— परिचय दास —
विजयदेव नारायण साही साहित्य को एक मानवीय प्रयास मानते थे जिसमें मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं का गहन अध्ययन किया जाता है। साही का यह दृष्टिकोण साहित्य को मानवीय अनुभवों से जोड़ता है जिसमें लेखक, पाक और समाज सभी का समान रूप से योगदान होता है। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य केवल सौंदर्यबोध नहीं बल्कि मानवीय पीड़ा, संघर्ष और जिजीविषा को समझना और उसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना भी है। इस दृष्टिकोण से साही की आलोचना साहित्य को केवल कल्पनाओं की दुनिया तक सीमित नहीं रखती बल्कि उसे मानवीय यथार्थ के प्रतिबिंब के रूप में देखती है।
साहित्यिक कृति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह मानव के गहनतम अनुभवों को कितनी सजीवता से अभिव्यक्त कर सकती है। साही की दृष्टि में साहित्यकार का कार्य केवल सुंदर भाषा का प्रयोग करना नहीं है बल्कि उस भाषा के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं और संघर्षों को व्यक्त करना है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना वस्तुत: एक लोकतांत्रिक दृष्टि है। वे साहित्य को केवल उच्च वर्ग या शिक्षित समाज की वस्तु नहीं मानते थे बल्कि उसे आम जन की अभिव्यक्ति का माध्यम मानते थे। साही का मानना था कि साहित्य को समाज के सभी वर्गों की आवाज़ बनना चाहिए जिसमें सभी प्रकार के अनुभव और संवेदनाएँ अभिव्यक्त हो सकें। उनकी आलोचना में समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के अनुभवों, उनकी संघर्षशीलता, उनकी पीड़ा को समझने और उसे साहित्य के माध्यम से सामने लाने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। वे साहित्य में उन ध्वनियों और आवाज़ों को जगह देते थे जिन्हें मुख्यधारा के साहित्य में अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। इस दृष्टि से साही की आलोचना साहित्य को एक जनतांत्रिक मंच बनाती है जिसमें हर व्यक्ति के अनुभव को मान्यता मिलती है और हर प्रकार के जीवन को साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम माना जाता है।
साही ने भारतीय समाज की जटिलता, उसकी विविधता और उसमें व्याप्त सामाजिक संरचनाओं का गहन विश्लेषण किया। उनकी आलोचना में भारतीय समाज की पारंपरिक धारणाओं, मान्यताओं और संरचनाओं का विश्लेषण देखा जा सकता है। साही का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से उनकी आलोचना में दिखाई देता है जहाँ वे साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समाज की उन जटिलताओं को समझने का प्रयास करते हैं जो हमारी संस्कृति और परंपराओं में गहराई से रची-बसी हैं। उनका यह दृष्टिकोण भारतीय समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक पक्षों को गहरे संदर्भ में समझने और उनकी आलोचना करने का प्रयास करता है। साही साहित्य के माध्यम से समाज की उन संरचनाओं को चुनौती देने का प्रयास करते थे, जो समाज में असमानता, अन्याय और भेदभाव को बढ़ावा देती हैं। उनकी आलोचना का यह सामाजिक संदर्भ साहित्य को एक शक्तिशाली साधन बनाता है जिसमें समाज के परिवर्तन और उसकी भलाई के लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाए जाते हैं।
साही ने साहित्य में प्रकृति और मनुष्य के संबंध को गहराई से समझने का प्रयास किया। उनके लिए साहित्य में प्रकृति का चित्रण केवल सौंदर्यबोध के लिए नहीं था बल्कि उसमें मनुष्य और प्रकृति के बीच के गहरे संबंधों को समझने की आवश्यकता थी। साही का यह दृष्टिकोण साहित्य में प्रकृति और उसके महत्त्व को उजागर करता है, जिसमें वे मनुष्य और प्रकृति के बीच के सामंजस्य और संघर्ष को साहित्यिक कृतियों के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। उनके लिए साहित्य में प्रकृति केवल एक पृष्ठभूमि नहीं थी बल्कि वह मानवीय जीवन और उसकी जटिलताओं का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। साही का यह दृष्टिकोण पर्यावरणीय साहित्य को एक नई दृष्टि प्रदान करता है जिसमें साहित्य का उद्देश्य केवल मानवता के अनुभवों को अभिव्यक्त करना ही नहीं बल्कि उसमें प्रकृति के महत्त्व और उसके संरक्षण के संदेश को भी प्रस्तुत करना है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना- शैली में संवेदनशीलता और व्यावहारिकता का संतुलन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वे साहित्यिक कृतियों को केवल सैद्धांतिक दृष्टिकोण से नहीं देखते बल्कि उनमें व्याप्त व्यावहारिक और यथार्थ जीवन के संदर्भों को भी समझते हैं। उनके लिए साहित्य का उद्देश्य केवल सिद्धांतों का प्रचार करना नहीं था बल्कि उसमें व्याप्त जीवन की वास्तविकताओं को समझना और उनके प्रति संवेदनशील होना भी था। साही की आलोचना में इस व्यावहारिक दृष्टि के माध्यम से साहित्य को सामाजिक संदर्भ में देखने और उसके वास्तविक महत्त्व को समझने का प्रयास किया जाता है। वे साहित्यिक कृतियों में उन प्रश्नों को उठाते थे जो समाज के विभिन्न स्तरों और वर्गों से जुड़े होते थे और जिन्हें समझकर ही समाज में कोई परिवर्तन लाया जा सकता है।
साही की आलोचना में आधुनिकता और परंपरा के बीच एक संतुलन है। वे आधुनिकता के विचारों को मान्यता देते थे लेकिन वे पारंपरिक साहित्यिक मूल्यों और सांस्कृतिक धरोहरों को भी महत्त्व देते थे। साही का यह दृष्टिकोण साहित्य को उसके ऐतिहासिक संदर्भों में समझने और उसमें नवीनता के तत्त्वों को खोजने का प्रयास करता है। वे साहित्य में पारंपरिकता और आधुनिकता के बीच की दूरी को मिटाने और उनमें संवाद स्थापित करने का प्रयास करते थे। उनका यह दृष्टिकोण साहित्य को एक गतिशील माध्यम बनाता है, जिसमें परंपरागत धारणाओं और आधुनिक दृष्टिकोणों के बीच के संघर्ष और सामंजस्य को समझा जा सकता है। साही के लिए साहित्य का उद्देश्य केवल परंपराओं को तोड़ना नहीं बल्कि उनमें नवीन दृष्टिकोणों का समावेश करके उन्हें और समृद्ध बनाना भी था।
साही भाषा को साहित्यिक कृति का सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण मानते थे और इसके माध्यम से लेखक की मंशा और संवेदनाओं को समझने का प्रयास करते थे। उनकी आलोचना में भाषा के प्रयोग का गहन विश्लेषण देखा जा सकता है जिसमें वे भाषा के माध्यम से कृति की गहनता और उसमें छुपी संवेदनाओं को समझने का प्रयास करते थे। साही के लिए भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं थी बल्कि वह साहित्यिक कृति का आत्मा थी। वे मानते थे कि भाषा के माध्यम से ही लेखक अपनी संवेदनाओं, अपने अनुभवों और अपनी दृष्टि को अभिव्यक्त करता है। उनकी आलोचना में भाषा के स्तर पर संवेदनशीलता और गहराई स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है जिसमें वे भाषा के प्रयोग के माध्यम से साहित्यिक कृति के अर्थों और उसकी जटिलताओं को समझने का प्रयास करते थे।
