जाना जेपी के एक नैतिक सिपाही का

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Rajiv

arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

खनऊ के हलवासिया में आईआईटी-जेई के उम्मीदवारों को फिजिक्स पढ़ाने वाले राजीव सर नहीं रहे। यह उनका व्यावसायिक परिचय है। लेकिन उनके जाने के बाद देश भर के सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जिस तरह से प्रतिक्रिया हुई है उससे जाहिर है कि वे जयप्रकाश नारायण के क्रांतिकारी सपनों को आज भी अपनी आंखों में जिंदा रखने वालों को जोड़ने वाले एक सूत्र थे। उनकी चमकती सुंदर आंखों राजीव नयन में आज भी वह सपना तैरता रहता था। पिछले दिनों एक सितंबर को जब जेपी आंदोलन के युवा साथी रहे और आजकल गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत को राही मासूम रजा सम्मान दिए जाने के मौके पर मिले तो युवाओं का एक संगठन बनाने की तैयारी कर रहे थे। राजीव इस तरह से सपने देखते और बेचते रहते थे और उनके टूट जाने पर कुछ दिन शांत रह कर फिर नया कुछ करने लगते थे।

उनका पूरा नाम राजीव मिश्र था लेकिन जेपी के जाति तोड़ो अभियान के प्रभाव में उन्होंने अपना नाम राजीव हेमकेशव रख लिया था। केशव उनके पिता का नाम था और हेम उनकी मां के नाम का आधा हिस्सा था। हालांकि बाद में उस अभियान में साथ रहे कई लोगों ने अपना जातिसूचक नाम लगा लिया लेकिन राजीव वैसे ही रहे। उनसे मुलाकात आपातकाल के बाद हुई थी लेकिन मित्र बताते थे कि वे जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रभाव में आईआईटी कानपुर छोड़कर निकल आए थे। कानपुर का आईआईटी उन दिनों तमाम क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था। राजीव जेपी के संगठन `छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ के सक्रिय सदस्य थे और बिहार के बोधगया से लेकर लखनऊ के तमाम शिविरों के आयोजक या सक्रिय भागीदार थे। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में उस समय हलचल मचा दी थी जब नारा दिया था कि `आम छात्र को ताकत दो’।

एक बार जब उनके साथियों ने विश्वविद्यालय में पोस्टर लगवाया—विश्वविद्यालय किसका? कुलपति का, शिक्षकों का या छात्रों का? तो इस पोस्टर पर प्रशासन भड़क गया और उन छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन राजीव हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने अपने विचारों के अनुरूप युवाओं को तैयार करने के लिए विचार केंद्र चलाए, पत्रिकाएं निकालीं, अखबार निकाले और लखनऊ की सड़कों पर कई बार जुलूस की शक्ल में उतरे। देवराला में रूपकंवर के सती होने के बाद उन्होंने लखनऊ की सड़कों पर बड़ा जुलूस आयोजित किया जिसमें उनकी मां ने भी हिस्सा लिया और लालबाग की सभा में मशहूर साहित्यकार अमृतलाल नागर ने भी उस सभा को संबोधित किया।

राजीव लखनऊ की पेपर मिल कॉलोनी में आचार्य नरेंद्र देव के शिष्य चंद्रदत्त तिवारी के आवास पर जो विचार केंद्र चलाते थे उसमें प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, सर्वजीत लाल वर्मा, कृष्णनारायण कक्कड़, रणवीर सिंह बिष्ट, भुवनेश मिश्र, प्रोफेसर रमेश तिवारी, डॉ प्रमोद, जैनेंद्र जैन, जैसे लखनऊ के कई जागरूक शिक्षक और कलाकार तो आते ही थे, बड़े पैमाने पर पुनीत टंडन, अंबरीश कुमार, आलोक जोशी, हरिंदर, अनूप, प्रभात, नागेंद्र, छविधाम, अतुल सिंघल, राकेश श्रीवास्तव, चंद्रपाल, ओमप्रकाश जैसे युवाओं की भी उपस्थिति होती थी। इन युवाओं ने बाद में पत्रकारिता, बैंकिंग और लेखन के क्षेत्र में अपने अपने झंडे गाड़े। विचार केंद्र की खूबी यह थी कि वहां देश के किसी और शहर से लखनऊ आने वाला हर बौद्धिक किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जाता था।

राजीव हर तरह की नई उभरती राजनीतिक धाराओं को समझने और उनमें संभावना टटोलने की कोशिश करते थे। एक बार वे कांशीराम के बहुत करीब पहुंच गए थे लेकिन किन्हीं कारणों से उनकी पार्टी में शामिल होने से पीछे हट गए। राजीव में सामाजिक बदलाव और नैतिक लोकतंत्र कायम करने की बेचैनी थी और उसी के चलते सन 2000 के आसपास उन्होंने एक नायाब प्रयोग शुरू किया। उस प्रक्रिया का नाम था `संवाद संपर्क प्रक्रिया’। उस प्रक्रिया से गांधीवादी, समाजवादी, सर्वोदयी, कम्युनिस्ट, धुर वामपंथी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पर्यावरण, स्त्री आंदोलन संबंधी राष्ट्रीय स्तर के तमाम कार्यकर्ता और नेता जुड़े थे। `संवाद संपर्क प्रक्रिया’ की मान्यता थी कि देश में अब क्रांति या बड़ा बदलाव करना किसी एक विचारधारा और संगठन के बस की बात नहीं है। अगर वह होगी तो सबके सहयोग से मिलकर अहिंसक तरीके से ही होगी।

