— रणधीर कुमार गौतम —
तमाम तरह के विश्लेषकों के बीच जागरूक मतदाता को चुनाव परिणाम से सीखने का अवसर छूटता जा रहा है. कुछ लोग एग्ज़िट पोल के विश्लेषण के माध्यम से ही अपनी आलोचनाओं को नए रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दल शर्म और घबराहट से ऊपर उठकर जनता के मत को अपनी सफलता या असफलता में अपना निहितार्थ खोज रहें. लोकतंत्र में चुनावी जीत और हार ही विश्लेषण के एकमात्र आधार नहीं होते; चुनाव में उभरती हुई नई राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझना भी उतना ही आवश्यक है, आलोचनाओं के बावजूद.
2024 के लोकसभा चुनाव के बाद मेरा मत था कि भारतीय मतदाताओं के मन को समझना किसी भी राजनीतिक या समाजशास्त्री के लिए अत्यंत कठिन है. हां, चुनाव विश्लेषण को निष्पक्ष होकर समझने से कुछ बुनियादी दृष्टिकोण मिल सकता है, जिससे भविष्य में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को और अधिक मजबूत किया जा सके. जिस प्रकार लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार चुनावी परिणाम का स्वतंत्र और निष्पक्ष विश्लेषण भी नागरिकों की जागरूकता के लिए उतना ही जरूरी है. आंकड़ों से देखा जाए तो यह मालूम होता है कि विपक्ष के आपसी संयोजन में कमी भाजपा की जीत के सबसे बड़े कारणों में से एक मानी जा सकती है. विपक्षी दल आपस में एक साझी रणनीति बनाने में अक्सर से असफल रहें है, जिसका लाभ भाजपा उठा ले जाती है.
अब सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी या बीएसपी जैसी पार्टियों को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है? जवाब है, हां है, लेकिन जब विपक्षी दलों द्वारा “अधिनायकवाद” के दौर के दावे हो रहें हों और लोकतांत्रिक-संवैधानिक ढांचे पर खतरा मंडराने की बात हो तब विपक्ष की सबसे बड़ी जिम्मेदारी संगठित होकर उस सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध एक साझी रणनीति के साथ आगे बढ़ना होना चाहिए था, जैसा कि इस चुनाव में भी नहीं दिखाई दिया.
लगातार दस वर्षों के शासन के बाद भाजपा का निरंतर शासन कहिं न कहिं विपक्ष की राजनीति की गंभीर कमजोरी को दर्शाता है, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कभी भी सही नहीं हो सकता. सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है, लेकिन कमजोर साझी नीतियों के साथ वर्तमान सत्ता को चुनौती देना आसान नहीं यह बात इस चुनाव ने सिद्ध कर दिया. जो लोग यह विश्लेषण कर रहे थे कि कांग्रेस की लहर चलेगी या सुनामी आएगी, शायद उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि दलित वोट अब भी बीएसपी से पूरी तरह अलग नहीं हुआ है, उसका प्रभाव अब भी मौजूद है. इसी तरह एक क्षेत्रीय दल के रूप में आईएनएलडी की भी भूमिका अहम है, और आम आदमी पार्टी के रुझान को भी सिरे से नकारा नहीं जा सकता. इन तीन तथ्यों के बावजूद अगर कांग्रेस की लहर उन्हें दिख रही थी, तो यह कहीं न कहीं एक तरह का राजनीतिक भ्रम था.
अन्य तथ्य जो सामने आ रहा है, वह यह है कि हुड्डा जी ने एक तरह से कमलनाथ जी की तरह ही विश्लेषण अपना लिया था. ऐसा देखा जा रहा है कि जाति के आधार पर जाट समुदाय हमेशा से वर्चस्ववादी सोच की राजनीति चलाने का प्रयास करता रहा है. वे चुनाव परिणाम की भी भविष्यवाणी करने लगे थे. अगर हुड्डा सार्वजनिक तौर पर यह कहते कि कुमारी शैलजा को चुनाव परिणाम के बाद भी एक सम्मानजनक स्थान मिलेगा, तो दलित वर्ग की नाराज़गी का सामना उन्हें नहीं करना पड़ता. हालांकि, कुमारी शैलजा ने भी चुनाव के दौरान यह जाहिर किया था कि वे हुड्डा की राजनीति को पसंद नहीं करती हैं.
चुनावी राजनीति में आपसी समझौते के मुद्दे आज के समय में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. कभी-कभी समझौते के मुद्दों में लचीलापन लाभदायक साबित होता है, जैसा कि कर्नाटक के चुनाव परिणामों में देखा गया, जहां कांग्रेस ने किसी के साथ गठबंधन नहीं किया, फिर भी उसकी जीत हुई. कांग्रेस को संयुक्त मोर्चा (गठबंधन) की संस्कृति को उभारना होगा और उससे कुछ सीखना होगा. भाजपा में देखा गया है कि वह अपने सहयोगियों को कुछ सीटें देकर उन्हें साथ बनाए रखती है, और इस तरह जातिगत वोट बैंक को बेहतर ढंग से साधने में सफल हो जाती. जैसे बिहार के लोकसभा चुनाव के दौरान पांच सीटें लोजपा को और एक सीट “हम” को देकर इसका लाभ उठाया.
गठबंधन की राजनीति में एक नियम होता है कि जिसकी जितनी राजनीतिक हैसियत हो, उसे उसी के अनुसार जगह दी जानी चाहिए. गठबंधन की राजनीति में सफलता के सूत्र इसी में छिपे हैं. इसके इतर, गठबंधन का परिणाम नुकसानदेह होता है. कांग्रेस पार्टी को गठबंधन की राजनीति के विज्ञान को और बेहतर ढंग से समझने की आवश्यकता है.
जिस नेता ने हरियाणा में कांग्रेस को गुमराह किया, वह बार-बार यह कह रहे थे कि कांग्रेस अपने दम पर सुनामी लाने में सक्षम है. इसी वजह से आम आदमी पार्टी से गठबंधन नहीं हो पाया. अगर आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन किया जाता, तो 2024 के आम विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को लाभ मिल सकता था. हालांकि, इसके बावजूद अगर हरियाणा में गठबंधन होता, तो कहीं न कहीं कांग्रेस के लिए लैंडस्लाइड जीत होती. और आज के दौर में ऐसे दावे गठबंधन की राजनीति की महत्ता के संदर्भ में किया ही जा सकता ही. गठबंधन की राजनीति का अभी अंत निकट समय में नहीं दिखाई देता.
वैसे तो कांग्रेस के पास सलाहकार मंडल की एक बड़ी फ़ौज है, लेकिन यदि कांग्रेस गठबंधन की राजनीति के धर्म और विज्ञान को समझती तो आने वाले समय में परिवर्तन की तलाश कर रहे लोग उन्हें सरकार बनाने का मौका जरुर देते. लेकिन ऐसा नहीं किया जाना हरियाणा में कांग्रेस के लिए एक बड़ी भूल साबित हुई.