विजयदेव नारायण साही साहित्य को केवल सामाजिक या सांस्कृतिक वस्तु नहीं मानते थे बल्कि उसमें जीवन के गहनतम प्रश्नों और दार्शनिक मुद्दों को भी देखना चाहते थे। साही के लिए साहित्य जीवन की गहनतम समस्याओं और अस्तित्वगत प्रश्नों का एक माध्यम था। वे साहित्यिक कृतियों में जीवन, मृत्यु, प्रेम, पीड़ा, संघर्ष और मनुष्य के अस्तित्व से जुड़े प्रश्नों को समझने का प्रयास करते थे। उनकी आलोचना में दार्शनिक दृष्टि स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिसमें वे साहित्यिक कृतियों के माध्यम से मनुष्य की स्थिति और उसकी जटिलताओं को समझने का प्रयास करते थे। साही के लिए साहित्य एक दार्शनिक यात्रा थी जिसमें लेखक और पाठक दोनों जीवन के गहनतम प्रश्नों का सामना करते हैं और उन्हें समझने का प्रयास करते हैं।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना- शैली में विचारों की बारीकी, गहरी सामाजिक दृष्टि और साहित्यिक अनुभव की गहन समझ स्पष्ट है। साही ने आलोचना को केवल साहित्यिक कृति के गुण-दोष के विवेचन तक सीमित नहीं रखा बल्कि उसे व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और अस्तित्वगत प्रश्नों के संदर्भ में देखने का प्रयास किया। उनका आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य बहुआयामी और गहन है जो हिंदी साहित्य की गहरी जड़ों तक पहुँचता है और उसमें नए अर्थ और नई दिशाओं को खोजता है।
साही की आलोचना में लेखक और समाज के संबंध पर गहरी दृष्टि दिखाई देती है। वे मानते थे कि साहित्यकार अपने समय का साक्षी होता है और वह अपने समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करता है। साही का यह विचार स्पष्ट रूप से उनकी आलोचनात्मक कृतियों में देखा जा सकता है, जहाँ वे लेखक और उसके सामाजिक संदर्भ के बीच गहरे संबंध की चर्चा करते हैं। उनका मानना था कि लेखक अपने समाज के अनुभवों और समस्याओं से जूझता है और अपनी रचनाओं में उन अनुभवों को अभिव्यक्त करता है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना भाषा के स्तर पर अत्यंत संवेदनशील है, जहाँ वे न केवल साहित्यिक कृति की भाषा का विश्लेषण करते हैं बल्कि उस भाषा के माध्यम से लेखक की मंशा, उसके समाज और संस्कृति की झलकियों को भी पकड़ते हैं। साही का मानना था कि भाषा न केवल संवाद का माध्यम है बल्कि वह लेखक की संवेदनाओं और उसकी समझ का प्रतिबिंब भी है। वे भाषा के माध्यम से कृति के अंतरतम अर्थों तक पहुँचने का प्रयास करते थे और इस प्रक्रिया में वे साहित्यिक कृति के पीछे छुपी गहनता और उसकी सूक्ष्मताओं को उद्घाटित करते थे।
साही की आलोचना में उनका पाठक-केंद्रित दृष्टिकोण है। वे साहित्यिक पाठ को केवल लेखक की मंशा के दृष्टिकोण से नहीं देखते बल्कि पाठक की भूमिका को भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार, साहित्यिक कृति का अर्थ पाठक की समझ और उसके अनुभवों के साथ मिलकर निर्मित होता है। इस प्रकार, साही की आलोचना पाठक को साहित्यिक कृति का सह-निर्माता मानती है जो साहित्य को केवल एक एकांगी दृष्टिकोण से नहीं बल्कि बहुआयामी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करती है। वे साहित्यिक पाठ के साथ पाठक के संवाद को महत्त्वपूर्ण मानते थे और इस संवाद के माध्यम से साहित्य की नई संभावनाओं और अर्थों को खोजने का प्रयास करते थे।
साही की आलोचना में उनकी साहित्यिक दृष्टि का बहुस्तरीय और गहन विश्लेषण है। वे साहित्यिक कृति को केवल उसके बाहरी स्वरूप से नहीं बल्कि उसके भीतर छुपे अर्थों, प्रतीकों और धारणाओं के माध्यम से समझने का प्रयास करते थे। उनकी आलोचना में साहित्यिक कृति के विभिन्न स्तरों—कथानक, पात्र, भाषा, प्रतीकात्मकता — का गहन विश्लेषण किया जाता है जिसमें वे कृति के भीतर छुपी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संरचनाओं को
उद् घाटित करते थे। इस दृष्टिकोण से साही की आलोचना केवल साहित्यिक पाठ की व्याख्या नहीं है बल्कि उसमें छुपी हुई गहन संरचनाओं और अर्थों का अनावरण है।
विजयदेव नारायण साही का आलोचनात्मक दृष्टिकोण परंपरागत साहित्यिक मानकों से भिन्न और चुनौतीपूर्ण था। वे साहित्य को परंपरागत आलोचनात्मक प्रतिमानों से मुक्त करने के पक्षधर थे और उसकी नवीनता और विविधता को समझने का प्रयास करते थे। उनके लिए साहित्य केवल निर्धारित नियमों और विधानों का पालन करने वाली वस्तु नहीं थी बल्कि वह मानवीय अनुभवों और संवेदनाओं का एक जीवंत प्रवाह था। साही की आलोचना साहित्य की स्वायत्तता को मान्यता देती है और उसमें नई संभावनाओं को तलाशने का प्रयास करती है। वे साहित्य को किसी एक निश्चित खांचे में बांधने के बजाय उसकी विविधता और उसके भीतर छुपी संभावनाओं को उजागर करने का प्रयास करते थे।
साही की आलोचना में अपने समय के साहित्य के प्रति जागरूकता है। वे अपने समय के साहित्य को उसकी समय-सापेक्षता और सामाजिक संदर्भों में रखकर समझने का प्रयास करते थे। उनके लिए साहित्य वर्तमान समय के अनुभवों, समस्याओं और चिंताओं का एक साक्षात्कार था। वे समकालीन साहित्य को उसके सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों में देखने का प्रयास करते थे और उसमें व्याप्त मुद्दों को समझने का प्रयास करते थे। इस दृष्टिकोण से साही की आलोचना अपने समय के साहित्य को उसकी व्यापकता और प्रासंगिकता में समझने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।
वे साहित्यिक कृति में जीवन के गहनतम प्रश्नों : मनुष्य की अस्मिता, उसकी स्थिति, उसके संघर्ष और उसकी संभावनाओं को देखने का प्रयास करते थे। उनके लिए साहित्य जीवन के गहनतम अनुभवों का प्रतिबिंब था जिसमें मनुष्य के अस्तित्व, उसकी स्थिति और उसकी चेतना के विभिन्न आयामों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है। साही की यह दार्शनिक दृष्टि उनकी आलोचना को गहराई और व्यापकता प्रदान करती है जो साहित्य को केवल बाहरी संरचना तक सीमित न रखकर उसके गहनतम अर्थों और संभावनाओं को उद् घाटित करने का प्रयास करती है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना में उनका गतिशील दृष्टिकोण है। साही की दृष्टि साहित्य को सामाजिक न्याय और समानता के संदर्भ में देखती है जिसमें साहित्य की भूमिका केवल समाज का चित्रण करने तक सीमित नहीं रहती बल्कि वह समाज में परिवर्तन लाने का एक सक्रिय माध्यम बनती है।
