— रमाशंकर सिंह —
मो शा को यदि विकल्प दिया जाता कि हरियाणा और जम्मू कश्मीर में से कोई एक राज्य ही जीत सकते हो तो वे दोनों पल भर में निःसंकोच कश्मीर चुनते कि वहॉं की जीत राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मायने रखती और वह जीत दरअसल अब तक की उनकी सबसे बड़ी जीत मानी जाती। राजनीतिक एवं वैचारिक ऐजेंडे की अंतिम जीत होती। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसे खूब ही भुनाया जाता । पीओके में दो चार किमी अंदर घुस कर ऐसा डंका बजाया जाता कि रूठा हुआ संघ नेतृत्व उस सूरत में मोशा के सामने सरेंडर कर सकता था।
यदि भाजपा द्वारा कभी बंगाल भी जीत लिया गया तो भी जम्मू कश्मीर की जीत के सामने फीका रहता हालाँकि त्रिपुरा को जीतना भी एक मायने में बड़ी बात थी। यह सब गैरभाजपा दलों यथा कांग्रेस व माकपा राज में सदैव जनहितकारी कामों को न करने व गहन लोकसंपर्क से विरक्त रहने पर संभव हो पाया। माकपा का क़िला तो ममता दीदी पहले ही ढहा चुकी हैं और कब तक एकमात्र केरल चलेगा नहीं कह सकते ! इसे आज छोड़ते हैं।
लेकिन आज हम चर्चा करेंगें सिर्फ़ जम्मू कश्मीर की जहॉं फारुख अब्दुल्ला बल्कि उनके पिता शेख़ अब्दुल्ला द्वारा स्थापित नेशनल कॉंफ़्रेंस ने मात्र 23.5 % वोट लेकर 42 सीट जीतीं हैं जबकि 25.5 % वोट लेकर भाजपा ने जम्मू क्षेत्र की 29 सीटों पर जीत कर अब तक का अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है । यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि जम्मू हिंदू बहुल और कश्मीर घाटी मुस्लिम बहुल अंचल है। भाजपा घाटी में एक भी सीट नहीं जीत सकी है । कांग्रेस 12% वोट लेकर मात्र 6 सीटें जीत सकी है और वह भी एन सी के समर्थन के कारण। महत्वपूर्ण तथ्य एक यह है कि अन्य निर्दलीयों व छोटी पार्टियों ने कुल मिलाकर 29% वोट लिये लेकिन सीटें केवल 8 जीत सके। पीडीपी कश्मीर में अगले चुनावों तक निरर्थक भी हो सकती है और देखना होगा कि नये उभर रहे व्यक्ति व उनके छोटे दल भविष्य में गौर करने लायक़ जनसमर्थन जुटा पाते हैं कि नहीं। पीडीपी को महज़ 9% वोट मिले जबकि सीटें मात्र 3 ही।
यहॉं गौर करिये कि नेशनल कॉंफ़्रेंस ( एन सी ) का सीटवार उम्मीदवार चयन, जमावट फारुख अब्दुल्ला के कितने अनुभवी हाथों में थी कि भाजपा से कम मत लेकर कहीं अधिक सीटें जीत सके। यहॉं ईवीएम हैक करने की चर्चा नहीं होगी। मत भूलिये कि शेख़ अब्दुल्ला साहेब ने अंग्रेज़ी राज और तत्कालीन महाराजा के किसान व जनविरोधी रुख़ के खिलाफ आज से अस्सी साल पहले से भी मुहिम छेड़ रखी थी। संभावित पाकिस्तान बनने के विरुद्ध भी शेख़ अब्दुल्ला की दहाड़ सुनायी देती रहती थी। १९४७ में पाकिस्तानी क़बीलाई हमले का पहला मुक़ाबला भारतीय सेना ने नहीं शेख़ अब्दुल्ला के किसान लड़ाकों ने किया था, सेना तो महाराजा के हस्तांतरण दस्तावेज पर दस्तख़त के बाद ही रवाना हुई थी ।
भारत माता का मुकुट और गौरव बचाने में जो भूमिका अब्दुल्ला परिवार और एन सी की है वह ऐतिहासिक तथ्यों की रोशनी में कभी भी भुलाई नहीं जा सकती। एन सी और अब्दुल्ला परिवार निस्संदेह भारत की एकता अखंडता का परचम फहराने वाला रहा है । यह भारत राष्ट्र को बड़ा नुक़सान पहुँचाने वाली बात है कि हिंदू मुसलमान राजनीति के चलते हम एनसी या अब्दुल्ला परिवार को भारत विरोधी करार दे दें। फारुख अब्दुल्ला के पिता शेख़ अब्दुल्ला को ‘ महान लोकतांत्रिक ‘ प्रधानमंत्री नेहरू ने भी आज़ादी के बाद जेल में डाल दिया था यह जानते हुये भी कि शेख़ अब्दुल्ला पाकिस्तान के विरुद्ध एक सशक्त हैसियत थे। अब्दुल्ला परिवार बार बार विभिन्न केंद्रीय शासक दलों द्वारा जेल में डाला जाता रहा है और उतनी ही बार इन सबने उनसे समझौता किया है। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर राजीव गांधी तक की सरकार में एन सी शामिल ही थी ! कश्मीर की जनता में कमोबेश यही हैसियत मुफ़्ती परिवार की भी हो सकती थी यदि महबूबा पाकिस्तान समर्थक तत्वों के हाथ में न खेलती तो।
