इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन.राय : आठवीं किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

विजय के कारण

जिस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सामाजिक परिस्थितियों में इस्लाम का जन्म हुआ, उनके कारण उस पर सहनशीलता की छाप थी। जो लोग उसकी कट्टरता की परंपरा को देखते हैं उनको इस बात पर आसानी से विश्वास नहीं होगा। लेकिन उसमें कोई विरोधाभास नहीं है। इस्लाम का मूल सिद्धांत है- ‘सत्ता केवल एक-ईश्वर (अल्लाह) की है’। इसमें ही सहनशीलता की भावना निहित है। जब समस्त संसार, समूची मानव-जाति अपनी विकृतियों और बुराइयों के साथ, अपनी सभी प्रकार की कमजोरियों के साथ अल्लाह की सृष्टि है तो उसमें विश्वास करनेवाला बंदा, मानव-जाति की बेहूदी कमजोरियों और भ्रष्ट विश्वासों पर हँस सकता है, लेकिन अपने धार्मिक विश्वास के कारण उन पर यह आरोप नहीं लगा सकता कि उनके कार्य अथवा पूजा-पद्धति किसी शैतान की कृति है और इस आधार पर उनके विरुद्ध युद्ध की घोषणा नहीं की जा सकती। जो लोग भिन्न ढंग से ईश्वर की पूजा-आराधना करते हैं वे उनकी निगाह में गलत और पथभ्रष्ट हो सकते हैं, लेकिन वे उसी ईश्वर (अल्लाह) की संतानें हैं। उनको सही रास्ते पर लाया जाना चाहिए और उनके प्रति तब तक सहनशीलता का व्यवहार किया जाना चाहिए जब तक कि उन्हें सही रास्ते पर न लाया जा सके।

अरब के मसीहा हजरत मुहम्मद के कथित उपदेशों में कुरान और तलवार का जो भयानक दृश्य रखा जाता है उसकी छाया इस्लाम के उदय के इतिहास पर पड़ती है और उसमें तीसरे विकल्प की बात मिली रहती है और उसे स्वीकार भी किया जाता है। इस्लाम की विजय का वह कारण था। वास्तव में विकल्प भिन्न-भिन्न रूप में रखे गए। एक विकल्प था कि या तो कुरान पर विश्वास लाओ अथवा सरासेनी विजेता को शुल्क अदा करो। ‘अल्लाह की तलवार’ तब खून से रँगी जाती थी जब उक्त दोनों विकल्पों में से किसी को स्वीकार नहीं किया जाता था। अरब व्यापारियों के आर्थिक हित, जिन्होंने एक-ईश्वरवाद के इस्लाम के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था, अंधाधुंध रक्तपात करने के विरोधी थे। उनका लक्ष्य व्यापार-मार्गों को जीत कर उन्हें अपने अधिकार में लेना था और उन पर एकात्मक राज्य स्थापित करना था। इस लक्ष्य को और भी अच्छी तरह प्राप्त किया जा सकता था, यदि लोग उनके नए धर्म को स्वीकार कर लेते, उस दशा में नए एकात्मक राज्य की नींव अधिक मजबूत हो जाती। लेकिन व्यापार की अनिवार्य आवश्यकता है कि वस्तुओं का उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया जारी रहे। इसलिए इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका करीगरों और किसानों के सामूहिक नरसंहार से मेल नहीं खाती थी।

इसी भांति कुरान को स्वीकार न करनेवाले शहरों को बर्बाद नहीं किया जा सकता था। उस समय इस बात को आवश्यक माना गया कि लोग नए कार्य को स्वीकार करें। हजरत मुहम्मद रसूल के सैनिकों का आधिपत्य मान लेने पर अविश्वासी लोगों को अपने धर्मों और विश्वासों और विरोधी पूजा-आराधना करने की छूट मिल जाती थी।

जब खलीफा उमर ने यरुशलम पर अधिकार कर लिया तो वहाँ के नागरिकों की संपत्ति को उनके पास छोड़ दिया गया और उन्हें आराधना की छूट दी गई। नगर के एक भाग में ईसाइयों को अपने पादरी के साथ रहने की इजाजत दी गई। ऐसा संरक्षण देने के लिए उन पर पूरी बस्ती के लिए दो सोने के सिक्के का शुल्क लगाया गया। मुसलमान विजेताओं के अधिकार के बाद यरुशलम में ईसाई तीर्थयात्रियों का आवागमन बढ़ा, क्योंकि उससे व्यापारिक आवागमन को भी प्रोत्साहन मिला था। चार सौ साठ वर्ष बाद यूरोप के ईसाई धर्म योद्धाओं ने यरुशलम को मुसलमान विजेताओं से मुक्त करा लिया : ‘प्राच्य ईसाइयों ने अरब खलीफाओं की सहनशीलतापूर्ण सरकार के प्रति खेद व्यक्त किया।’
       (दि डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ रोमन इम्पायर)

