विजय देव नारायण साही और विऔपनिवेशीकरण

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Vijay Dev Narayan Sahi

arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

वि, आलोचक, निबंधकार, कहानीकार, नाटककार, अनुवादक और उनसे सबसे आगे बढ़कर एक समाजवादी चिंतक और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में प्रोफेसर विजय देव नारायण साही का जो अवदान है उन पर जितनी चर्चा होनी चाहिए वह नहीं होती दिखती। इसके दो कारण हैं। एक तो उनकी मौलिकता और निर्भीकता और दूसरे उनके रचना संसार की अनुपलब्धता। वे फटकार कर सच बोलते हैं इसलिए उन्हें ठीक से सुनने के लिए वे लोग तैयार नहीं होते जिनके पास इतिहास का जादुई उपकरण है। वे भविष्य के लिए सुंदर स्वप्न देखते हैं लेकिन उसके लिए अपने वर्तमान की बलि नहीं चढ़ाते। वे प्रगति के लिए निरंतर संघर्षशील हैं लेकिन उसके लिए स्वतंत्रता को गिरवी नहीं रखते।

यानी वे साधन की पवित्रता का ध्यान रख कर चलते हैं और जितना आवश्यक उनके लिए लोक कल्याण है उतना ही स्वान्तः सुखाय। वे दोनों में अंतर्विरोध नहीं देखते। वे हर युग को मानवता की उपलब्धि मानते हैं और उसे कोसने की बजाय, उससे भागने की बजाय उसका निष्पक्ष अवलोकन और मूल्यांकन करते हैं। वे समाजवादी हैं लेकिन न तो प्रगतिशील हैं और न ही जनवादी। वे युरोप के उन्नीसवीं सदी के चिंतकों के सपनों से सहानुभूति भी रखते हैं लेकिन उनके संकुचन को भी रेखांकित करने से डरते नहीं।

वे बनारस में जन्मे और इलाहाबाद(आज के प्रयागराज) को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। साहित्य और राजनीति की दृष्टि से उत्तर भारत में ऐसी उर्वर भूमि और दूसरी थी भी नहीं। उन्होंने आचार्य नरेंद्र देव की प्रेरणा पाई और डा राम मनोहर लोहिया से साथ सत्संग किया। अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई उनके लिए यूरोप की ओर झुकाने की बजाय युरोप को समझने की एक खिड़की साबित हुई। वे फ़ारसी के तो जानकार थे ही और उनमें हिंदी के प्रति अनुराग था इसलिए उनके फलक का निरंतर विस्तार होता गया। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक होते हुए भी उन्होंने डा राम मनोहर लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। अंग्रेज़ी उनके जीवन पर हावी नहीं हो पाई। अंग्रेजियत तो बिल्कुल नहीं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि अंग्रेजी पर वे हावी रहे। उनकी बेशभूषा में खादी का प्राधान्य था।

लेकिन साहित्य में उनकी पर्याप्त चर्चा न होने का एक कारण यह भी हो सकता है कि उन्होंने उन्होंने अगर जायसी के मामले रामचंद्र शुक्ल से लेकर अन्य बड़े आलोचकों को ललकारा तो मार्क्सवादी आलोचना की भी कड़ी समीक्षा की। भले ही वे साहित्य में मार्क्सवादियों के उस सिद्धांत के कटु आलोचक थे कि कला समाज के लिए होनी चाहिए न कि कला कला के लिए हो। लेकिन निजी तौर पर उनका जीवन समाज के लिए समर्पित था। वे एक ओर वे किसान, मजदूर और बुनकरों के साथ सक्रिय राजनीति में भागीदारी करते थे तो दूसरी ओर युवाओं और विद्यार्थियों को बौद्धिक प्रशिक्षण देते रहते थे। समाजवादी युवजन सभा के कार्यक्रमों से लेकर समाजवादी युवाओं को राजनीति को प्रेरित करने में उनका सानी नहीं था। वे स्वयं भी चुनाव लड़ने और बुनकरों के लिए आंदोलन करने जैसे गंभीर राजनीतिक कर्म कर चुके थे।

साही का रचनाकर्म और व्यक्तित्व विचित्र है। एक ओर वे साहित्य और आलोचनात्मक चिंतन को कम्युनिस्ट प्रगतिशीलता से मुक्त करते हुए अपनी कविता को आंतरिक एकालाप कहते हैं तो दूसरी ओर वे गहरे सामाजिक सरोकार से भरे हैं। यानी उनकी मुक्ति उस व्यक्ति के लिए है जो समाज की मुक्त के लिए समर्पित है। साही जी उन लोगों से अलग हैं जो समाज की मुक्ति का वादा करते हुए व्यक्ति को कैद कर लेते हैं। उनके लिए समता का उतना ही महत्त्व है जितना व्यक्ति स्वातंत्रय का। साही की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पूंजीवादी युग में ही प्रकट नहीं हुई है। वह विभिन्न समाजों में इससे पहले भी रही है। विशेषकर रचनाकर्म में वे भारत के प्राचीन रचनाकारों की स्वतंत्रता को उसी तरह सम्मान देते हैं जिस तरह आज के रचनाकारों की स्वतंत्रता को।

कुंवर नारायण उनके चिंतन का मूल्यांकन इस प्रकार करते हैः—–

साही का समाजवाद ठीक उन्हीं अर्थो में उदारवादी था जिन अर्थों में उनकी भारतीयता रूढ़िवादी नहीं थी। साही की प्रगतिशीलता भारतीय जीवन पद्धित का निषेध नहीं है। नए और जरूरी को निष्पक्षता से जांच कर स्वीकार या अस्वीकार करने की सतर्कता है।
साही मार्क्सवादी चिंतन की कम्युनिस्ट परिणति से बहुत बेचैन थे। इसलिए वे कम्युनिस्ट आलोचना पद्धति की आलोचना करते हैं तो उनके मार्क्स विरोधी होने का भी अहसास होता है। लेकिन उनके तमाम अध्येता यही कहते हैं कि साही जी जो कि आचार्य नरेंद्र देव जैसे मार्क्सवादी से प्रेरित थे वे इस चिंतन और राजनीतिक प्रणाली के भीतर रचनाकार की घटती स्वायत्तता के विरोधी थे। यही कारण है कि सत्य प्रकाश मिश्र ने डॉ लोहिया से वर्गीकरण की शब्दावली उधार लेते हुए साही जी को कुजात मार्क्सवादी कहा है। वास्तव में साही कम्युनिस्टों द्वारा साहित्य और साहित्यकार का इस्तेमाल किए जाने का विरोध करते थे।