साही केवल शाब्दिक अर्थों में नहीं समझते थे बल्कि उनमें छुपी संवेदनाओं, अनुभवों और मानवीय जटिलताओं को उद् घाटित करने का प्रयास करते थे। वे साहित्यिक कृति के भीतर के विरोधाभासों, उसकी जटिलताओं और उसकी गहनता को समझने का प्रयास करते थे। उनकी आलोचना शैली में यह गहराई और जटिलता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिसमें वे साहित्यिक कृति के प्रत्येक पहलू का गहन विश्लेषण करते थे और उसके भीतर छुपी संवेदनाओं और अर्थों को समझने का प्रयास करते थे।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना में पारंपरिकता और आधुनिकता के बीच एक संतुलन दिखाई देता है। वे साहित्यिक परंपराओं को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं करते बल्कि उन्हें नए संदर्भों में पुनः व्याख्यायित करने का प्रयास करते हैं। उनकी आलोचना में परंपरागत साहित्यिक मूल्यों को नवीन दृष्टिकोण से देखने और समझने का एक प्रयास स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वे साहित्यिक कृतियों के भीतर छुपी परंपरागत धारणाओं और मान्यताओं को चुनौती देते थे लेकिन साथ ही वे उन धारणाओं के भीतर छुपी संभावनाओं और उनके महत्त्व को भी स्वीकार करते थे। इस प्रकार, साही की आलोचना परंपरागतता और आधुनिकता के बीच एक संवाद स्थापित करती है जिसमें साहित्य को एक गतिशील और परिवर्तनशील माध्यम के रूप में देखा जाता है। साही की आलोचना शैली में उनका मानवीय दृष्टिकोण है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना साहित्य की गहराई और व्यापकता को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। उनके लिए साहित्य न केवल सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों का ही माध्यम था बल्कि जीवन के गहनतम मुद्दों को समझने और अभिव्यक्त करने का भी साधन था। उनकी आलोचना साहित्य को केवल एक मनोरंजनात्मक वस्तु से ऊपर उठाकर उसे एक बौद्धिक और आत्म-साक्षात्कार का माध्यम बनाती है। वे साहित्यिक कृतियों के माध्यम से अस्तित्वगत प्रश्नों का सामना करते हैं जैसे कि मानव- अस्तित्व का अर्थ, मानव जीवन की सीमाएँ, स्वतंत्रता का मूल्य और नैतिकता का मापदंड। साही का यह दृष्टिकोण साहित्य को एक साधन के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें व्यक्ति अपने जीवन के गहनतम प्रश्नों का समाधान खोज सकता है।
साही की आलोचना साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन है। वे भारतीय साहित्य को उसकी सांस्कृतिक धरोहरों के संदर्भ में समझने का प्रयास करते थे। साही का मानना था कि भारतीय साहित्य को समझने के लिए उसकी सांस्कृतिक धरोहर को जानना और समझना आवश्यक है। उनके लिए साहित्य केवल एक कलात्मक प्रयास नहीं था बल्कि वह भारतीय संस्कृति और परंपरा का गहन अध्ययन था। उनकी आलोचना में भारतीय संस्कृति की गहरी समझ दिखाई देती है, जिसमें वे साहित्यिक कृतियों में भारतीय समाज के विभिन्न आयामों, धारणाओं और सांस्कृतिक प्रतीकों का गहन अध्ययन करते थे। वे भारतीय साहित्य को केवल आधुनिक संदर्भों में ही नहीं देखते थे, बल्कि उसमें भारतीय समाज की परंपराओं और धरोहरों का भी विश्लेषण करते थे। इस दृष्टिकोण से साही की आलोचना साहित्य को एक सांस्कृतिक दस्तावेज के रूप में देखती है, जिसमें समाज की बदलती हुई संरचना और उसमें व्याप्त विविधता को समझने का प्रयास किया जाता है।
साही का यह सांस्कृतिक दृष्टिकोण साहित्य को समाज के सभी वर्गों से जोड़ता है। वे मानते थे कि साहित्य को समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों की संवेदनाओं और अनुभवों का प्रतिनिधित्व भी करना चाहिए। साही का यह दृष्टिकोण साहित्य को व्यापक बनाता है, जिसमें समाज के सभी वर्गों की आवाज़ को स्थान मिलता है। वे साहित्य को केवल एक वर्ग विशेष की अभिव्यक्ति नहीं मानते थे बल्कि उसमें उन लोगों की भी आवाज़ सुनने का प्रयास करते थे जिन्हें समाज ने अनदेखा कर दिया है। इस दृष्टिकोण से साही की आलोचना साहित्य को एक जनतांत्रिक मंच बनाती है जिसमें समाज के सभी वर्गों की समान रूप से भागीदारी होती है। वे साहित्य में उन अनुभवों को प्रस्तुत करने का प्रयास करते थे जो समाज के कमजोर और शोषित वर्गों के थे और इस प्रकार उनकी आलोचना में सामाजिक न्याय और समानता की गहरी भावना दिखाई देती है।
साही मानते थे कि साहित्यिक कृति की भाषा लेखक की संवेदनाओं और उसके अनुभवों का सबसे सटीक प्रतिबिंब है। उनके लिए भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं थी बल्कि वह साहित्यिक कृति का सार थी जिसके माध्यम से लेखक अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करता है। उनकी आलोचना में भाषा का गहन अध्ययन दिखाई देता है, जिसमें वे भाषा के प्रयोग के माध्यम से साहित्यिक कृति की गहराई को समझने का प्रयास करते थे। वे भाषा को केवल अर्थों का संग्रह नहीं मानते थे बल्कि उसमें छुपी संवेदनाओं और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भों को समझने का भी प्रयास करते थे। साही के लिए भाषा का प्रयोग साहित्यिक कृति को उसकी संपूर्णता में समझने के लिए आवश्यक था। उनकी आलोचना में भाषा के माध्यम से साहित्यिक कृति के भावनात्मक और बौद्धिक दोनों पक्षों का गहन अध्ययन किया गया है।
साही की आलोचना में पाठक की भूमिका का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे साहित्यिक पाठ को केवल लेखक के दृष्टिकोण से नहीं देखते थे बल्कि पाठक की भागीदारी को भी उसमें शामिल मानते थे। उनके अनुसार, साहित्यिक कृति का अर्थ पाठक के साथ संवाद से निर्मित होता है। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य पाठक को केवल जानकारी देना नहीं है, बल्कि उसमें उसकी भागीदारी सुनिश्चित करना है। इस दृष्टिकोण से साही की आलोचना में साहित्य को एक संवादमूलक प्रक्रिया के रूप में देखा गया है, जिसमें पाठक की भागीदारी से ही साहित्यिक कृति का वास्तविक अर्थ
उद् घाटित होता है। साही की दृष्टि में लेखक और पाठक दोनों की समान रूप से महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य पाठक के मन में प्रश्न उत्पन्न करना, उसकी संवेदनाओं को जागृत करना और उसमें सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों के प्रति जागरूकता पैदा करना है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना में साहित्य की बहुआयामी दृष्टि स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। वे साहित्य को केवल एक कला का माध्यम नहीं मानते थे बल्कि उसमें समाज, संस्कृति, राजनीति और दर्शन के विभिन्न पहलुओं को देखना चाहते थे। साही की आलोचना में यह बहुआयामी दृष्टि साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने का प्रयास करती है। वे साहित्यिक कृतियों में सामाजिक संदर्भों, सांस्कृतिक प्रतीकों, और मानवीय संवेदनाओं को गहराई से समझने का प्रयास करते थे और इस प्रक्रिया में साहित्य को एक समग्र दृष्टिकोण से देखना चाहते थे।
साही अपने साहित्य को उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भों में देखना चाहते थे। उनके लिए साहित्य का उद्देश्य वर्तमान समय की समस्याओं को समझना और उन्हें समाज के सामने प्रस्तुत करना था। साही का यह दृष्टिकोण साहित्य को उसके समय के सापेक्ष समझने का प्रयास करता है, जिसमें वे साहित्यिक कृतियों के माध्यम से वर्तमान समाज की जटिलताओं, उसकी समस्याओं, और उसमें व्याप्त संघर्षों को समझने का प्रयास करते थे। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य समाज की वास्तविकता को समझना और उसे अभिव्यक्त करना है ताकि समाज में आवश्यक परिवर्तन लाया जा सके। साही की आलोचना में यह समकालीन दृष्टिकोण साहित्य को एक जागरूक और सक्रिय माध्यम बनाता है, जिसमें साहित्यकार अपने समय की समस्याओं और चुनौतियों से सीधे संवाद करता है।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना शैली में एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उनकी मौलिकता है। वे साहित्यिक कृतियों का विश्लेषण करते समय परंपरागत आलोचना प्रतिमानों का पालन नहीं करते थे बल्कि अपने दृष्टिकोण से साहित्य को समझने का प्रयास करते थे। साही की आलोचना में मौलिकता का यह भाव साहित्य को उसकी नवीनता और संभावनाओं में समझने का प्रयास करता है। वे साहित्य को किसी एक निश्चित खांचे में नहीं बांधते थे बल्कि उसमें नए आयामों और संभावनाओं को खोजने का प्रयास करते थे। उनका मानना था कि साहित्य का वास्तविक उद्देश्य उसकी स्वतंत्रता और उसकी रचनात्मकता में निहित है। इसी कारण से साही की आलोचना साहित्य को उसकी स्वायत्तता और उसमें छुपी संभावनाओं के संदर्भ में देखती है, जिसमें साहित्य की स्वतंत्रता छुपी है।
