, जिन्होंने साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने और मूल्यांकित करने का प्रयास किया।
विजयदेव नारायण साही ने मलिक मोहम्मद जायसी की काव्य रचनाओं की व्याख्या करते समय एक मौलिक दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने जायसी के काव्य, विशेष रूप से ‘पद्मावत’, को केवल एक पौराणिक कथा के रूप में नहीं देखा, बल्कि उसे मानवीय संवेदनाओं, जीवन की गहरी समझ और आध्यात्मिकता के विभिन्न पहलुओं का प्रतीक माना। साही ने जायसी की रचनाओं को ऐतिहासिक संदर्भों से हटकर मानव जीवन के व्यापक और गहरे सवालों के संदर्भ में व्याख्यायित किया।
साही के लिए, जायसी का काव्य न केवल प्रेम की कथा है, बल्कि यह जीवन और मृत्यु, भक्ति और संसार, और आत्मा और परमात्मा के बीच के संबंधों की गहन समझ को प्रस्तुत करता है। उन्होंने जायसी की काव्य यात्रा को एक साधक की यात्रा के रूप में देखा, जिसमें प्रेम का प्रतीक रानी पद्मिनी और अलाउद्दीन का प्रेम एक बाहरी कथा है, जबकि उसके भीतर एक गहरा आध्यात्मिक संदेश छिपा हुआ है।
साही ने इस बात पर जोर दिया कि जायसी का काव्य केवल शाब्दिक अर्थों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसकी वास्तविकता उससे परे है। ‘पद्मावत’ का केंद्रीय कथानक प्रेम पर आधारित होते हुए भी गहरे आध्यात्मिक और दार्शनिक तत्वों से ओतप्रोत है। साही ने जायसी के प्रेम को साधारण सांसारिक प्रेम से अलग कर एक दैवीय प्रेम के रूप में देखा, जिसमें आत्मा का परमात्मा से मिलन ही प्रेम का वास्तविक रूप है।
जायसी के काव्य में साही ने मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक आयामों को देखा, जहाँ प्रेम एक साधन बन जाता है आत्मज्ञान और मुक्ति के लिए। जायसी की काव्य शैली, उसकी प्रतीकात्मकता, और उसके द्वारा प्रस्तुत किए गए मानवीय संघर्ष साही की आलोचनात्मक दृष्टि में प्रमुख थे। साही ने यह भी स्पष्ट किया कि जायसी की काव्य परंपरा उस समय की सामाजिक और धार्मिक संरचनाओं से प्रभावित होते हुए भी उससे परे जाती है, और एक सार्वभौमिक सत्य की खोज करती है।
साही के अनुसार, जायसी का ‘पद्मावत’ केवल एक रोमांटिक कथा नहीं है, बल्कि वह आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है, जिसमें रानी पद्मिनी और राजा रतन सेन जैसे पात्र प्रतीकात्मक हैं। पद्मिनी आत्मा का प्रतीक है, जबकि रतन सेन प्रेमी आत्मा है, जो अपनी मंजिल यानी परमात्मा तक पहुँचने के लिए संघर्ष करता है। इसी प्रकार, अलाउद्दीन भौतिकता और सांसारिक इच्छाओं का प्रतीक है, जो आत्मा को अपनी ओर खींचता है।
साही की व्याख्या में, जायसी की रचनाएँ एक आध्यात्मिक संघर्ष और आत्मिक प्राप्ति की कहानी हैं। उन्होंने जायसी के काव्य को भारतीय भक्ति परंपरा से जोड़ा, जिसमें प्रेम को आत्मा और परमात्मा के मिलन के रूप में देखा जाता है। उनके अनुसार, जायसी ने प्रेम को भक्ति और मुक्ति का मार्ग बताया, जो संसार के बंधनों से मुक्त कर आत्मिक स्वतंत्रता तक पहुँचाता है।
साही ने जायसी की भाषा और प्रतीकात्मकता को भी गहराई से समझा और यह बताया कि किस तरह से जायसी ने सूफी और भारतीय संत परंपरा के तत्वों का कुशलता से प्रयोग किया है। उनके लिए ‘पद्मावत’ केवल ऐतिहासिक या धार्मिक कथा नहीं थी, बल्कि एक सूक्ष्म दर्शन और मानवीय जीवन की जटिलताओं का चित्रण था, जिसे प्रेम, भक्ति, और आत्मज्ञान के माध्यम से व्यक्त किया गया है।