मार्क्सवाद, कम्युनिस्ट प्रणाली, जनवादी साहित्य और प्रगतिशीलता की बारीक समीक्षा की है साही ने। उसमें गहरी तार्किकता है और एक स्पष्ट सोच है। किसी बड़े आलोचक या किसी संगठन या समूह से किसी प्रकार का खौफ नहीं है उनके भीतर। लेकिन उस पर जाने से पहले यह समझ लिया जाना चाहिए कि भारतीयता की उनकी समझ क्या है।

वे औसत आदमी को ध्यान में रखकर भारतीयता को परिभाषित करते हैं। उनका कहना है, “जो लोकाचार हमारे परदादा ने निभाया उसे निभाते रहना ही भारतीयता है। लोकाचार में हमारा खान-पान, रहन सहन, शादी- ब्याह, परिवार, संस्कार, पूजा-पाठ, अपने पराए की भावनाएं इन सबको शामिल कीजिए और परदादा को हमारे पूर्वजों के सगुण रूप में समझिए। इसको हम थोड़ा अधिक निर्गुण शब्दावली में कहें तो कहेंगे कि परंपरा का निर्वाह ही भारतीयता है।’’

वे आगे कहते हैं,“परंपरा का निर्वाह ही भारतीयता है।’’ `लेकिन जिंदगी बहुत आसान होती अगर पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही ढर्रे पर चलती रहती।……यह सारा बदलाव हमारे चाहे अनचाहे होता रहता है। कभी कभी तो यह बदलाव बड़े गंभीर हो जाते हैं। यह बदलाव कहां से आते हैं क्यों होते हैं इस खोज में न जाकर मैं इस तरह के बदलावों के लिए एक नाम दूंगा—काल के प्रवाह के साथ संकल्पहीन बदलाव। संकल्पहीन इसलिए क्योंकि ऐसे बहुत से बदलावों के पीछे कोई विवेकपूर्ण संकल्प नहीं होता। यह बदलाव होते चलते हैं। काल का प्रवाह पीढ़ी-दर-पीढ़ी दबाव डालता है और जिंदगी लीक से इधर उधर हट जाती है कभी ज्यादा कभी कम। इस तरह भारतीयता की समस्या सिर्फ परंपरा के निर्वाह की समस्या नहीं है बल्कि परंपरा और बदलाव की आपसी टकराहट की समस्या बन जाती है।……काल प्रवाह और बदलाव के सामने औसत आदमी के रूप में हम किस तरह खड़े होते हैं इससे ही हमारी भारतीयता की निर्माण प्रतिदिन प्रतिदिन होता रहता है। हर घर में लोक में उलटफेर होते हैं।’’

बदलाव और भारतीयता के बीच से असमंजस को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं, “ बदलाव को रोका जा नहीं सकता, सिर्फ लीक को पकड़े रहना न संभव है और न बहुत सार्थक ही है। मगर फिसलते रहने से ही कोई नतीजा नहीं निकलता। अतीत तो हाथ से जाता ही है भविष्य भी हम नहीं बना पाते। इन दोनों के बीच रास्ता यही है कि हम दिमाग को खुला रखें, छाती चौड़ी करें और अपने को संकल्पहीन बदलाव की जगह संकल्पसहित बदलाव के लिए तैयार करें। यही वास्तविक भारतीयता है। इसके लिए जरूरी होगा कि हम हर चुनौती के सामने विवेक की धार को तेज करें। वेशक रास्ता कठिन है लेकिन मैंने कब कहा कि भारतीयता का निर्माण आसान है। ………….विविधता के आगे उदार होकर अपने संस्कारों को बदलना जरूरी है ताकि आपके पुराने संस्कारों के भरोसे जो अपने पराए के छोटे छोटे घेरे बने हैं उन्हें तोड़कर अपनेपन की चौहद्दी को समूचे भारतवासियों तक आप बढ़ा सकें।’’

साही जी संकल्पवान बदलाव करने वालों को सावधान करते हुए कहते हैं कि भारत की सामाजिक इकाई में सिर्फ विविधता ही नहीं है। यहां पर दरिद्रता और गैर-बराबरी भी है। दरिद्रता से आदमी लालची, झपटमार और स्वार्थी बन जाता है और गैर बराबरी से अन्याय पैदा होता है। उन्हें इस बात का स्मरण है कि भारतीय समाज आर्थिक गैर-बराबरी के साथ जातिगत असमानता से भी जकड़ा हुआ है इसलिए इससे बड़े बड़े अन्याय होते हैं।

इन्हीं मुद्दों पर विचार करते हुए वे अंत में भारतीयता को कुछ इस तरह से परिभाषित करते हैं। “विविधता के बीच से सबको जोड़ने वाले नए संस्कारों की खोज और निर्माण, दरिद्रता और कंगाली से संपन्नता की ओर जाना, और साथ-साथ गैर-बराबरी को मिटाकर अधिक से अधिक समता को स्थापित करना। इन बदलावों के लिए सतत संघर्ष ही वास्तविक भारतीयता है। क्योंकि वह समाज को घने रिश्तों के साथ जोड़ती है।’’

यानी साही जी न तो भारत की किसी संस्था के अंध समर्थक हैं और न ही उसमें अंध बदलाव के हिमायती। उनके लिए भारतीयता कोई जड़ वस्तु नहीं है। वे न तो भारतीय मूल्यों को आंख मूंद कर आजमाए जाने के समर्थक हैं और न ही युरोपीय मूल्यों को अपनाने के हिमायती हैं। वे एक तरफ दरिद्रता को मिटाना चाहते हैं, दूसरी ओर जातिगत अन्याय को मिटाना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए आंख मूंद कर युरोपीय विचारों की मदद नहीं लेना चाहते। (भारतीयता क्या है, गोपेश्वर सिंह, विजयदेव नारायण साही रचना संचयन।)

वे युरोप से आए समाजवाद के विचार के प्रति तमाम किस्म की शंकाएं जाहिर करते हैं और उसके बदले भारतीय चिंतकों के समाजवादी व्याख्याओं को ज्यादा अनुकूल और ग्राह्य बताते हैं।(लोकतांत्रिक समाजवाद में साहित्य की भूमिका)। हालांकि वे मार्क्सवादी चिंतकों में ट्राटस्की के विचारों में लोकतंत्र के लिए एक प्रकार का खुलापन देखते हैं और चूंकि वे सोवियत संघ की सर्वहारा की तानाशाही के शिकार हुए थे इसलिए उनके प्रति एक किस्म की सहानुभूति भी रखते हैं। वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को इतिहास ने किस तरह से खारिज किया इस पर उनकी टिप्पणी इस प्रकार है—