मौलिकता का महत्त्व प्रमुख है। विजयदेव नारायण साही साहित्य को किसी पूर्व निर्धारित दृष्टिकोण या आलोचनात्मक सिद्धांतों से बाँधने के बजाय उसके अंदर मौजूद स्वतंत्रता और विविधता को समझने में विश्वास रखते थे। वे साहित्यिक कृति के साथ एक जीवंत संवाद स्थापित करते थे, जिसमें वे अपनी स्वयं की दृष्टि और संवेदनशीलता का उपयोग करते थे। साही का यह दृष्टिकोण उन्हें उन आलोचकों से अलग करता है जो साहित्य को केवल एक सैद्धांतिक ढांचे में देखने का प्रयास करते हैं। वे मानते थे कि हर साहित्यिक कृति अपने आप में एक अनोखा संसार होती है, जिसे समझने के लिए किसी एकल दृष्टिकोण का नहीं बल्कि उस कृति की विशेषता को समझने के प्रयास की जरूरत होती है। उनकी आलोचना में मौलिकता के इसी तत्व के कारण साहित्य के प्रति उनका दृष्टिकोण हमेशा नवीन और रचनात्मक बना रहता है।
साही की आलोचना में लोक साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान था। वे मानते थे कि लोक साहित्य किसी भी समाज की जड़ें होती हैं और उसमें समाज की वास्तविक संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ अभिव्यक्त होती हैं। लोक साहित्य के प्रति उनकी यह संवेदनशीलता उन्हें भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों की भावनाओं को समझने के लिए प्रेरित करती है। लोक साहित्य को वे केवल मनोरंजन का साधन नहीं मानते थे, बल्कि उसमें समाज की वास्तविकता, उसकी समस्याएँ, और उसकी संघर्षशीलता का गहन चित्रण देखते थे। लोक साहित्य में निहित प्राचीन ज्ञान, लोकगाथाएँ, लोकगीत, और उसमें समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों की कहानियाँ, साही की आलोचना में विशेष महत्त्व रखती थीं। वे लोक साहित्य को साहित्यिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते थे और उसे मुख्यधारा के साहित्य से जोड़ने का प्रयास करते थे।
लोक साहित्य के प्रति साही का दृष्टिकोण इस बात को स्पष्ट करता है कि वे साहित्य को केवल शिक्षित वर्ग की संपत्ति नहीं मानते थे। उनके लिए साहित्य का वास्तविक अर्थ तब ही प्रकट होता है जब उसमें समाज के सभी वर्गों की आवाज़ सुनाई दे। साही की आलोचना में इस जनतांत्रिक दृष्टिकोण का व्यापक प्रभाव है, जिसमें वे साहित्य को उसकी व्यापकता और उसमें निहित विविधता में समझने का प्रयास करते हैं। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों को समान रूप से अभिव्यक्त करना होना चाहिए और इसमें लोक साहित्य की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। उनकी आलोचना में लोक और शास्त्र दोनों की सम्मिलित धारा दिखाई देती है, जिसमें वे दोनों के बीच कोई भेद नहीं मानते थे, बल्कि उन्हें एक दूसरे के पूरक के रूप में देखते थे।
विजयदेव नारायण साही की आलोचना में पाश्चात्य साहित्य और भारतीय साहित्य दोनों का सम्यक दृष्टिकोण भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वे साहित्यिक अध्ययन में दोनों परंपराओं के बीच के संबंधों को समझने का प्रयास करते थे। साही मानते थे कि भारतीय साहित्य और पाश्चात्य साहित्य का संबंध विरोधी नहीं बल्कि संवादमूलक होना चाहिए। वे दोनों परंपराओं के साहित्यिक सिद्धांतों, संवेदनाओं और दृष्टिकोणों का विश्लेषण करते थे और उन्हें एक दूसरे के संदर्भ में समझने का प्रयास करते थे। इस दृष्टिकोण से साही की आलोचना साहित्य को केवल क्षेत्रीय सीमाओं में नहीं बांधती, बल्कि उसमें वैश्विक दृष्टिकोण भी देखती है। वे भारतीय साहित्य को उसके संदर्भों में ही नहीं बल्कि वैश्विक साहित्यिक परंपराओं के संदर्भ में भी समझने का प्रयास करते थे, जिसमें साहित्य की व्यापकता और उसमें निहित संभावनाओं का विश्लेषण किया जा सकता है।
साही की आलोचना में साहित्यिक कृति के प्रति सम्मान है। वे मानते थे कि साहित्यिक कृति अपने आप में एक संपूर्ण और स्वतंत्र रचना होती है, जिसका उद्देश्य किसी सिद्धांत या विचारधारा के तहत सीमित नहीं किया जा सकता। साही की दृष्टि में साहित्यिक कृति के प्रति सम्मान का अर्थ है उसकी स्वतंत्रता और उसकी रचनात्मकता का मान रखना। वे साहित्यिक कृति को किसी विचारधारा के तहत विवेचित करने के बजाय उसे उसकी मौलिकता और उसमें निहित अर्थों के संदर्भ में समझने का प्रयास करते थे। साही के लिए साहित्य का मूल्य उसकी अपनी स्वतंत्रता और उसकी विशेषता में निहित है जिसे किसी बाहरी सिद्धांत या विचारधारा के तहत सीमित नहीं किया जा सकता। उनकी आलोचना में साहित्यिक कृति के प्रति यह सम्मान साहित्य को एक स्वतंत्र और मौलिक रचना के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें उसकी रचनात्मकता और उसमें निहित संभावनाओं का पूर्ण रूप से विश्लेषण किया जा सकता है।
विजयदेव नारायण साही का मानना था कि साहित्य केवल व्यक्तिगत अनुभूतियों का संग्रह नहीं है बल्कि उसमें सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। वे साहित्यिक कृतियों में समाज की समस्याओं, उसकी जटिलताओं और उसमें व्याप्त असमानताओं को समझने का प्रयास करते थे। साही की आलोचना में साहित्य का सामाजिक संदर्भ स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जिसमें वे साहित्य को समाज का दर्पण मानते थे। उनका मानना था कि साहित्य समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करने का एक साधन है, जिसमें उसकी समस्याओं और उसकी संघर्षशीलता का गहन विश्लेषण किया जाता है। साही की दृष्टि में साहित्य केवल व्यक्तिगत भावनाओं का संग्रह नहीं था, बल्कि उसमें समाज के सभी पहलुओं, उसकी संस्कृति, परंपराओं, और उसमें व्याप्त समस्याओं का चित्रण होता था।
साही की आलोचना में साहित्य के सामाजिक संदर्भ का महत्व उनके समकालीन समाज में व्याप्त समस्याओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य समाज को बदलना और उसमें व्याप्त असमानताओं को चुनौती देना है। उनके लिए साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं था बल्कि उसमें सामाजिक न्याय और समानता की भावना निहित थी। साही की आलोचना में यह दृष्टिकोण साहित्य को समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी का बोध कराता है, जिसमें वह समाज की समस्याओं को समझने और उन्हें सुलझाने का प्रयास करता है। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य केवल समाज की समस्याओं को प्रस्तुत करना नहीं है बल्कि उसमें परिवर्तन के लिए प्रेरणा भी देना है। उनका यह दृष्टिकोण साहित्य को एक जागरूक और सक्रिय माध्यम बनाता है, जिसमें वह समाज की बेहतरी के लिए अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रतिबद्ध होता है।