इस प्रकार, विजयदेव नारायण साही ने जायसी की काव्य रचनाओं को गहरे अर्थों में समझा और उसे मानवीय अनुभवों और आध्यात्मिक प्रश्नों के संदर्भ में व्याख्यायित किया। उनके अनुसार, जायसी का साहित्य मात्र एक कथा नहीं है, बल्कि जीवन और आत्मा की गहनता का प्रतीक है, जो हर युग और हर समाज के लिए प्रासंगिक है।
लघु मानव की संकल्पना को विजयदेव नारायण साही ने साहित्य और समाज के व्यापक संदर्भ में समझने और व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। लघु मानव का तात्पर्य उस साधारण, उपेक्षित, और निम्नवर्गीय व्यक्ति से है जो समाज की मुख्यधारा में अक्सर अनदेखा रह जाता है, लेकिन जिसकी संवेदनाएँ, संघर्ष, और अस्तित्व भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने किसी बड़े या प्रभावशाली व्यक्ति के। साही की आलोचना दृष्टि में, साहित्य को केवल उच्च वर्गों या समाज के प्रभुत्वशाली लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे लघु मानव के जीवन, उसकी चिंताओं, और उसकी वास्तविकताओं का भी समावेश करना चाहिए।
लघु मानव की संकल्पना के माध्यम से साही ने समाज के उन वर्गों को साहित्य के केंद्र में लाने का प्रयास किया जो हाशिए पर रहते हैं। उनका मानना था कि साहित्य का उद्देश्य केवल शास्त्रीय या उच्चवर्गीय भावनाओं का चित्रण करना नहीं है बल्कि उस साधारण व्यक्ति के जीवन को भी उकेरना है जो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है। साही के अनुसार, लघु मानव का जीवन भी उतना ही महत्त्वपूर्ण और सृजनशील हो सकता है जितना कि किसी प्रभावशाली या बड़े व्यक्ति का।
साही की विवेचना-दृष्टि में लघु मानव का स्थान समाज और साहित्य में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साहित्य का काम उन लोगों की आवाज़ को भी सुनना और अभिव्यक्त करना है, जो समाज की मुख्यधारा से बाहर होते हैं। साही के अनुसार, लघु मानव का संघर्ष, उसकी संवेदनाएँ, और उसकी जीवटता साहित्य में चित्रित होनी चाहिए, ताकि उसकी अदृश्यता समाप्त हो और वह समाज के व्यापक संदर्भ में समझा जा सके।
साही ने यह भी कहा कि लघु मानव की कथा को केवल करुणा या सहानुभूति के दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि उसकी संपूर्णता और गरिमा के साथ चित्रित किया जाना चाहिए। उनके लिए लघु मानव केवल समाज के निचले वर्ग का प्रतीक नहीं था बल्कि वह समाज के उन सभी व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है जो जीवन के संघर्षों में झेलते हैं परंतु जिनका योगदान और अस्तित्व समाज में गहराई से अंतर्निहित होता है।
विवेचना दृष्टि के तहत, साही ने इस बात पर बल दिया कि साहित्य को लघु मानव के जीवन के उन पहलुओं को उजागर करना चाहिए जो साधारणतया अनदेखे रह जाते हैं। उनके लिए यह महत्वपूर्ण था कि साहित्य में साधारण लोगों के संघर्ष, उनके सपने, उनकी विफलताएँ और सफलताएँ भी अभिव्यक्त हों। साही की दृष्टि में, लघु मानव का जीवन केवल त्रासदी का प्रतीक नहीं है, बल्कि वह एक सृजनात्मक शक्ति है जो समाज की संरचनाओं और विचारों को चुनौती देती है।
लघु मानव की संकल्पना को लेकर साही का दृष्टिकोण साहित्यिक और सामाजिक दोनों संदर्भों में समावेशी था। उन्होंने साहित्य को एक ऐसा माध्यम माना जिसमें न केवल उच्च वर्गों की समस्याओं और जीवन को चित्रित किया जाए, बल्कि उस साधारण व्यक्ति की भी आवाज़ को महत्त्व दिया जाए, जो जीवन के संघर्षों में उलझा हुआ है। साही की यह दृष्टि उन्हें साहित्य में एक विशेष स्थान दिलाती है, क्योंकि उन्होंने लघु मानव के जीवन को केंद्र में लाने का प्रयास किया और उसे साहित्य के मुख्य विमर्श का हिस्सा बनाया।