`साम्यवादी देशों और नेताओं के आचरण से साम्यवादी विचार इस दृष्टि से खंडित हो चुका है और इतिहास ने अब वैज्ञानिक समाजवाद की अवैज्ञानिकता सिद्ध कर दी है।’ इसके विपरीत वे समाजवाद के प्रति महात्मा गांधी की ललक और उसकी व्याख्या के संदर्भ में उनका लंबा उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। गांधी ने कहा था, “ मैं अपने को समाजवादी कहता हूं…..लेकिन मैं उसी समाजवाद का उपदेश नहीं करूंगा जिसका अधिकतर समाजवादी करते हैं। पूंजीवालों से उनकी पूंजी हिंसा के जरिए छीना जाए, इसके बजाय यदि चरखा और उसके सारे फलितार्थ स्वीकार कर लिए जाएं तो वही काम हो सकता है।’’

फिर वे लोकतांत्रिक समाजवाद के उन्हीं सूत्रों को डॉ राम मनोहर लोहिया द्वारा व्याख्या किए जाते हुए देखते हैं। वे डॉ लोहिया के समाजवाद की बारीकियों को पकड़ते हैं और मानते हैं कि डा लोहिया चूंकि लेनिन और गांधी के बाद आए इसलिए उनकी बातें उन दोनों से आगे की हैं। `डा लोहिया पहले विचारक हैं जिन्होंने कहा था कि यदि अधिकतम उपादेयता की जगह सार्वत्रिक उपादेयता को लक्ष्य नहीं माना जाए, सबल राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों का शोषण और दमन करते रहें, यदि अगड़ों के द्वारा पिछड़ों का अपमान किया जाता रहा , गांवों को शहरों के द्वारा और श्रम को पूंजी के द्वारा लूटा जाता रहा तो इतिहास की चक्की चलती रहेगी और सभ्यता और समृद्धि की हर इमारत अपने ही बोझ से टूटकर गिरती रहेगी।

लोकतांत्रिक समाजवाद को प्रतिष्ठित करने के लिए साही जी युरोपीय शब्दावली की बजाय भारतीय शब्दावली का प्रयोग करते हैं और कहते हैं कि उसे स्थापित करने के लिए स्वभाव और स्वधर्म की प्रेरणा जरूरी है। वे समाजवाद की व्याख्या में गांधी द्वारा दिए गए भारत के आर्य साहित्य के उद्धरण को एक महत्त्वपूर्ण घटना मानते हैं। गांधी जी ने 1937 में हरिजन में लिखा था—-
`समाजवाद का जन्म उस काल में नहीं हुआ था जब यह पता लगा कि पूंजीपति पूंजी का दुरुपयोग करते हैं। जैसा कि मैंने कहा है, समाजवाद ही नहीं साम्यवाद भी ईशोपनिषद के पहले मंत्र में स्पष्ट है।…………….सच्चा समाजवाद तो हमें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है जो हमें यह सिखा गए हैः सबै भूमि गोपाल की है उसमें कहीं मेरी और कहीं तेरी सीमाएं नहीं हैं। ये सीमाएं आदमियों की बनाई हुई हैं और इसलिए इन्हें तोड़ भी सकते हैं।’

साही एक ओर समाजवाद के युरोपीय प्रभाव को निकालकर उसे भारतीय स्वरूप देने में लगे थे तो दूसरी ओर साहित्य की अंतरराष्ट्रीयता को भी स्वीकार करते थे। वे कहते हैः—

`इसलिए साहित्य स्वभावतः अंतरराष्ट्रीय है। सिकंदर और तैमूर, हिटलर और चर्चिल भले ही किसी देश के हीरो हों पर होमर, फ़िरदौसी, गेटे और शेक्सपीयर हम सभी के हैं। अंग्रेजी, ग्रीक भाषा हमारी जीभ काटने वाली तलवार हो सकती है पर उन्हीं भाषाओं में लिखित इलियड और बर्न्ट नार्टन तो हमारा हृदय हार है। सच्चा साहित्य वस्तुतः हर किसी का स्वदेश, हर किसी की धात्री है। वह अंतरराष्ट्रीय नर संपत्ति है।’

कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई। (कीर्ति, कविता और साहित्य वही श्रेष्ठ है जो गंगा की तरह सभी का भला करे।)

यानी साहित्य स्वभावतः लोकतांत्रिक समाजवाद का समानधर्मा है।(लोकतांत्रिक समाजवाद में साहित्य की भूमिका, गोपेश्वर सिंह(सं.) विजय देव नारायण साही, रचना संचयन)

सन 1978 में भोपाल में साही जी का दिया गया एक व्याख्यान है—हमारा समय। इस व्याख्यान में वे उस औपनिवेशिक आख्यान पर गहरी चोट करते हैं जिसे मार्क्सवादी लोग प्रगतिशीलता कहा कर अभी भी छाती से चिपकाए हुए हैं। यह चोट करते हुए वे कार्ल मार्क्स को भी नहीं छोड़ते।

पहले तो इतिहासकार हेनरी ओ’ मैली के हवाले से प्रगतिशील(Progressive) शब्द पर हमला करते हैं। हेनरी ओ’मैली ने गांधी पर हमला बोलते हुए लिखा था—वे किंग कैनूट की तरह से प्रगति की लहरों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इतिहास के समुद्र को इस तरह से रोका नहीं जा सकता।

ओ’ मैली का परिचय देते हुए वे बताते हैं कि वे मार्क्सवादी नहीं हैं लेकिन वे वही बात बोलते हैं जो कभी कभी मार्क्सवादी बोलते हैं।

आगे वे हिंदुस्तान के मार्क्सवादियों और मार्क्स के बीच का अंतर भी स्पष्ट करते हैं। “मार्क्स का दिल नहीं दुखा था। हिंदुस्तान के मार्क्सवादियों का दिल दुखता है। इसीलिए ज़रा मैं मुलायम हो जाता हूं। मार्क्स के प्रति मुलायम नहीं हूं। क्योंकि मार्क्स ने तो बिल्कुल साफ लिखा है अगर अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को अपनी दानवीय बर्बरता के साथ कुचलकर और तहस नहस करके न रख दिया होता तो हिंदुस्तान में प्रगति की लहर ही न उठती।’’