विजयदेव नारायण साही मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य मनुष्य के जीवन को समृद्ध बनाना और उसमें निहित संभावनाओं को समझना है। साही का यह दृष्टिकोण साहित्य को केवल यथार्थ का चित्रण करने से ऊपर उठाकर उसमें निहित आदर्शों और मूल्यों का अन्वेषण करता है। वे मानते थे कि साहित्य का वास्तविक उद्देश्य मानवता की उन्नति और उसमें निहित उच्चतम मूल्यों का निवेश करना है। साही की आलोचना में यह आदर्शवादी दृष्टिकोण साहित्य को उसकी सकारात्मक संभावनाओं और उसमें निहित आशाओं के संदर्भ में देखता है। वे साहित्यिक कृतियों में उन आदर्शों और मूल्यों को खोजने का प्रयास करते थे, जो मानवता को उन्नत करने और उसे एक उच्चतर स्थिति में ले जाने का प्रयास करते हैं।
साही का साहित्यिक कृतियों के प्रति यह आदर्शवादी दृष्टिकोण उन्हें साहित्य की वास्तविक शक्ति और उसके उद्देश्य के प्रति एक गहरी आस्था के रूप में प्रस्तुत करता है। वे मानते थे कि साहित्य में समाज को बदलने और उसमें निहित बुराइयों को समाप्त करने की शक्ति होती है। उनका यह दृष्टिकोण साहित्य को एक सामाजिक सुधारक के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें वह समाज में व्याप्त असमानताओं, अन्याय और भेदभाव को चुनौती देने और उन्हें समाप्त करने का प्रयास करता है। साही की आलोचना में साहित्य का यह आदर्शवादी दृष्टिकोण साहित्य को उसके उच्चतम उद्देश्य में देखता है, जिसमें वह मानवता की सेवा करने और उसमें निहित श्रेष्ठता के मूल्यों को बढ़ावा देने का प्रयास करता है।
विजयदेव नारायण साही मानते थे कि साहित्य में सौंदर्य का महत्त्व अत्यधिक है लेकिन यह सौंदर्य केवल बाहरी सौंदर्य तक सीमित नहीं है। साही का सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण साहित्यिक कृतियों के आंतरिक सौंदर्य और उनमें निहित गहन अर्थों को समझने का प्रयास करता है। उनके लिए साहित्य का सौंदर्य केवल भाषा की सजीवता या चित्रण की सुंदरता में नहीं था बल्कि उसमें निहित संवेदनाओं, संघर्षों और उसमें प्रस्तुत मानवीय जीवन के जटिल अनुभवों में था। साही की आलोचना में सौंदर्य का यह दृष्टिकोण साहित्य को उसकी संपूर्णता में समझने का प्रयास करता है, जिसमें वह उसकी गहराई और उसमें निहित मानवीयता को समझने की कोशिश करते हैं। साही का सौंदर्यशास्त्र साहित्य में मानवीय संवेदनाओं और उनमें निहित संघर्षों की गहराई को उजागर करता है।
विजयदेव नारायण साही ने अपनी आलोचना और विचारों में लोकतंत्र के प्रति अपने दृष्टिकोण को गहराई से प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, लोकतंत्र न केवल राजनीतिक प्रणाली थी बल्कि वह एक सांस्कृतिक और मानवीय दृष्टिकोण भी था, जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान देने का मूलभूत सिद्धांत था। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र का उद्देश्य केवल सरकार और जनता के बीच के संबंधों तक सीमित नहीं था बल्कि वह जीवन के सभी पहलुओं में समानता, न्याय और सम्मान का आदर्श स्थापित करना था। साही का लोकतांत्रिक दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि समाज को समावेशी और न्यायपूर्ण बनाने के लिए लोकतंत्र की आवश्यकताओं को सही रूप में समझना और उनका पालन करना चाहिए।
विजयदेव नारायण साही ने लोकतंत्र की कसौटियों को चार मुख्य स्तरों पर परिभाषित किया: राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत। उनके अनुसार, लोकतंत्र का राजनीतिक पक्ष केवल शासन प्रणाली तक सीमित नहीं है। सही मायनों में लोकतंत्र तब स्थापित होता है जब शासन की शक्ति जनता के हाथों में हो और सभी निर्णय पारदर्शी और जनहित में लिए जाएं। वे मानते थे कि लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ है कि लोगों को अपने जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों में समान भागीदारी का अधिकार हो। साही के अनुसार, एक सच्चा लोकतंत्र केवल चुनाव प्रक्रिया तक सीमित नहीं रह सकता बल्कि उसे अपनी नीतियों और निर्णयों के माध्यम से जनता की भलाई और न्याय सुनिश्चित करना होगा।
राजनीतिक संदर्भ में, साही का मानना था कि लोकतंत्र की असली कसौटी उसकी पारदर्शिता और जवाबदेही में निहित है। यदि शासक सत्ता को अपने हित में प्रयोग कर रहे हैं और जनता की समस्याओं की उपेक्षा कर रहे हैं तो वह लोकतंत्र के नाम पर एक अधिनायकवादी शासन से अधिक कुछ नहीं है। साही का मानना था कि लोकतंत्र का आदर्श केवल राजनीतिक आजादी नहीं है बल्कि उसमें नागरिकों की सक्रिय भागीदारी और उनके अधिकारों का सम्मान भी शामिल है। वे मानते थे कि लोकतंत्र केवल अधिकारों का नाम नहीं है बल्कि वह कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का भी समुच्चय है। एक सच्चे लोकतंत्र में जनता को अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी निर्वहन करना होता है ताकि समाज में समरसता और न्याय की स्थापना हो सके।
सांस्कृतिक संदर्भ में साही का दृष्टिकोण यह था कि लोकतंत्र केवल राजनीतिक संरचना तक सीमित नहीं रह सकता बल्कि उसे सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी समझा जाना चाहिए। उनके अनुसार, संस्कृति का लोकतंत्रीकरण आवश्यक है, ताकि सभी वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदायों को समानता और स्वतंत्रता का अनुभव हो सके। वे मानते थे कि यदि समाज की सांस्कृतिक धरोहर में केवल एक वर्ग या समुदाय का प्रभुत्व है, तो यह लोकतांत्रिक समाज की संकल्पना के विपरीत है। साही का यह दृष्टिकोण संस्कृति में लोकतंत्र की अनिवार्यता को स्पष्ट करता है जिसमें समाज के सभी वर्गों को अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को प्रकट करने का अधिकार मिलना चाहिए। वे मानते थे कि सच्चे लोकतंत्र में केवल राजनीतिक और सामाजिक सुधार ही पर्याप्त नहीं हैं बल्कि सांस्कृतिक समावेशन भी उतना ही आवश्यक है।
साही के अनुसार, संस्कृति का लोकतंत्रीकरण केवल विविधता का सम्मान करना नहीं है बल्कि उसमें निहित सभी आवाज़ों को समानता के साथ सुने जाने का अधिकार देना भी है। वे मानते थे कि सांस्कृतिक क्षेत्र में लोकतंत्र का आदर्श तब स्थापित होता है, जब सभी वर्गों, जातियों और समुदायों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को समान मान्यता मिलती है। उनका मानना था कि संस्कृति केवल समाज के प्रभुत्वशाली वर्गों की संपत्ति नहीं होनी चाहिए बल्कि उसमें सभी वर्गों का समान अधिकार होना चाहिए। साही का यह दृष्टिकोण समाज में सांस्कृतिक न्याय और समरसता की स्थापना के लिए एक महत्त्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है, जिसमें सभी समुदायों की संस्कृति और परंपरा का सम्मान किया जाता है और उन्हें अपनी पहचान को प्रकट करने का अवसर मिलता है।