साही की दृष्टि में लघु मानव केवल एक वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि वह मानवता के उस हिस्से का प्रतीक है जो जीवन की संघर्षशीलता, जिजीविषा और संवेदनशीलता को व्यक्त करता है। साही के अनुसार, साहित्य का असली उद्देश्य केवल ऊँचे आदर्शों या बड़े व्यक्तित्वों का चित्रण नहीं है, बल्कि वह उन साधारण व्यक्तियों की कथा भी कहता है जो अपने जीवन में संघर्ष करते हैं जो असफल होते हैं और जो अपनी साधारणता में भी महान होते हैं।
विजयदेव नारायण साही हिंदी आलोचना और कविता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं, जिनका योगदान विशेष रूप से ‘नई कविता’ के संदर्भ में अमूल्य माना जाता है। हिंदी साहित्य में नई कविता एक ऐसा आंदोलन था, जो परंपरागत काव्य शैलियों, विषयों और अभिव्यक्तियों से हटकर समकालीन जीवन की वास्तविकताओं और संवेदनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास करता था। साही ने इस नई कविता को गहराई से समझा, उसका आलोचनात्मक मूल्यांकन किया और उसके संदर्भ में एक नई व्याख्या दृष्टि प्रस्तुत की।
नई कविता को समझने के लिए, साही ने साहित्यिक परिवर्तनों, विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों को ध्यान में रखा। उन्होंने यह समझने का प्रयास किया कि नई कविता कैसे भारतीय समाज के बदलते परिवेश और उसमें उभरती नई संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करती है। साही का मानना था कि नई कविता केवल एक साहित्यिक आंदोलन नहीं थी, बल्कि यह समाज में हो रहे गहरे बदलावों की प्रतिक्रिया थी। उन्होंने नई कविता को उस समय की सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक स्थितियों के संदर्भ में समझने की कोशिश की, जब भारत में स्वतंत्रता के बाद एक नई चेतना, एक नया समाज और नए आदर्श विकसित हो रहे थे।
साही के अनुसार, नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विषयवस्तु और शिल्प में नवीनता थी। उन्होंने इसे पारंपरिक काव्य से अलग बताया, जहाँ कवियों ने अपने निजी अनुभवों, अंतर्विरोधों और सामाजिक वास्तविकताओं को सीधे-सीधे अभिव्यक्त किया। नई कविता का उद्देश्य केवल सौंदर्यशास्त्र या परंपरागत काव्यिक सिद्धांतों का पालन करना नहीं था बल्कि वह जीवन की वास्तविकताओं, मनुष्य के जटिल अनुभवों, और उसके भीतर के अंतर्विरोधों को प्रस्तुत करना था। साही के अनुसार, यह कविता जीवन के संघर्षों, विडंबनाओं और कटु सत्यों को उजागर करती थी, जो कि पहले की कविता में प्रकट नहीं हुए थे।
साही ने नई कविता की शिल्प और भाषा की विशेषताओं पर भी ध्यान केंद्रित किया। उनके अनुसार, नई कविता ने पुरानी काव्य शैलियों को तोड़ा और उसमें एक नई भाषा और अभिव्यक्ति की शैली विकसित की। यह भाषा अधिक सीधी, तीव्र और समाज के विभिन्न स्तरों की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करती थी। साही ने इस बात पर जोर दिया कि नई कविता में भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं थी, बल्कि वह कवि की अंतर्व्यथा, उसकी असंतुष्टि और उसके सामाजिक बोध को भी प्रकट करती थी। नई कविता की भाषा जीवन की जटिलताओं और विडंबनाओं को सजीव करती थी, और साही ने इस नई भाषा के प्रयोग को कविता की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना।