साही मार्क्स के उस लेखन से कुपित हैं जिसमें उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेश को इतिहास के जादुई उपकरण की संज्ञा दी थी। तभी वे कहते हैं, “ क्योंकि वह तो इंग्लिस्तान का रहने वाला था न ! जर्मनी का रहने वाला था न ! ब्रिटिश म्युजियम में लिख रहा था न ! तो वह तो साबित करेगा कि हिंदुस्तान के लिए परम सौभाग्य का विषय था कि इस जर्जर दलदली सामाजिक व्यवस्था में अंग्रेजी साम्राज्यवाद रूपी दानव आया, जिसने यहां के हस्त उद्योगों को छिन्न भिन्न कर दिया। ताकि भारत फ्यूडलिज्म से उठकर अगले स्तर कैपिटलिज्म की ओर जाए, यही कहा।’’

आमतौर पर साहित्य की परिमार्जित अकादमिक भाषा में अपने विचारों को अभिव्यक्ति देने वाले साही जी का सीधा सपाट उग्र राजनीतिक तेवर यहां दिखाई पड़ता है जो उनकी देशभक्ति और विऔपनिवेशिक चेतना का परिचायक है। वे कहते हैः—

“मैं यह कभी जीवन भर नहीं मानूंगा चाहे मार्क्स कहें या मार्क्स के दादा आकर कहें कि गुलाम हो जाना हमारे लिए परम सौभाग्य था। क्योंकि इसी के द्वारा हम प्रगति की ओर जा रहे थे। गांधी जी ने हमें कुछ सिखाया तो यही सिखाया। इसीलिए मैं कहता हूं कि मार्क्स के पास भविष्य की तो कोई धारणा थी ही नहीं, जिस भविष्य पर उसने हमारे दादा को और हमारे देश के गांव गांव में कपड़ा बनाने वालों को नष्ट किया और कहा कि यह प्रगति है। क्योंकि जब यह नष्ट होंगे तो लंकाशायर का कारखाना चलेगा। पूंजीवाद का उदय तब होगा जब उसका एक बच्चा दिल्ली या भोपाल में बनेगा और इस प्रकार फ्यूडलिज़्म से ऊपर उठकर हम कैपिटलिज़्म की ओर जाएंगे। यह मैं नहीं मानता। गुलामी किसी भी देश के लिए प्रगति का वाहक नहीं हो सकती। मैं तब मार्क्स का कलेजा मानता जब वह अपने देश के बारे में भी ऐसा कहता।’’

एंग्विश से भरी साही की इन पंक्तियों में अकादमिक शालीनता नहीं है एक देशभक्त, समाजवादी और विऔपनिवेशीकरण के प्रतिबद्ध पैरोकार का स्वर है। इसी सोच के तहत उन्होंने साहित्य, समाज और राजनीति की समीक्षाएं की हैं और कविताएं, नाटक और कहानियों की रचनाएं की हैं। यही सोच उनकी राजनीतिक सक्रियता में भी परिलक्षित होती है।

मार्क्स और पूंजीवाद के विस्तार के लिए औपनिवेशिक परियोजना के प्रति साही जी का जो गुस्सा है वह यहीं नहीं समाप्त होता। वे आगे कहते हैः—

`उसके देश(मार्क्स के देश जर्मनी) को रौंदकर रख दिया था नैपोलियन ने और फ्रांस का इतिहासकार कहता है कि नेपोलियन ने जर्मनी को गुलाम न बनाया होता तो जर्मनी का एकीकरण न होता। और जर्मनी छोटे छोटे राज्यों में बंटा रहता। इसलिए प्रगति का संदेश दिया नेपोलियन ने जर्मनी को गुलाम बनाकर जर्मनीवालों को। जैसे अंग्रेज बोलते थे It is whiteman’s burden to liberate and civilise the Indians.मार्क्स ने अपने देश के बारे में नहीं कहा कि नेपोलियन ने हमकों गुलाम बनाया हमारी प्रगति के लिए। अपने देश के बारे में नहीं कहा मेरे देश के बारे में जरूर कहा।’

वे टेक्नोलाजी केंद्रित प्रगति की व्याख्या की विसंगतियों को उजागर करते हैं। वे समझते हैं कि इसमें एक प्रकार का नवउपनिवेशवाद है। वे उपनिवेशवाद के वैश्विक शोषण और अन्याय व असमानता को बढ़ावा देने वाली प्रौद्योगिकी को निशाना बनाने से नहीं चूकते।

“न्यूयार्क और भूखों मरता हुआ बस्तर, छत्तीसगढ़ एक ही बीसवीं शताब्दी के अंग हैं। जो यह कहता है कि वह बीसवीं शताब्दी है और यह बारहवीं शताब्दी है वह मार्क्सवादियों की तरह और साम्राज्यवादियों की तरह झूठ बोलता है। न्यूयार्क और मास्को के बीच होने की शर्त भी यही है कि एक छत्तीसगढ़ भी हो, एक बस्तर भी हो और बना रहे। जिस दिन बस्तर उठने लगेगा न्यूयार्क गिरने लगेगा। या तो न्यूयार्क और मास्को अपनी रक्षा के लिए बस्तर पर एटम बम गिरा देंगे कि उठने न दिया जाए और फिर इसको बस्तरपन की ओर वापस कर दिया जाए और या अगर बस्तर ऐसा हो गया कि उठ गया सचमुच तो न्यूयार्क गिर जाएगा। गिरेगा जरूर।’’

धर्मनिरपेक्षता की खोज—-औपनिवेशिक दासता ने हमारे समाज और राजनीति की ऐसी स्थिति कर दी है कि आज उस समाज में धर्मनिरपेक्षता की खोज करनी पड़ रही है जहां तमाम समुदाय लड़ाई झगड़ों के बावजूद एक देश में ही रहते थे। वास्तव में युरोपीय सेक्यूलरवाद ने हमारे समाज के धर्म और राजनीति के रिश्तों को बिगाड़ दिया है। इसी सिलसिले में साही जी के दो लेख इतिहास और वर्तमान दोनों संदर्भों में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उनका एक लेख है—धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिंदी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि। उसी सिलसिले को बढ़ाने वाला दूसरा लेख है—धर्मनिरपेक्षता की खोज में—2 ।