सामाजिक स्तर पर साही का लोकतांत्रिक दृष्टिकोण यह था कि समाज में समानता और न्याय की स्थापना ही लोकतंत्र की वास्तविक कसौटी है। वे मानते थे कि यदि समाज में वर्गभेद, जातिवाद, और लैंगिक असमानता जैसी समस्याएँ व्याप्त हैं तो वह समाज सच्चे लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। उनके अनुसार, लोकतंत्र का उद्देश्य केवल राजनीतिक अधिकार देना नहीं है बल्कि उसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान भी मिलना चाहिए। वे मानते थे कि समाज में लोकतंत्र की स्थापना तब ही संभव है जब सभी व्यक्तियों को उनके मौलिक अधिकार, समानता का अधिकार और स्वतंत्रता का अनुभव हो सके। साही के लिए सामाजिक न्याय लोकतंत्र की अनिवार्यता थी, जिसमें समाज के सभी सदस्यों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार मिलते हैं।
साही का मानना था कि लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ तभी पूर्ण हो सकता है जब समाज में समानता की स्थापना हो और उसमें व्याप्त सभी प्रकार की असमानताओं को समाप्त किया जाए। वे मानते थे कि समाज में व्याप्त जातिवाद, लैंगिक असमानता, और आर्थिक विषमता जैसी समस्याएँ लोकतंत्र की मूलभूत भावना के विपरीत हैं और उन्हें समाप्त करने के लिए समाज को एकजुट होना चाहिए। साही के अनुसार, लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य समाज में एक ऐसा वातावरण बनाना है, जिसमें सभी व्यक्ति अपनी क्षमताओं को पूरी तरह से विकसित कर सकें और समाज की बेहतरी के लिए अपना योगदान दे सकें। उनका दृष्टिकोण यह था कि यदि समाज में एक वर्ग विशेष का प्रभुत्व है और अन्य वर्गों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है तो वह सच्चा लोकतंत्र नहीं है।
विजयदेव नारायण साही की दृष्टि में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सम्मान भी लोकतंत्र की कसौटी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। वे मानते थे कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके अधिकारों का संरक्षण है। उनके अनुसार, लोकतंत्र की परिपक्वता तब मानी जा सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों को प्रकट करने, अपनी आस्थाओं का पालन करने और अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का अधिकार मिले। वे मानते थे कि व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी प्रतिष्ठा का सम्मान लोकतंत्र की असली पहचान है। साही का यह दृष्टिकोण व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके अधिकारों को समाज के हर स्तर पर मान्यता दिलाने का प्रयास करता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार हो और वह अपनी पहचान और अपने अस्तित्व को प्रकट कर सके।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संदर्भ में साही का मानना था कि लोकतंत्र का आदर्श केवल बाहरी स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है बल्कि उसमें व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता का भी महत्त्व है। उनके अनुसार, व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता उसे अपने विचारों, संवेदनाओं और अनुभवों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की क्षमता देती है। वे मानते थे कि यदि व्यक्ति अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने में असमर्थ है तो वह सच्चे अर्थों में स्वतंत्र नहीं हो सकता, चाहे उसे कितनी भी बाहरी स्वतंत्रता क्यों न मिली हो। साही का दृष्टिकोण यह था कि लोकतंत्र का उद्देश्य व्यक्ति को आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान करना है ताकि वह अपने जीवन को पूरी स्वतंत्रता के साथ जी सके और समाज में अपनी पहचान को प्रकट कर सके।
साही के अनुसार, लोकतंत्र का उद्देश्य केवल राजनीतिक और सामाजिक सुधार करना नहीं है बल्कि उसमें निहित मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देना भी है। उनके लिए लोकतंत्र का आदर्श तब ही पूरा हो सकता है जब उसमें मानवता और नैतिकता का सम्मान हो। साही का मानना था कि लोकतंत्र का असली अर्थ समाज में मानवीयता, करुणा, और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना है। वे मानते थे कि लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं है, बल्कि वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति उसकी जिम्मेदारी और उसके अधिकारों का सम्मान भी है। साही का यह दृष्टिकोण लोकतंत्र को एक नैतिक आदर्श बनाता है, जिसमें समाज के सभी सदस्यों की समान रूप से देखभाल और सम्मान किया जाता है।
विजयदेव नारायण साही का लोकतंत्र के प्रति दृष्टिकोण उनकी व्यक्तिगत जीवन दृष्टि और उनके साहित्यिक चिंतन का एक अभिन्न हिस्सा था। वे मानते थे कि लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य समाज में एक ऐसा वातावरण बनाना है, जिसमें सभी व्यक्तियों को समान अवसर, सम्मान और स्वतंत्रता प्राप्त हो सके। उनके अनुसार, लोकतंत्र का आदर्श केवल शासन प्रणाली तक सीमित नहीं है बल्कि उसमें समाज के सभी स्तरों पर समानता और न्याय की स्थापना भी शामिल है। साही का दृष्टिकोण यह था कि लोकतंत्र का उद्देश्य केवल सत्ता के हस्तांतरण तक सीमित नहीं है बल्कि उसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करना है ताकि वह अपने जीवन को अपने तरीके से जी सके और समाज की बेहतरी के लिए अपना योगदान दे सके।
विजयदेव नारायण साही ने अपनी आलोचना और विचारों में लोकतंत्र के प्रति अपने दृष्टिकोण को गहराई से प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, लोकतंत्र न केवल राजनीतिक प्रणाली थी बल्कि वह एक सांस्कृतिक और मानवीय दृष्टिकोण भी था जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान देने का मूलभूत सिद्धांत था। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र का उद्देश्य केवल सरकार और जनता के बीच के संबंधों तक सीमित नहीं था बल्कि वह जीवन के सभी पहलुओं में समानता, न्याय और सम्मान का आदर्श स्थापित करना था। साही का लोकतांत्रिक दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि समाज को समावेशी और न्यायपूर्ण बनाने के लिए लोकतंत्र की आवश्यकताओं को सही रूप में समझना और उनका पालन करना चाहिए।
विजयदेव नारायण साही ने लोकतंत्र की कसौटियों को चार मुख्य स्तरों पर परिभाषित किया: राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत। उनके अनुसार, लोकतंत्र का राजनीतिक पक्ष केवल शासन प्रणाली तक सीमित नहीं है। सही मायनों में लोकतंत्र तब स्थापित होता है जब शासन की शक्ति जनता के हाथों में हो और सभी निर्णय पारदर्शी और जनहित में लिए जाएं। वे मानते थे कि लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ है कि लोगों को अपने जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों में समान भागीदारी का अधिकार हो। साही के अनुसार, एक सच्चा लोकतंत्र केवल चुनाव प्रक्रिया तक सीमित नहीं रह सकता बल्कि उसे अपनी नीतियों और निर्णयों के माध्यम से जनता की भलाई और न्याय सुनिश्चित करना होगा।