साही ने यह भी कहा कि नई कविता ने समाज में हो रहे गहरे बदलावों को पकड़ने का प्रयास किया। उन्होंने इसे एक ऐसे समय की कविता माना, जब भारत में स्वतंत्रता के बाद नई उम्मीदें और आकांक्षाएँ पनप रही थीं, लेकिन साथ ही साथ समाज में निराशा, भ्रष्टाचार, और विडंबनाओं का भी अनुभव हो रहा था। नई कविता ने इन दोनों पक्षों—उम्मीद और निराशा, आकांक्षा और विडंबना—को समेटने का प्रयास किया। साही के अनुसार, यह कविता जीवन के हर पहलू को छूने वाली कविता थी, जो कि केवल व्यक्तिगत नहीं थी, बल्कि सामूहिक भी थी। यह कविता एक समाज की आवाज़ थी, जो अपनी समस्याओं, संघर्षों और अंतर्विरोधों से जूझ रही थी।
नई कविता में जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व साही ने पहचाना, वह था इसका मनुष्यतावाद। उनके अनुसार, नई कविता ने मनुष्य के अनुभवों को केंद्र में रखा और उसे एक संवेदनशील दृष्टि से देखा। इस कविता में व्यक्ति के भीतर के अंतर्विरोध, उसकी पीड़ाएँ, उसकी आकांक्षाएँ और उसकी निराशाएँ प्रमुख रूप से उभर कर आईं। साही ने इसे कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि माना कि उसने मानव जीवन के इन जटिल और सूक्ष्म पहलुओं को पकड़ने का प्रयास किया। नई कविता ने मनुष्य की जिजीविषा, उसके संघर्ष, और उसकी असफलताओं को भी उसी तीव्रता से अभिव्यक्त किया, जैसे कि उसकी सफलताओं और उसकी आकांक्षाओं को।
साही ने नई कविता के शिल्प के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि नई कविता का शिल्प पुरानी काव्य शैलियों से अलग था, जिसमें छंद, अलंकार और अन्य परंपरागत काव्यिक उपकरणों की प्रधानता थी। नई कविता में यह सब छोड़कर एक नई शैली विकसित की गई, जिसमें छंदमुक्त कविता और सरल भाषा का प्रयोग किया गया। साही के अनुसार, इस नई शैली ने कवियों को अधिक स्वतंत्रता दी, जिससे वे अपने विचारों, भावनाओं और समाज की वास्तविकताओं को सीधे और प्रभावी ढंग से व्यक्त कर सके। यह शिल्प जीवन के असली अनुभवों को पकड़ने में अधिक सक्षम था, क्योंकि इसमें किसी भी पूर्वनिर्धारित ढाँचे या नियमों का पालन नहीं करना था।
साही ने नई कविता की आलोचना को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने इसे केवल एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में भी समझा। उनके अनुसार, नई कविता की उत्पत्ति केवल साहित्यिक आवश्यकताओं से नहीं हुई, बल्कि यह उस समय के समाज की नई माँगों और उसकी बदलती परिस्थितियों का परिणाम थी। साही के विचार में, नई कविता ने समाज की आवाज़ को व्यक्त किया और उन प्रश्नों को उठाया, जिन्हें पहले की कविता ने शायद नज़रअंदाज किया था।
साही ने नई कविता को उसकी जटिलताओं और विरोधाभासों के साथ स्वीकार किया। उन्होंने यह स्वीकार किया कि यह कविता केवल एक सकारात्मक दृष्टिकोण नहीं प्रस्तुत करती, बल्कि वह जीवन के कड़वे और कटु सत्यों को भी सामने लाती है। यह कविता समाज के उन पहलुओं को भी उजागर करती है, जो शायद असुविधाजनक हैं, लेकिन जिन्हें समझना और स्वीकार करना आवश्यक है। साही के अनुसार, यह नई कविता का सबसे बड़ा योगदान था कि उसने समाज की वास्तविकताओं को बिना किसी संकोच के अभिव्यक्त किया और उसे साहित्य के केंद्र में रखा।