साहित्य के माध्यम से धर्मनिरपेक्षता को समझने की कोशिश करते हुए वे लिखते हैं कि धर्मनिरपेक्षता कोई परिभाषित प्रत्यय नहीं है। बल्कि यह एक प्रक्रिया है। खासतौर से धर्म खुद एक स्पष्टतः परिभाषित प्रत्यय नहीं है। धर्म की सीमा सिकुड़ती फैलती है। इतिहास हमारे सामने तरह तरह कि समस्याएं उठाता है। उनको हल करने के दौरान भावनाओं और व्यवहारों के सांचे बनते बिगड़ते हैं। इसलिए धर्म निरपेक्षता भी एक प्रक्रिया की तरह है। वे मानते हैं कि साम्राज्य स्थापित करना अपने में धर्मनिरपेक्ष काम है। लेकिन हिंदुस्तान में सारा उलटफेर धर्म की व्यापक चपेट में आ जाता है। ` इस लपेट के भीतर तरह तरह की तस्वीरें उभरती हैं—तनाव और समझौते, लड़ाइयां और संधियां, दुश्मनी और दोस्ती, अलगाव और घालमेल—सारे व्यापार में हिंदू और मुसलमान का साक्षात्कार दीखता है। कभी अलगाव वाले प्रबल हो जाते हैं कभी घालमेल वाले। अभी इसका चक्र हमारे सामने है। आखिरी नतीजा निकलना शेष है।’

अब जरा औपनिवेशिकता और उसके साथ आई आधुनिकता के प्रभावों के आधार पर बनने वाले धर्म और राजनीति के रिश्तों पर गौर करना जरूरी है। वे लिखते हैः—

`हिंदू मुसलमान अपने ढंग से इस टकराव का हल निकाल ही रहे थे कि बीच में फिरंगी साम्राज्य आ टपका। उसके बाद से एक और प्रक्रिया चल पड़ी। फिरंगी साम्राज्य के माध्यम सेऔर उसके अनंतर वह माहौल बना जिसे हम पश्चिमी प्रभाव कहते हैं। इस नई प्रक्रिया की ध्वनि यह है कि साम्राज्यवाद, बुद्धिवाद, उद्योगतंत्र, आधुनिकता और इतिहास की गति के आगे धर्म एक पुरानी और वाहियात चीज़ हो गई है।’

इसके बाद उनके कई वाजिब सवाल उठते हैं जिसमें वे कहते हैं कि अगर दुनिया में एक ही धर्म होता तो धर्मनिरपेक्षता का चेहरा एक ही होता। लेकिन ऐसा है नहीं इसलिए धर्मनिरपेक्षता के एक नहीं कई चेहरे हो गए हैं। और वे एक दूसरे को मुंह चिढ़ाते हैं। तो क्या हिंदू धर्मनिरपेक्षता, मुस्लिम धर्मनिरपेक्षता और ईसाई धर्मनिरपेक्षता अलग अलग चीजें हैं? क्या उलटबांसी जैसे लगने वाले इन शब्दों का कोई अर्थ है? इसी परिभाषा के चक्कर में कुछ लोग आधुनिकता के चश्मे से जिन्ना को गांधी के मुकाबले ज्यादा धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। ऐसे में गांधी को क्या कहा जाए धर्मनिरपेक्ष या धर्म सापेक्ष?

धर्मनिरपेक्षता की तलाश में वे साहित्य की ओर मुड़ते हैं और पहले ईरान के कवि फ़िरदौसी का हवाला देते हैं। वे कहते हैं कि —-

“धर्मांधता के सामने फ़िरदौसी ने बहुत पहले एक धर्मनिरपेक्ष समन्वय, राष्ट्रीयता की थरथराहट के साथ प्रस्तुत किया जिसके आगे महमूद ग़ज़नवी जैसा कट्टर बादशाह भी छोटा पड़ गया। भारतीय मध्यकाल के उथल पुथल वाले समाज के सामने फ़िरदौसी का समन्वय, संभावना की तरह एक क्षितिज पर स्थित है।’’

वे फ़िरदौसी के शाहनामे में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीयता देखते हैं। फ़िरदौसी करता भी है—

बसें रंज बुरदम दरीं साल सी?
अजम जिन्दा करदम बदीं पारसी।

(इन तीस वर्षों में मैंने बहुत कष्ट उठाए हैं लेकिन अपनी इस फारसी भाषा में मैंने ईरान को जीवित कर दिया।)

फ़िरदौसी के शाहनामा की तारीफ करते हुए साही लिखते हैं कि वह एक ऐसा प्रामाणिक रचनाविधान है जो एक ही बहाव में लोक-संस्कृति और उच्च संस्कृति दोनों को इस तरह जोड़ देता है कि अंतर मिट जाता है। वे मानते हैं कि हिंदी, पंजाबी, कश्मीरी और अन्य बोलियों में लोककथाओं, गीतों, प्रेमाख्यानों, मिथकों ने सृजनशीलता को खुलापन और उभार दिया। हीर रांझा, सोहनी महिवाल, सस्सी पुन्नू, पद्मावत। लेकिन इनमें कुछ ऐसा है जो निस्सीम उड़ान को रोकता है। इसीलिए उन्हें इस बात की शिकायत है कि मुस्लिम भारत ने किसी भारतीय फ़िरदौसी को जन्म नहीं दिया।

लेकिन वे संस्कृत साहित्य में धर्मनिरपेक्षता के दर्शन करते हैं। इस बारे में वे अमीर खुसरो का हवाला देते हैं–“-मैंने इसकी एक बूंद चखी है और मालूम हुआ कि घाटी में सोया हुआ पक्षी महानदी के विस्तार से अब तक बिल्कुल वंचित रहा है।’’ इसीलिए वे कालीदास की दुनिया को एक धर्मनिरपेक्ष दुनिया कहते हैं।

बाद में हिंदी और उर्दू के विभाजन के साथ जो सांप्रदायिकता पैदा होती है उसके बारे में भी साही चिंतित हैं और वे उसकी तुलना बांग्ला साहित्य से करते हैं जहां पर उसके उन्नायकों में ईसाई माइकल मधुसूदन दत्त, हिंदू रवींद्रनाथ टैगोर और मुसलमान नजरूल इस्लाम साथ-साथ सक्रिय रहे।

धर्मनिरपेक्षता की खोज के दूसरे लेख में वे धर्मनिरपेक्षता को स्थापित करने में आधुनिकता की भूमिका पर जो टिप्पणी करते हैं वह बहुत रोचक है।

वे कहते हैं, “धर्मांधता और धर्मनिरपेक्षता के इस टकराव में क्या आधुनिकता से कोई हल निकलता है? जिसे हम आधुनिकता करके जानते हैं वह खासी घुलनशील चीज है। वह इस्लामी परंपरावाद के अलग्योझे में घुल जाती है और मौलाना हाली के मुकद्दस और अल्लामा इकबाल के निखिल इस्लामवाद को जन्म देती है। आधुनिकता क्षेत्रीयता में भी घुल जाती है और उस अजीबोगरीब प्रादेशिक विलायतीपन को जन्म देती है जिसके दर्शन हमें कलकत्ता, बंबई, मद्रास और दिल्ली में होते हैं। फिर यह आधुनिकता टी.एस इलियट में घुल जाती है और एकमात्र ईसाई समाज की परिकल्पना तथा धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध इलियटवादी जेहाद को जन्म देती है।’’