जम्मू कश्मीर राज्य की सरकार एन सी के उमर अब्दुल्ला चलायेंगें तो यह भारत राष्ट्र व कश्मीर राज्य दोनों के लिये सबसे बेहतर विकल्प है। कश्मीर को ठीक से समझे बग़ैर कांग्रेस और भाजपा ने बार बार कश्मीर में इतने वाहियात और लोकविरोधी प्रयोग किये हैं कि जिससे कई बार राष्ट्र की सुरक्षा ही ख़तरे में आती रही है और उतनी ही बार अपने कदमों को वापिस खींच कर अपनी भयानक मूर्खताओं को साबित ही किया है ।
उमर अब्दुल्ला अपेक्षाकृत युवा हैं और राष्ट्रीय राजनीति को भी जानते हैं तो उनकी दृष्टि इतनी तीक्ष्ण होनी चाहिये कि वे 28% वोट जो अन्य दलों व व्यक्तियों को मिले हैं उन्हें अपने रणनीतिक कौशल से इतना छीज दें कि बहुत समय तक इनमें पाकिस्तान समर्थक घुस न सकें। यह भी बहुत बढ़ा चढ़ा कर कहा जाता है कि कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक बड़ी संख्या में हैं।ऐसा आकलन बिल्कुल भी सही नहीं है । कश्मीर घाटी में 370 धारा हटने के बाद अमन चैन और पर्यटन का व्यापार बेहतर हुआ है और घाटी के बहुसंख्यक मुसलमानों की ज़िंदगी पर इससे कोई विपरीत फ़र्क़ नहीं पड़ा है । लेकिन घृणास्पद मुसलमान विरोधी राजनीति को ये लोग कैसे समर्थन दे सकते हैं ? उमर अब्दुल्ला को अपनी राजनीति को हिंदू बहुल जम्मू में पुनर्स्थापित करना चाहिये जो कोशिश कभी उनके दादा भी किया करते थे।
कुछ अज्ञानी, गैरअनुभवी , नौकरीपे़शा व एजेंडा सेट पत्रकार अपने विराटकाय दंभ में फारुख अब्दुल्ला से जब यह पूछते हैं कि क्या वे अपने को भारतीय मानते हैं तो एक ज़ोरदार तमाचा जड़ने का मन करता है कि इन गधों को तो कुछ भी नहीं मालूम !
भाजपा यानी मोशा अपनी ज़िद में एक और बड़ी राष्ट्रघातक गलती कर रहे हैं चीन सीमांत प्रदेश लद्दाख को अनदेखा करते हुये राज्य का दर्जा न देना और भारत प्रेमी लद्दाखी जनता को नाराज़ रखना । इस कुनीति का सीधा असर हिमालयी सीमांत क्षेत्रों में देखी जा सकती है जहॉं पर राष्ट्रहित की पैनी नज़र आज ओझल होती जा रही है। चीनी फ़ौजों का धीरे धीरे हमारी सीमाओं पर अतिक्रमण करना , सड़कें पुल गाँव निर्माण करना और गुरखा सैनिकों का विवश होकर चीन की फ़ौज में शामिल होना अच्छे संकेत नहीं है।
तानाशाही प्रवृति का राष्ट्र पर बुरा व दीर्घकालिक असर पड़ता ही है कि तानाशाही शासक कभी यह मान ही नहीं सकता कि उससे कोई गलती भी हो सकती है। चीन नीति पर ही नहीं हमें अपने राष्ट्रीय हित की कूटनीति को भी पुन:आविष्कृत करने की तत्काल ज़रूरत है। कभी कोई लद्दाखी चरवाहों से बात करें तो सारी स्थिति साफ़ होने लगती है कि चीनी क़ब्ज़ा पहले कहॉं था ? और आज कहॉं है ? वे ही उस ठंडी ज़मीन पर दिनरात मौजूद हैं जो उनकी मातृभूमि है इसलिये उनकी जानकारी सबसे अद्यतन रहती है।
जब ये राष्ट्रहित विषय हमारी दृष्टि में आयें तो अटल बिहारी सरकार का वह फ़ैसला जिसमें तिब्बत पर चीन का क़ब्ज़ा भारत सरकार ने मान लिया था और अभी कुछ बरस पहले मोदी सरकार ने दलाईलामा के कार्यक्रमों में सरकारी अफ़सरों को जाने से निषेध कर दिया था – कितने दीर्घकालिक विपरीत प्रभावकारी लगते हैं।
सरकारें हमेशा के लिये नहीं होती इसलिये ऐसे बड़े फ़ैसलों पर सौ बार सोचना चाहिये और व्यापक सहमति के बाद ही उन्हें लागू करना चाहिये।