नई कविता के संदर्भ में साही ने कई कवियों के काव्य को विश्लेषित किया और उसमें उपस्थित नवीनता, संघर्ष और संवेदनशीलता की सराहना की। उन्होंने नई कविता के कवियों की उस क्षमता की प्रशंसा की, जिसने उन्हें अपने समय की जटिलताओं और विडंबनाओं को पकड़ने में सक्षम बनाया। साही ने इन कवियों को केवल साहित्यिक व्यक्ति नहीं, बल्कि समाज के विचारशील प्रतिनिधियों के रूप में देखा, जिन्होंने अपने काव्य के माध्यम से समाज को एक नई दिशा देने का प्रयास किया।
अंततः, साही के अनुसार, नई कविता केवल एक साहित्यिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह समाज के भीतर हो रहे गहरे बदलावों का प्रतीक था। यह कविता मनुष्य की आत्मा, उसकी इच्छाओं, उसकी निराशाओं, और उसके संघर्षों की कविता थी। साही ने नई कविता को एक सजीव, संवेदनशील और जटिल काव्य के रूप में समझा, जिसने अपने समय की सच्चाइयों को पकड़ने और उन्हें अभिव्यक्त करने का प्रयास किया। नई कविता की यह विशेषता साही के लिए महत्वपूर्ण थी, क्योंकि उन्होंने इसे एक समकालीन साहित्यिक आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि समाज की चेतना के रूप में देखा।
जब साही को बेहतर आलोचक के रूप में देखा जाता है तो यह उनके दृष्टिकोण की मौलिकता, मानवतावादी दृष्टि और साहित्य की गहराई में जाने की उनकी क्षमता के आधार पर होता है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना दृष्टि को सबसे पहले उनके स्वतंत्र, विचारोत्तेजक और मानवीय संवेदनाओं से युक्त दृष्टिकोण से परखा जा सकता है। साही का मानना था कि साहित्य केवल एक कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के जीवन, समाज और इतिहास की जटिलताओं को समझने और व्यक्त करने का एक साधन है। उन्होंने साहित्य को एक स्वतंत्र और स्वायत्त माध्यम माना, जो किसी वैचारिक बंधन या राजनीतिक एजेंडे से बँधा नहीं होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से साही ने एक अलग आलोचनात्मक स्थान हासिल किया जबकि नामवर सिंह और रामविलास शर्मा का दृष्टिकोण अधिकतर वैचारिक और विशेष रूप से मार्क्सवादी संदर्भों में बँधा रहा। नामवर सिंह, अपनी उदार मार्क्सवादी दृष्टि के लिए प्रसिद्ध थे । उन्होंने साहित्य को वर्ग- संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में व्याख्यायित किया। रामविलास शर्मा भी एक मजबूत मार्क्सवादी विचारक थे जिन्होंने भाषा, इतिहास और साहित्य के क्षेत्र में अपने विशेष दृष्टिकोण के साथ आलोचनात्मक अध्ययन किया। हालांकि, इन दोनों आलोचकों की दृष्टि में साहित्य का मूल्यांकन अक्सर एक विशेष वैचारिक ढांचे में होता था, जहाँ साहित्यिक रचनाओं को साम्यवादी और मार्क्सवादी कसौटियों पर परखा जाता था।
इसके विपरीत, साही का दृष्टिकोण साहित्यिक आलोचना में अधिक खुला और बहुआयामी था। उन्होंने साहित्य को मानवीय संवेदनाओं, व्यक्तिगत अनुभवों और सामाजिक वास्तविकताओं के संदर्भ में देखा। उनके लिए साहित्य किसी विचारधारा का प्रचार नहीं था, बल्कि यह एक ऐसा माध्यम था जिसके माध्यम से मनुष्य अपने जीवन के अनुभवों, अंतर्विरोधों और संघर्षों को व्यक्त करता है। साही ने साहित्य की आलोचना करते समय इसे एक स्वायत्त कला के रूप में देखा, जहाँ लेखक और पाठक दोनों के अनुभवों को समान रूप से महत्त्व दिया जाता है।
साही की आलोचना दृष्टि का एक और महत्वपूर्ण पहलू उनका मानवीय और संवेदनशील दृष्टिकोण था। उन्होंने साहित्य को मानव जीवन के जटिल और सूक्ष्म पहलुओं को व्यक्त करने का माध्यम माना। साही के अनुसार, साहित्य का काम केवल सामाजिक या राजनीतिक मुद्दों को उजागर करना नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के भीतर के संघर्षों, उसकी भावनाओं और उसकी अस्तित्वगत चिंताओं को भी व्यक्त करना है। इस दृष्टिकोण से साही ने साहित्य की आलोचना को एक नया आयाम दिया, जहाँ उन्होंने व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर साहित्य की भूमिका को महत्वपूर्ण माना।