वे आधुनिक हिंदी साहित्य के बाबा माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र में सांप्रदायिकता के दर्शन होते हैं और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से कहीं ज्यादा अपने समाज को कोसते हैं।

धर्मनिरपेक्षता के चौखटे पर सवाल करते हुए वे कहते हैं, “ कबीर को हम क्या कहें? धर्मांध या धर्मनिरपेक्ष? इस तरह पूछने पर फौरन लगता है कि सिर्फ दो चौखटे काफ़ी नहीं हैं और भी होने चाहिए। इसी से साबित होता है कि धर्मनिरपेक्षता का सवाल उतना इकहरा नहीं है जितना योरोप के अनुभव को देखकर मान लिया जाता है।’’

आधुनिकतावादियों की समस्या की ओर इशारा करते हुए , “आधुनिकतावादियों ने मान रखा है कि मध्ययुग में जीवन के हर पहलू को धर्म निगल जाता है। यह धारणा युरोप के बिल्कुल भिन्न एकधर्मी मध्ययुगीन समाजों के अनुभव पर आधारित है। जिसे लोग भारत के संदर्भ में अक्सर आंख मूंदकर लागू कर देते हैं।’’

फारसी के विद्वान विजय देव नारायण साही हिंदी क्षेत्र में दुचित्तापन और अधूरापन पैदा होने की एक वजह अकबर द्वारा राजकाज में फारसी भाषा को थोपने को मानते हैं। फारसी एक विदेशी भाषा थी। जबकि भारत की ब्रजभाषा पहले से मौजूद थी जिसे राजकाज में इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन इस फैसले से एक ओर फारसी राजकाज और महत्त्वाकांक्षा की भाषा हो गई और ब्रज प्रेम की भाषा बनकर रह गई।

साही जी का एक आलेख है—नितान्त समसामयिकता का नैतिक दायित्व-2 । इसमें वे युरोप की दो विचार पद्धतियों का मूल्यांकन करते हैं। वे लिखते हैं—

अनिश्चय के स्थान पर निश्चय, संशय के स्थान पर अडिग आस्था, त्रास के स्थान पर संपूर्ण निष्ठा का आश्वासन देने वाली दो विचार पद्धतियां इस समय योरोपीय चिंतन में प्रमुख हैः कम्युनिस्ट और कैथोलिक। इन्हें विचार पद्धतियां न कहकर कर्मपद्धतियां कहना ही अधिक उपयुक्त होगा। क्योंकि संशयहीनता की स्वाभाविक परिणति उग्र और निःसंकोच कर्म में होती है। चूंकि ये पद्धतियां पहली स्वीकृति के उपरांत हर प्रकार की चिंताओं और शंकाओं के शमन का दावा करती हैं इसीलिए इनका आकर्षण भी मोहक है। वे जो योरोप में उदारपंथी मानववादी कहलाते हैं, इन दो पद्धतियों द्वारा घोर आक्रमण के शिकार हुए हैं। इस आक्रमण का प्रमुख आरोप यही है कि मानववादी अनिश्चय में पड़ा हुआ, फूंक फूंककर कदम रखने की बात करता है, आज की परिस्थिति में उलझाव महसूस करता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इस उलझाव के बीच सत्य और असत्य की स्पष्ट सीमारेखा खींचकर मनुष्य को आगे की राह ठीक-ठाक दिखला दी जाए।

साही जी मानते हैं कि इन दोनों विचार प्रणालियों का उद्देश्य एक जैसा ही है। एक विज्ञान और तर्क के आधार पर स्थिरता कायम करना चाहता है तो दूसरा ईसाई धर्म के आधार पर एक नैतिक राज्य कायम करना चाहता है। मार्क्स ने इतिहास और सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या प्रस्तुत की और उसके आधार पर कुछ नियम भी निर्धारित किए। उन्होंने भविष्यवाणियां प्रस्तुत कीं जिनमें से कई महत्त्वपूर्ण गलत साबित हुईं।` लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मार्क्स की प्रणाली मुलतः मानव विवेकी प्रणाली है और वर्तमान में कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने के लिए सहायक हो सकती है।’

विज्ञान से कर्म की ओर संचरण करते हुए कम्युनिस्ट चिंतन इस प्रक्रिया को मूर्त रूप देता है। यह मूर्त रूप कम्युनिस्ट पार्टी है जो इतिहास का एक उपकरण है। कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा इतिहास का एक और अस्त्र है और वह है सोवियत रूस(जो अब बिखर चुका है)। साही जी इस बात पर गहरा संदेह करते हैं कि कैसे एक पार्टी इतिहास का अस्त्र हो जाती है। यह बात मानने के लिए विवेक नहीं बल्कि धार्मिक प्रकार की श्रद्धा, भक्ति, आस्था, समर्पण, शरणागति—जो भी कह लीजिए उसकी जरूरत होती है। क्योंकि इस आस्था का ही परिणाम है कि हम अपने स्वकीय चिंतन को एक कल्पित सामुदायिक आस्था के ऊपर भेंट चढ़ा दें। वास्तव में यही आस्था ही एक निश्चयात्मक कारक है जो कम्युनिस्ट चिंतन में आवश्यक है। इसी से गतिशीलता बनी रहती है। यही एक प्रकार से विवेक के छोड़ने के लिए आमंत्रित करता है।

रोचक तथ्य यह है कि जिस संशय को कम्युनिस्ट पार्टी बाहर भेदती है वह भीतर घर करता जाता है और पार्टी के अंदर अंतर्विरोध के रूप में बढ़ता जाता है। उसी नाते कम्युनिस्ट पार्टी अपने भीतर संदेह, त्रास और निरंकुशता का गढ़ बन जाती है। यही सोवियत संघ के पतन का कारण बना।

दूसरी विचार पद्धति है कैथोलिक चिंतन। वह कम्युनिज्म का विरोध उसे धर्म मानकर ही करता है। कैथोलिक चिंतन कहता है कि धार्मिक आस्था से छुटकारा नहीं है। यानी या तो हम ईश्वर के प्रति आस्था रखें या शैतान के प्रति। कैथोलिक चिंतन युरोपीय विवेकवादियों का काफी विरोध करता है और ईसाई धर्मराज्य स्थापित करने की बात करता है।