मुसलमानों की सहनशीलता के विपरीत यूरोप के ईसाई धर्मयोद्धाओं के अधिकार के संबंध में निम्नलिखित विवरण अधिक चमकदार है : ‘यरुशलम में नागरिकों और सार्वजनिक धन और संपत्ति को लूटनेवाले व्यक्तियों की निजी संपत्ति मान लिया गया। ईसाइयों के ईश्वर में विश्वास रखनेवाले नागरिकों का गलती से नरसंहार किया गया। जिन लोगों ने प्रतिरोध में सिर उठाया उन्हें स्त्री-पुरुष के भेदभाव के बिना तलवार के घाट उतार दिया गया। वहाँ तीन दिन तक लगातार नरसंहार होता रहा। सत्तर हजार मुसलमानों की हत्या के बाद यहूदियों ने उनकी संपत्ति को जला दिया, जिसे मुसलमानों के अधीन जमा रखने की उन्हें छूट मिली हुई थी।’
       (दि डिक्लाइन एण्ड फॉल ऑफ रोमन इंपायर)

सभी आधिकारिक इतिहासकारों- ईसाई और मुसलमानों- तात्कालिक और आधुनिक, सभी के प्रमाणों के आधार पर गिबन ने अंतिम रूप से यह सिद्ध किया है कि मुहम्मद ने अपने अधीन ईसाई लोगों को व्यक्तिगत संरक्षण प्रदान किया और उनके व्यवसाय और संपत्ति की रक्षा की तथा उन्हें अपने धर्म के अनुसार आराधना करने की स्वतंत्रता प्रदान की थी। सहनशीलता के इस सिद्धांत को हजरत मुहम्मद के उत्तराधिकारियों ने अरबों के उत्कर्षकाल में अपनाए रखा। इसको उस समय छोड़ा गया जब इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका का दौर खत्म हो गया और उसका नेतृत्व अरब के सरासेनी योद्धाओं के स्थान पर बर्बर तातारी लोगों के हाथ में पहुंच गया। पहले तुर्की सुलतान के समय भी सहनशीलता की भावना को एकदम नहीं छोड़ा गया था।

अपने गौरवशाली काल में इस्लाम की सहनशीलता की भावना का विकास विचार और विवेक की स्वतंत्रता के रूप में हुआ। लेकिन उसे कट्टरवादी दृष्टिकोण से विरोधी मतवादों और अधार्मिक तत्त्वों के रूप में पतन ही कहा जाता था। बगदाद के अधिकांश अब्बासी खलीफाओं ने विज्ञान के अध्ययन और विचारों की स्वतंत्रता पर जोर दिया। उनमें से कुछ, उदाहरण के रूप में मोत्तासिने तो कुरान की उत्पत्ति को ईश्वरीय भी नहीं मानता था।

शताब्दियों तक सरासेनी साम्राज्य में यहूदियों और उदार ईसाई संप्रदाय ने स्टोरियन, जैकोबाइट, यूरीशियन और पालीशियन लोगों को शरण दी। सरासेनी विजय के बाद तो कैथोलिक संप्रदाय के ईसाइयों के प्रति भी सहनशीलता का व्यवहार किया। अनेक ईसाई इतिहासकारों ने उसका उल्लेख किया है। प्रसिद्ध ईसाई इतिहासकार ‘रेनादोत’ का उदाहरण है। उसने लिखा है कि ‘मिस्र में मुसलमान नागरिक प्रशासकों ने ईसाई धर्माध्यक्षों, पादरियों और उपदेशकों को सुरक्षा प्रदान की और अपने घरेलू मामलों के प्रबंध की छूट दी, शिक्षित ईसाई लोगों को सचिवों और हकीमों के रूप में नौकरियाँ दी गयीं। उन्हें राजस्व वसूली के काम में लगाया गया जिससे उन्होंने काफी संपत्ति अर्जित की और कभी-कभी तो उन्हें नगरों और सूबों का सेना अधिकारी भी बनाया गया। बगदाद के एक खलीफा ने यह घोषणा की कि फारस के प्रशासन में ईसाई अधिक भरोसेमंद हैं। सरासेनी साम्राज्य में पालीशियन ईसाइयों को, जो प्रोटेस्टेंट सुधारवादियों के पूर्वज कहे जा सकते हैं, आराधना की स्वतंत्रता थी और उन्हें खलीफाओं की ओर से कैथोलिक ईसाई संप्रदाय को सुधारने और ईसाई धर्म उसके आरंभिक रूप में सुधारने के लिए सहायता प्रदान की गई।’

(जारी)

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