नामवर सिंह और रामविलास शर्मा के विपरीत, साही की आलोचना किसी एक विचारधारा से सीमित नहीं थी। उन्होंने साहित्यिक कृतियों को उनके अपने संदर्भों में समझने और उनका विश्लेषण करने का प्रयास किया। उनके लिए साहित्य की शक्ति उसकी स्वतंत्रता और विविधता में थी। साही ने साहित्यिक कृतियों को केवल उनके वैचारिक या सामाजिक संदर्भों में नहीं देखा बल्कि उन्होंने उन्हें उनकी आंतरिक संरचना, भाषा, शिल्प और विचारधारा से परे उनके सौंदर्यशास्त्र के आधार पर भी परखा। यह दृष्टिकोण उन्हें नामवर सिंह और रामविलास शर्मा से अलग और अधिक समृद्ध आलोचक बनाता है।
साही की आलोचना में भाषा और शिल्प का गहन विश्लेषण एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था जबकि नामवर सिंह और रामविलास शर्मा अधिकतर साहित्य की वैचारिक और सामाजिक भूमिकाओं पर ध्यान केंद्रित करते थे, साही ने भाषा, शिल्प और साहित्यिक संरचनाओं की बारीकियों को समझने और उनका मूल्यांकन करने पर जोर दिया। उन्होंने साहित्यिक कृतियों की शैली, संरचना और भाषा की विशेषताओं को समझने और उनकी विशिष्टताओं को रेखांकित करने का प्रयास किया। साही के लिए साहित्य की भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं थी बल्कि यह साहित्य की आंतरिक संरचना और उसकी गहराई का प्रतीक थी।
एक और महत्वपूर्ण पहलू जो साही को नामवर सिंह और रामविलास शर्मा से बेहतर आलोचक बनाता है, वह उनकी बहुपक्षीय दृष्टि थी। साही ने साहित्य को केवल सामाजिक, राजनीतिक या वैचारिक दृष्टिकोण से नहीं देखा, बल्कि उन्होंने इसे एक व्यापक और विविध दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया। उन्होंने साहित्यिक कृतियों के भीतर छिपे हुए अर्थों को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों का भी उपयोग किया। यह बहुपक्षीय दृष्टि साही की आलोचना को अधिक गहरा और समृद्ध बनाती है क्योंकि वह साहित्य को केवल एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखते, बल्कि उसे विभिन्न स्तरों पर समझने का प्रयास करते हैं।
साही के साहित्यिक दृष्टिकोण का एक और महत्वपूर्ण पहलू उनका व्यक्तिगत और आत्मिक जुड़ाव था। उन्होंने साहित्य को केवल बाहरी यथार्थ का प्रतिबिंब नहीं माना, बल्कि उसे एक आंतरिक अनुभव और आत्मिक यात्रा का माध्यम माना। साही के लिए साहित्यिक कृति एक आत्मिक संवाद था, जिसमें लेखक और पाठक दोनों अपने अनुभवों और विचारों को साझा करते हैं। यह दृष्टिकोण उन्हें नामवर सिंह और रामविलास शर्मा से अलग करता है, जो अधिकतर सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों में साहित्य का मूल्यांकन करते थे। साही के लिए साहित्य का मूल्य उसकी आत्मिक गहराई और मानवीय संवेदनाओं में था, न कि केवल उसकी वैचारिक दिशा में।
साही की आलोचना दृष्टि का एक और महत्वपूर्ण पहलू उनका सामाजिक संवेदनशीलता और सामूहिक अनुभवों के प्रति जागरूकता था। उन्होंने साहित्य को समाज के विभिन्न वर्गों की आवाज़ के रूप में देखा और यह सुनिश्चित किया कि साहित्य में उन हाशिये पर रहने वाले लोगों की भी जगह हो, जो समाज की मुख्यधारा में नहीं आते। उन्होंने साहित्य को केवल उच्चवर्गीय या शिक्षित लोगों की आवाज़ के रूप में नहीं, बल्कि साधारण लोगों के अनुभवों, उनकी पीड़ाओं और संघर्षों के रूप में भी देखा। यह दृष्टिकोण साही की आलोचना को और भी व्यापक और समावेशी बनाता है, जहाँ साहित्य केवल कुछ खास वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि पूरे समाज की आवाज़ बनता है।