कैथोलिक चिंतक जैक मैरिटन के अनुसार ईसाई धर्मराज्य स्थापित किए जाने के तीन आधार हैं। इसका एक पहलू है राज्य और चर्च के बीच परोक्ष सहायता। यानी राज्य जनता को सुखी और समृद्ध बनाए और नैतिकता व सदाचार की स्थापना करे। दूसरा पहलू यह है कि राज्य स्पष्ट तौर पर ईश्वर की सत्ता में विश्वास की घोषणा करे। क्योंकि मनुष्य की मुक्ति और नैतिकता का स्रोत ईश्वर ही है। तीसरा पहलू है चर्च के आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति में राज्य सहयोग करे। यानी ईसाई धर्म के सिद्धांत समाज में घोषित हों और राज्य उसे स्वीकार करे।

रोचक तथ्य यह है कि समाज में ईसाई धर्म के सिद्धांतों का विरोध देखते हुए उसे विज्ञान, राजनीति शास्त्र, इतिहास, भाषा शास्त्र और नैतिक शास्त्र के माध्यम से लागू करने की कोशिशें की गईं। न्यूटन और आर्कीमिडीज जैसे बड़े वैज्ञानिक भी ईसाई धर्म का कड़ाई से पालन करने वाले थे। उन्होंने अपने वैज्ञानिक सिद्धांतों के निर्माण में ईसाई धर्मदर्शन का सहारा लिया है। यहां तक कि मार्क्स की आदर्श राज्य की कल्पना में ईसाई धर्म की आदर्श राज्य की कल्पना का समावेश है। एक भाषा से सभी भाषाओं के निकलने की धारणा तो ओल्ड टेस्टामेंट की है जिसे तमाम पादरी भाषा शास्त्रियों ने नया विस्तार दिया है। औपनिवेशिक विस्तार के साथ पादरियों ने लगभग हर भाषा का व्याकरण लिखने का काम किया और उसे ईसाई सांचे में ढालने का प्रयास किया। यह प्रभाव लैटिन अमेरिका से लेकर अफ्रीका और एशिया में साफ देखा जा सकता है। विलियम जोन्स का काम भी इसी दिशा में किया गया है।

साही जी कहते हैं कि भारत में जो लोग धर्मराज्य का सपना देख रहे हैं उनके भी सोचने का ढंग वैसा ही है जैसा ईसाई धर्म के कैथोलिक चिंतन का है। जिस तरह से ईसाई मानते हैं कि एक दिन सभी लोग ईसाई धर्म में शामिल हो जाएंगे उसी तरह भारत में भी यह मानने वाले हैं कि पहले भी सभी लोग हिंदू थे और एक दिन दुनिया हिंदू धर्म को मान लेगी। भारत को विश्व गुरु बनाने का सोच इसी दिशा में चलने वाली प्रक्रिया का हिस्सा है। धरती पर ईश्वर का राज्य स्थापित करने की कल्पना तालस्ताय जैसे महान साहित्यकार से लेकर अर्नाल्ड टायन्बी जैसे महान इतिहासकार भी करते हैं। या कम से कम ईसाई नैतिकता के मूल्यों को पूरी दुनिया पर लागू करने का सपना तो देखते ही हैं। यहां तक कि युरोप के विश्वविद्यालयों की स्थापना भी ईसाई धर्मशास्त्र के आधार पर ही हुई है।

प्राक्टर, रेक्टर, डीन, फैकल्टी यह सारी पदावली ईसाई धर्मशास्त्र की ही है। इसके बावजूद न तो कैथोलिक चिंतकों से निश्चयात्मक दृढ़ता निर्मित हो पाती है और न ही पूरे संसार में धर्मराज्य स्थापित हो पाता है। इस स्थिति में वे अपने से विपरीत विचारों के साथ संवाद करते हैं।

कम्युनिस्टों के साथ ईसाई धर्मगुरुओं का लंबा संवाद युरोप में चला है और उन्होंने महसूस किया है कि कई मामलों में उनमें साम्य है। लैटिन अमेरिका में लिबरेशन थियोलाजी के विकास में तो दोनों साथ साथ खड़े हैं। उसमें एक ओर ईसाई मिशनरी और पादरी हैं तो दूसरी ओर मार्क्सवादी हैं।

साही जी कहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष या सेक्यूलर राज्य का विचार इसलिए नहीं उत्पन्न हुआ कि विज्ञान ने धर्म को जड़ से हिला दिया था। बल्कि वह इसलिए उत्पन्न हुआ क्योंकि पूर्ण सत्य के स्वरूप पर सभी धर्म सहमत नहीं थे। युरोप धर्मयुद्धों से आजिज आ चुका था। इसलिए मनुष्य ने धर्मनिरपेक्षता की राह पकड़ी और विज्ञान ने उसके लिए एक आधार प्रस्तुत किया।

साही जी कम्युनिस्ट चिंतन पद्धति और कैथोलिक चिंतन पद्धति में विचित्र किस्म का साम्य देखते हैं। उनका मानना है कि वे दोनों सुदूर भविष्य के विश्वव्यापी स्वप्न की ओर देखते हैं। वे मानते हैं कि एक दिन वह स्वप्न पूरा होगा और समाज को अपने को बदल कर उस स्वप्न की ओर जाना है। इसके लिए समाज परिवर्तन के दो अस्त्र हैं। एक अस्त्र तो कम्युनिस्ट पार्टी का है तो दूसरा अस्त्र चर्च का है। हमारा कर्तव्य इतना ही है कि हम आंख मूंदकर इस रहस्यमय अस्त्र के पक्षधर हो जाएं। भविष्य की इसी बेदी पर वर्तमान को बलिदान करने का आह्वान किया जाता है।

यहीं पर साही जी इन चिंतन धाराओं की असलियत खोलते हुए कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी के युरोपीय विचारकों की नीयत गड़बड़ नहीं थी। वे तो सांस्कृतिक और भौतिक दृष्टि से मनुष्य की उत्तरोत्तर वृद्धि चाहते थे। हर कदम स्वतंत्रता की दिशा में उठाया गया कदम होना चाहिए था। लेकिन, “ उन्होंने केवल एक संकुचित अंश की समृद्धि को ही अपनी समृद्धि मान लिया। वे भूल गए कि युरोप के पूंजीवादी विकास का अर्थ है एशिया और अफ्रीका की जनता का अधिकारिक शोषण। यह कल्पना कि युरोप का पूंजीवाद अपने भीतर के सर्वहारा वर्ग के शोषण से पनपा है अधूरी और असत्य है। मार्क्स ने भी आंतरिक शोषण को ही पूंजीवादी विकास की मूल शक्ति मानने में ही केवल युरोपीय मस्तिष्क का परिचय दिया। वस्तुतः पूंजीवाद साम्राज्यवाद की अंतिम नहीं आरंभिक कड़ी है।