राजनीतिक संदर्भ में, साही का मानना था कि लोकतंत्र की असली कसौटी उसकी पारदर्शिता और जवाबदेही में निहित है। यदि शासक सत्ता को अपने हित में प्रयोग कर रहे हैं और जनता की समस्याओं की उपेक्षा कर रहे हैं तो वह लोकतंत्र के नाम पर एक अधिनायकवादी शासन से अधिक कुछ नहीं है। साही का मानना था कि लोकतंत्र का आदर्श केवल राजनीतिक आजादी नहीं है बल्कि उसमें नागरिकों की सक्रिय भागीदारी और उनके अधिकारों का सम्मान भी शामिल है। वे मानते थे कि लोकतंत्र केवल अधिकारों का नाम नहीं है बल्कि वह कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का भी समुच्चय है। एक सच्चे लोकतंत्र में जनता को अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी निर्वहन करना होता है, ताकि समाज में समरसता और न्याय की स्थापना हो सके।
सांस्कृतिक संदर्भ में साही का दृष्टिकोण यह था कि लोकतंत्र केवल राजनीतिक संरचना तक सीमित नहीं रह सकता बल्कि उसे सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी समझा जाना चाहिए। उनके अनुसार, संस्कृति का लोकतंत्रीकरण आवश्यक है, ताकि सभी वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदायों को समानता और स्वतंत्रता का अनुभव हो सके। वे मानते थे कि यदि समाज की सांस्कृतिक धरोहर में केवल एक वर्ग या समुदाय का प्रभुत्व है तो यह लोकतांत्रिक समाज की संकल्पना के विपरीत है। साही का यह दृष्टिकोण संस्कृति में लोकतंत्र की अनिवार्यता को स्पष्ट करता है, जिसमें समाज के सभी वर्गों को अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को प्रकट करने का अधिकार मिलना चाहिए। वे मानते थे कि सच्चे लोकतंत्र में केवल राजनीतिक और सामाजिक सुधार ही पर्याप्त नहीं हैं बल्कि सांस्कृतिक समावेशन भी उतना ही आवश्यक है।
साही के अनुसार, संस्कृति का लोकतंत्रीकरण केवल विविधता का सम्मान करना नहीं है बल्कि उसमें निहित सभी आवाज़ों को समानता के साथ सुने जाने का अधिकार देना भी है। वे मानते थे कि सांस्कृतिक क्षेत्र में लोकतंत्र का आदर्श तब स्थापित होता है, जब सभी वर्गों, जातियों और समुदायों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को समान मान्यता मिलती है। उनका मानना था कि संस्कृति केवल समाज के प्रभुत्वशाली वर्गों की संपत्ति नहीं होनी चाहिए बल्कि उसमें सभी वर्गों का समान अधिकार होना चाहिए। साही का यह दृष्टिकोण समाज में सांस्कृतिक न्याय और समरसता की स्थापना के लिए एक महत्त्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है, जिसमें सभी समुदायों की संस्कृति और परंपरा का सम्मान किया जाता है और उन्हें अपनी पहचान को प्रकट करने का अवसर मिलता है।
सामाजिक स्तर पर साही का लोकतांत्रिक दृष्टिकोण यह था कि समाज में समानता और न्याय की स्थापना ही लोकतंत्र की वास्तविक कसौटी है। वे मानते थे कि यदि समाज में वर्गभेद, जातिवाद और लैंगिक असमानता जैसी समस्याएँ व्याप्त हैं तो वह समाज सच्चे लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। उनके अनुसार, लोकतंत्र का उद्देश्य केवल राजनीतिक अधिकार देना नहीं है बल्कि उसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान भी मिलना चाहिए। वे मानते थे कि समाज में लोकतंत्र की स्थापना तब ही संभव है जब सभी व्यक्तियों को उनके मौलिक अधिकार, समानता का अधिकार और स्वतंत्रता का अनुभव हो सके। साही के लिए सामाजिक न्याय लोकतंत्र की अनिवार्यता थी, जिसमें समाज के सभी सदस्यों को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार मिलते हैं।
साही का मानना था कि लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ तभी पूर्ण हो सकता है जब समाज में समानता की स्थापना हो और उसमें व्याप्त सभी प्रकार की असमानताओं को समाप्त किया जाए। वे मानते थे कि समाज में व्याप्त जातिवाद, लैंगिक असमानता, और आर्थिक विषमता जैसी समस्याएँ लोकतंत्र की मूलभूत भावना के विपरीत हैं और उन्हें समाप्त करने के लिए समाज को एकजुट होना चाहिए। साही के अनुसार, लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य समाज में एक ऐसा वातावरण बनाना है, जिसमें सभी व्यक्ति अपनी क्षमताओं को पूरी तरह से विकसित कर सकें और समाज की बेहतरी के लिए अपना योगदान दे सकें। उनका दृष्टिकोण यह था कि यदि समाज में एक वर्ग विशेष का प्रभुत्व है और अन्य वर्गों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है, तो वह सच्चा लोकतंत्र नहीं है।
विजयदेव नारायण साही की दृष्टि में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सम्मान भी लोकतंत्र की कसौटी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। वे मानते थे कि लोकतंत्र का सबसे बड़ा उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके अधिकारों का संरक्षण है। उनके अनुसार, लोकतंत्र की परिपक्वता तब मानी जा सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों को प्रकट करने, अपनी आस्थाओं का पालन करने और अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का अधिकार मिले। वे मानते थे कि व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी प्रतिष्ठा का सम्मान लोकतंत्र की असली पहचान है। साही का यह दृष्टिकोण व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके अधिकारों को समाज के हर स्तर पर मान्यता दिलाने का प्रयास करता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार हो और वह अपनी पहचान और अपने अस्तित्व को प्रकट कर सके।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संदर्भ में साही का मानना था कि लोकतंत्र का आदर्श केवल बाहरी स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता का भी महत्व है। उनके अनुसार, व्यक्ति की आंतरिक स्वतंत्रता उसे अपने विचारों, संवेदनाओं और अनुभवों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की क्षमता देती है। वे मानते थे कि यदि व्यक्ति अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने में असमर्थ है तो वह सच्चे अर्थों में स्वतंत्र नहीं हो सकता, चाहे उसे कितनी भी बाहरी स्वतंत्रता क्यों न मिली हो। साही का दृष्टिकोण यह था कि लोकतंत्र का उद्देश्य व्यक्ति को आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान करना है ताकि वह अपने जीवन को पूरी स्वतंत्रता के साथ जी सके और समाज में अपनी पहचान को प्रकट कर सके।
साही के अनुसार, लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष उसकी नैतिकता और मानवता है। वे मानते थे कि लोकतंत्र का उद्देश्य केवल राजनीतिक और सामाजिक सुधार करना नहीं है बल्कि उसमें निहित मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देना भी है। उनके लिए लोकतंत्र का आदर्श तब ही पूरा हो सकता है, जब उसमें मानवता और नैतिकता का सम्मान हो। साही का मानना था कि लोकतंत्र का असली अर्थ समाज में मानवीयता, करुणा, और सहयोग की भावना को बढ़ावा देना है। वे मानते थे कि लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं है, बल्कि वह समाज के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति उसकी जिम्मेदारी और उसके अधिकारों का सम्मान भी है। साही का यह दृष्टिकोण लोकतंत्र को एक नैतिक आदर्श बनाता है, जिसमें समाज के सभी सदस्यों की समान रूप से देखभाल और सम्मान किया जाता है।