साही की आलोचना दृष्टि उनकी स्वतंत्रता, मानवीय संवेदनाओं और साहित्य की गहराई में जाने की उनकी क्षमता के आधार पर नामवर सिंह और रामविलास शर्मा से बेहतर मानी जाती है। उनका दृष्टिकोण साहित्य को एक समग्र और समावेशी दृष्टिकोण से देखने का था, जहाँ व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक और आत्मिक सभी पहलुओं का समान महत्त्व होता है। साही की आलोचना में साहित्य की आत्मा और उसकी मानवीय गहराई को समझने का प्रयास था, जो उन्हें हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान दिलाता है।
विजयदेव नारायण साही ने अपने साहित्यिक और आलोचनात्मक कार्यों के माध्यम से हिंदी साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, विशेषकर ‘नई कविता’ और ‘आलोचना’ जैसी प्रमुख पत्रिकाओं के संपादक के रूप में। इन पत्रिकाओं के संपादन के दौरान साही ने जो दृष्टिकोण और दिशा प्रदान की, उसने हिंदी साहित्य की आलोचना और काव्य साहित्य को नए आयाम दिए।
‘नई कविता’ पत्रिका का संपादन साही के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर था, जहाँ उन्होंने हिंदी साहित्य की नई दिशाओं और प्रवृत्तियों को उजागर किया। इस पत्रिका का संपादन करते समय साही ने विशेष ध्यान दिया कि नई कविता के कवियों और उनके काव्य प्रयोगों को सही संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए।
‘नई कविता’ के संपादक के रूप में साही ने साहित्य के उस नए यथार्थवाद को समर्थन दिया, जो भारतीय समाज के बदलते सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को सटीकता और संवेदनशीलता के साथ व्यक्त करता था। उन्होंने नई कविता के कवियों के काव्य को एक प्लेटफॉर्म प्रदान किया, जहाँ वे अपनी नई दृष्टि और प्रयोगों को प्रस्तुत कर सकते थे। साही ने पत्रिका में ऐसे कवियों को प्रकाशित किया जिन्होंने पारंपरिक काव्य शैलियों से अलग हटकर नये शिल्प, भाषा, और विषयों के साथ कविता की नई संभावनाओं को खोजा।
साही की संपादकीय दृष्टि में नई कविता के कवियों का काव्य न केवल सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों को चुनौती देने वाला था, बल्कि यह जीवन की जटिलताओं और संवेदनाओं को भी अभिव्यक्त करता था। उन्होंने पत्रिका के माध्यम से साहित्य में विविधता, स्वतंत्रता, और प्रयोगधर्मिता को बढ़ावा दिया, जिससे नई कविता को एक समृद्ध और प्रभावशाली आंदोलन के रूप में स्थापित किया।
‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक के रूप में भी साही का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। ‘आलोचना’ एक प्रमुख साहित्यिक पत्रिका थी, जिसने हिंदी साहित्य की आलोचना के क्षेत्र में नयी ऊँचाइयाँ स्थापित की। साही ने इस पत्रिका के संपादक के रूप में साहित्य की आलोचना को गंभीरता और बारीकी से देखने की कोशिश की। उन्होंने आलोचना की नई विधियों और दृष्टिकोणों को अपनाया और साहित्यिक विमर्श को समृद्ध करने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों को शामिल किया।
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