अब सवाल यह है कि आखिर साही जी युरोपीय चिंतन प्रणाली में भटके भारत और शेष दुनिया के बौद्धिक वर्ग को क्या सलाह देते हैं। वे कहते हैं,“ यदि हम आज प्रगति की कल्पना को सही दिशा देना चाहते हैं तो हमें प्रगति के समसामयिक आधार को ध्यान में रखना होगा। समसामयिक विचारक प्रगति की संभावना को अस्वीकार नहीं करता। वह उसको झूठ और भविष्यवादी फरेब से मुक्त करना चाहता है। इसलिए वह प्रगति को निरंतर संघर्ष के रूप में स्वीकार करता है। हर दीवार को जो किसी भी तरह से हमारी स्वतंत्रता की राह रोकती है,

वह तोड़ना अपना धर्म समझता है। हर अन्याय को, हर असमानता को, हर विषमता को चाहे वह भविष्यवादी योजना के नाम पर हो, चाहे आदर्श स्वप्न के नाम पर, वह पूरी शक्ति से चुनौती देता है। जहां भी उसे सामाजिक कपट, छल या मिथ्याचार दिखलाई पड़ता है चाहे वह प्रगति के खेमे में हो या प्रतिक्रिया के खेमे में वह कसकर आघात करता है।’’

अब वे समसामयिकता पर आते हैं। उनका कहना है,“अतीत और भविष्य दोनों की मरीचिकाओं से छूटकर आज का कलाकार अपनी उपलब्धि और अपने दायित्व, दोनों का वाहक बन सकता है। हम जो अपने युग को वाणी देते हैं इस युग को बीते युग अथवा आने वाले किसी युग के लिए गिरवी रखने को तैयार नहीं हैं। हर युग केवल अन्य युगों के लिए माध्यम नहीं है। वह अपने में मानवता की उपलब्धि है।’’

इसी संदर्भ में वे प्रगतिशील साहित्य और जनवादी साहित्य के वर्गीकरण या नामकरण का भी कड़ा प्रतिवाद करते हैं। इस मामले में वे रामविलास शर्मा और शिवदान सिंह चौहान जैसे आलोचकों से तो भिड़ते ही हैं और मौका पड़ने पर हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे भारतीय परंपरा और संस्कृति के विद्वान से भी दो दो हाथ करने से नहीं चूकते।

वे उपयोगितावाद के आग्रह को खारिज करते हुए कहते हैं, “ युरोप के साहित्य में जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड आदि में कभी भी उपयोगितावाद का इतना आग्रह नहीं था। यह धारा रूस से आई इसलिए रूस को कभी भी मुक्त विचारों की प्रतिद्वंद्विता का स्वाद नहीं मिला। इसी तरह प्राचीन संस्कृत आचार्यों तथा मध्यकालीन संतों को कभी भी `स्वान्तः सुखाय’ और `सुरसरि सम सब कहां हित होई’ में इतना घोर विरोधाभास नहीं दिखाई दिया। फारसी साहित्य में तो लगता है कि निष्प्रयोजन अथवा रहस्य- दर्शन के निमित्त लिखने वाले वाले कवि ही अधिक लोकप्रिय और जनता के निकट हुए हैं।’’

आगे वे शिवदान सिंह चौहान के निम्न कथन का जवाब किस प्रकार देते हैं यह काबिले गौर है। चौहान जी कहते हैं—

-प्राचीन साहित्य के मूल्यांकन में यह प्रश्न गौण है कि अमुक रचना में स्थायित्व के गुण हैं अथवा नहीं हैं।इस प्रश्न का उत्तर तो समय ही दे चुका होता है। कालिदास को महान लेखक और उनकी रचनाओं को स्थायी साहित्य सिद्ध करने की चेष्ठा निर्रथक है।
इसके प्रतिउत्तर में साही जी लिखते हैं—-

“आपका का वचन मृषा है। कालिदास को महान लेखक और उनकी रचनाओं का स्थायी सिद्ध करने का मूल्यवान कार्य उन आपके प्रतिक्रियावादी आलोचकों ने किया है जिनकी अथक सौंदर्य-तृष्णा पुरानी और भूली हुई हस्तलिखित प्रतियों की खोज में उन्हें देश विदेश घुमाती है और यह साहस प्रदान करती है कि मानवता की समस्त सांस्कृतिक उपलब्धियों का मूल्यांकन वे करें। हम आलोचक का दायित्व इससे कहीं अधिक मानते हैं कि उत्सव के बाद हर प्राचीन महान कलाकार से अपने जनवाद का नेग मांगने के लिए उपस्थित हो जाएं।’’(जनवादी साहित्य-1, जनवरी 1955, छठा दशक से)

लगता है साही की बेवाकी और भीतर तक भेदने वाली दृष्टि उन्हें उस प्रार्थना से मिली है जो उन्होंने गुरु कबीर दास से की थी।
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूं
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूं

तो साही जी औपनिवेशिक विमर्श के विरुद्ध एडवर्ड सईद, फ्रैंच फैनन, एदुआर्दो गालियानो, न्यु गुगी वा थेंगो, गैबरियल गार्शिया मार्केज, महात्मा गांधी और डा लोहिया की तरह फटकार कर सच बोलने का साहस रखते हैं। लेकिन उनकी रचनाशीलता और विमर्श जितना `सुरसरि सम सब कहं हित’ करने के लिए है उतना ही `स्वान्तः सुखाय’ के लिए है। वे भविष्य के लिए अच्छा स्वप्न देखते हैं लेकिन उसके लिए वर्तमान को बलि पर नहीं चढ़ा देते। संभावना है कि साही का मूल्यांकन उनकी इस जन्मशती के अवसर पर अच्छी तरह से हो पाएगा।

संदर्भ सूचीः—
1-गोपेश्वर सिंह(सं,), विजयदेव नारायण साही रचना संचयन, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली.
2-प्रोफेसर विजयदेव नारायण साही, जायसी, हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद.
3-जगदीश गुप्त(सं.), नई कविता.
4-साही, मछलीघर(काव्य संग्रह) 1966.
5-साही, साखी(काव्य संग्रह) 1983.
6-साही, साहित्य और साहित्यकार का दायित्व(व्याख्यान) 1983.
7-साही, छठवां दशक(आलोचना) 1987.
8-साही, साहित्य क्यों(आलोचना) 1988.
9-साही, लोकतंत्र की कसौटियां(समाज-राजनीति विषयक निबंध)1990.
10-साही, संवाद तुमसे(काव्य संग्रह), 1990.
11-साही, वर्धमान और प्रगतिशील (आलोचना),1991.

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