विजयदेव नारायण साही का लोकतंत्र के प्रति दृष्टिकोण उनकी व्यक्तिगत जीवन दृष्टि और उनके साहित्यिक चिंतन का एक अभिन्न हिस्सा था। वे मानते थे कि लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य समाज में एक ऐसा वातावरण बनाना है, जिसमें सभी व्यक्तियों को समान अवसर, सम्मान और स्वतंत्रता प्राप्त हो सके। उनके अनुसार, लोकतंत्र का आदर्श केवल शासन प्रणाली तक सीमित नहीं है बल्कि उसमें समाज के सभी स्तरों पर समानता और न्याय की स्थापना भी शामिल है। साही का दृष्टिकोण यह था कि लोकतंत्र का उद्देश्य केवल सत्ता के हस्तांतरण तक सीमित नहीं है बल्कि उसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करना है ताकि वह अपने जीवन को अपने तरीके से जी सके और समाज की बेहतरी के लिए अपना योगदान दे सके।
विजयदेव नारायण साही का लंबा निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ हिंदी साहित्य और कविता के विश्लेषण में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस निबंध के माध्यम से साही ने न केवल हिंदी कविता के विकास और उसकी प्रवृत्तियों का गहन विश्लेषण किया है, बल्कि उसमें निहित सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों को भी सामने लाने का प्रयास किया है। ‘लघु मानव’ के माध्यम से उन्होंने उस साधारण व्यक्ति की बात की है जो समाज में अक्सर हाशिए पर होता है और जिसकी संवेदनाएँ और अनुभव मुख्यधारा की कविता में अक्सर अनदेखी रह जाती हैं। साही ने इस निबंध में इसी ‘लघु मानव’ को केंद्र में रखकर हिंदी कविता की दिशा और दशा पर गहन चिंतन किया है। उनका उद्देश्य था कि कविता में उस साधारण व्यक्ति के अनुभवों और संघर्षों को शामिल किया जाए, जो समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
साही का निबंध ‘लघु मानव के बहाने’ उस समय की हिंदी कविता के विकास की प्रवृत्तियों और उसमें होने वाली परिवर्तनशीलता का विश्लेषण करता है। उन्होंने अपने निबंध में उस समय की कविताओं में मौजूद संवेदनशीलता और उनकी सीमाओं को उजागर किया है। उनके अनुसार, हिंदी कविता का उद्देश्य केवल आभिजात्य और कलात्मकता नहीं होना चाहिए, बल्कि उसमें समाज के साधारण लोगों की संवेदनाओं और उनके संघर्षों को भी स्थान मिलना चाहिए। साही ने इस बात पर बल दिया कि साहित्य का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों की भावनाओं और उनके अनुभवों का प्रतिनिधित्व करना होना चाहिए, न कि केवल उन लोगों का जो साहित्यिक जगत के मुख्यधारा में आते हैं।
इस निबंध में साही ने कविता की भूमिका पर पुनर्विचार करने की बात कही है। वे मानते थे कि कविता का उद्देश्य केवल सौंदर्य का चित्रण नहीं है, बल्कि उसमें समाज की वास्तविकता, उसकी समस्याओं और उसके संघर्षों का भी चित्रण होना चाहिए। उनके अनुसार, साहित्य का वास्तविक उद्देश्य तब ही पूरा होता है, जब उसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति की आवाज़ सुनाई दे। ‘लघु मानव’ का प्रयोग करते हुए साही ने उस साधारण व्यक्ति के अनुभवों को प्रस्तुत किया है, जो समाज में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। उनके अनुसार, कविता का कर्तव्य है कि वह इस संघर्ष और उसमें निहित मानवीयता को प्रकट करे, ताकि समाज के सभी वर्गों की भावनाएँ और उनकी समस्याएँ साहित्य में प्रतिध्वनित हो सकें।
विजयदेव नारायण साही का यह निबंध हिंदी कविता के प्रति एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत करता है। उन्होंने उस समय की कविता को एक बंद घेरे में बाँधने का विरोध किया जिसमें केवल अभिजात वर्ग की समस्याओं और उनकी संवेदनाओं को ही महत्त्व दिया जाता था। साही का मानना था कि हिंदी कविता का उद्देश्य केवल कुछ विशेष वर्गों की समस्याओं का चित्रण नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के अनुभवों और उनके संघर्षों को भी स्थान मिलना चाहिए। उन्होंने कविता के क्षेत्र में आ रहे अभिजात दृष्टिकोण और उसमें निहित आत्ममुग्धता का विरोध किया जिसमें केवल कविता की कलात्मकता पर ही ध्यान दिया जाता है जबकि समाज की वास्तविक समस्याओं की उपेक्षा की जाती है।
साही का दृष्टिकोण यह था कि हिंदी कविता को अपनी सीमाओं से बाहर निकलना चाहिए और उसमें समाज के सभी वर्गों की संवेदनाएँ और उनके अनुभव शामिल होने चाहिए। उनका मानना था कि साहित्य का उद्देश्य समाज को समझना और उसमें सुधार लाने का प्रयास करना होना चाहिए, न कि केवल कलात्मकता के नाम पर उसे एक सीमित घेरे में बाँधना। ‘लघु मानव’ का प्रयोग करके उन्होंने उस साधारण व्यक्ति के अनुभवों को प्रस्तुत किया है जो समाज की जटिलताओं और उसमें व्याप्त असमानताओं का सामना करता है। साही का यह दृष्टिकोण हिंदी कविता के क्षेत्र में एक नई दिशा की ओर संकेत करता है, जिसमें कविता का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों की भावनाओं और उनके अनुभवों को प्रकट करना है।
विजयदेव नारायण साही ने इस निबंध में कविता की भाषा और उसकी शैली पर भी गहन चिंतन किया है। उन्होंने उस समय की हिंदी कविता की भाषा को आलोचना के दायरे में रखा जिसमें अक्सर आभिजात और शास्त्रीयता की अधिकता दिखाई देती थी। साही का मानना था कि कविता की भाषा का उद्देश्य केवल कलात्मकता नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें साधारण व्यक्ति की भाषा और उसकी संवेदनाएँ भी प्रकट होनी चाहिए। उनके अनुसार, कविता की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जिसे समाज के सभी वर्ग समझ सकें और उसमें अपनी आवाज़ सुन सकें।
विजयदेव नारायण साही का यह निबंध हिंदी कविता की स्थिति पर भी एक गंभीर चिंतन प्रस्तुत करता है। उन्होंने उस समय की कविता में मौजूद संवेदनहीनता और उसकी सीमाओं को उजागर किया और उसमें सुधार लाने का प्रयास किया। उनके अनुसार, हिंदी कविता का उद्देश्य केवल अभिजात वर्ग की संवेदनाओं और उनकी समस्याओं का चित्रण नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें समाज के साधारण लोगों के अनुभवों और उनके संघर्षों को भी स्थान मिलना चाहिए। साही का दृष्टिकोण हिंदी कविता को उसकी सीमाओं से बाहर निकालने और उसे समाज के सभी वर्गों की आवाज़ बनाने का था, जिसमें सभी व्यक्तियों को समान रूप से स्थान मिल सके और उनकी समस्याएँ और उनके अनुभव साहित्य में प्रकट हो सकें।
साही ने ‘लघु मानव के बहाने’ निबंध में समाज में व्याप्त असमानता और अन्याय को भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने उस साधारण व्यक्ति के अनुभवों को केंद्र में रखा है जो समाज में व्याप्त असमानताओं और अन्याय का सामना करता है। उनके अनुसार, कविता का उद्देश्य केवल समाज की समस्याओं को प्रस्तुत करना नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें निहित असमानताओं और अन्याय को चुनौती देना भी होना चाहिए।