इसलिए सभी को किसी नई विचारदृष्टि को विकसित करने के लिए आपस में संवाद करना चाहिए और यह संकल्प लेना चाहिए कि गहरे मतभेद होने के बावजूद हम टूटेंगे नहीं बल्कि संवाद करते रहेंगे। इस प्रक्रिया से जुड़ने वाले प्रमुख लोगों में गंगा मुक्ति आंदोलन के अनिल प्रकाश, महाराष्ट्र के कम्युनिस्ट नेता विलास सोनावड़े, शशि सोनावड़े, बोधगया आंदोलन के प्रभात कुमार, इंडियन पीपुल्स फ्रंट के संस्थापक आनंद स्वरूप वर्मा, ओडिशा के अक्षय, आजादी बचाओ आंदोलन के डा.एके अरुण, बिहार के नक्सली आंदोलन के पासवान, इलाहाबाद के रामधीरज, लखनऊ के गोपाल राय, मुरादाबाद के राकेश रफीक और कानपुर के विजय चावला जैसे कई नाम हैं। बाद में इस प्रक्रिया के प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष अखिलेंद्र प्रताप सिंह जैसे लोग भी आकर्षित हुए।

संवाद संपर्क प्रक्रिया आगे बढ़ी और उसमें एक ओर वैश्वीकरण की विनाशकारी लहर को रोकने का आग्रह था तो दूसरी ओर समतामूलक समाज बनाने के लिए जातिगत व्यवस्था को बदलने का। विचार निर्माण के साथ संगठन निर्माण भी तेज हुआ और युवाओं का संगठन बना `युवा भारत’। `युवा भारत’ के कई राज्यों में सम्मेलन हुए और वह देश के युवाओं के आकर्षण का केंद्र बनने लगा। एक दौर में विलास सोनावड़े और अनिल प्रकाश इस आंदोलन के अग्रणी नेता होकर उभरे और शशि सोनावड़े, दयानंद कनकदंडे और अक्षय जैसे प्रखर और जुझारू युवाओं ने `युवा भारत’ की कमान संभाली। लेकिन आंतरिक खींचतान और स्वार्थ के चलते संगठन और प्रक्रिया में टकराव बढ़ा और बाद में सब कुछ बिखर सा गया। इसी बीच भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठे अन्ना आंदोलन ने ऐसे तमाम आंदोलनों की ऊर्जा सोख ली और फिर भाजपा को ताकत देकर और आंदोलनों को असहाय बनाकर छोड़ दिया।

राजीव पारिवारिक दायित्वों में उलझ गए और स्वास्थ्य संबंधी कारणों से थोड़े सुस्त हो गए। लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में जब देश के लोकतंत्र पर गहरा संकट महसूस होने लगा तो फिर राजीव कभी लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण अभियान’ के बहाने तो कभी `राजीव गांधी फाउंडेशन’ के बहाने सक्रिय होने लगे। लखनऊ जाने पर राजीव हर उस कार्यक्रम में मिल जाते थे जिसमें लोकतंत्र की, संविधान की और नैतिकता के साथ बदलाव की कोई संभावना होती थी। पिछले दिनों राजीव ने एक पुस्तिका निकाली जिसका शीर्षक था—`एक साल में बेरोजगारी और गरीबी मुक्त भारत’। पुस्तिका के सुझाव तो अव्यावहारिक हैं लेकिन उसकी चिंताएं वाजिब थीं। इस पुस्तिका में वे राजकपूर की फिल्म `मेरा नाम जोकर’ के उस संवाद का उल्लेख करते हैं जिसमें राजू कहता है, ` दुनिया में एक चीज बब्बर शेर से भी ज्यादा खतरनाक और डरावनी है …वो है गरीबी और भूख….मुझे किसी भी कीमत पर पैसा चाहिए था….अपना और अपनी मां का पेट भरने के लिए, बीमार मां का इलाज कराने के लिए….कई साल से शहर दर शहर भटक रहा था कोई नौकरी देने को तैयार नहीं…..’’

राजीव भाई की स्थिति राजू जैसी नहीं थी। वे तो लोगों के आईआईटी और सीपीएमटी (अब नीट) के सपनों को पूरा करके कोचिंग से अच्छी आमदनी करते ही थे। लेकिन वे सादगी वाली जिंदगी जीते हुए एक बेहतर समाज का सपना देखने और दिखाने में लगे थे। उनका जाना सपनों की लौ का कुछ समय के लिए बुझ जाने जैसा है। उनके न होने से समाज के बेहतर होने की उम्मीद कुछ कम हुई है। लेकिन उनकी आंखें सचमुच राजीव नयन थीं। उनमें सपने थे और राजीव के जाने के बाद भी वे आज के युवाओं से पूछ रही हैं कि क्या सपने देखना बंद कर देना चाहिए। शायद नहीं क्योंकि पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश ने कहा है कि `सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’।


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