इजराइल और ईरान-हिज़बुल्लाह-संकट : शान्ति के प्रश्न

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Israel and the Iran-Hezbollah-crisis

Parichay Das

— परिचय दास —

जराइल और ईरान-हिज़बुल्लाह संकट एक जटिल और दीर्घकालिक संघर्ष है, जिसका आधार राजनीतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक कारणों में निहित है। यह संघर्ष मुख्य रूप से इजराइल, एक यहूदी राज्य और ईरान, एक शिया इस्लामी गणराज्य के बीच वैचारिक विरोधाभासों से प्रेरित है। ईरान इजराइल को एक अवैध राज्य मानता है और इजराइल को समाप्त करने की अपनी मंशा को बार-बार दोहराता रहा है। इसके अलावा, हिज़बुल्लाह, जो लेबनान में स्थित ईरान समर्थित शिया मिलिशिया है, इजराइल के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लेता रहा है। इस संघर्ष का प्रभाव केवल मध्य पूर्व तक सीमित नहीं है बल्कि इसका वैश्विक राजनीति, सुरक्षा और आर्थिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

इजराइल और ईरान के बीच का यह टकराव धार्मिक और राजनीतिक मतभेदों से कहीं अधिक व्यापक हो गया है। पश्चिमी देशों, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, ने इजराइल को हमेशा समर्थन दिया है, जबकि ईरान को रूस और चीन जैसे देशों से मदद मिलती रही है। इस प्रकार, यह संघर्ष एक क्षेत्रीय युद्ध से कहीं अधिक एक वैश्विक शक्ति संघर्ष का रूप ले चुका है। इस संघर्ष में प्रमुख रूप से सुरक्षा और प्रभुत्व के मुद्दे शामिल हैं और यह लगातार वैश्विक तनाव का कारण बना हुआ है।

भारत के संदर्भ में, यह संकट एक महत्वपूर्ण और जटिल चुनौती प्रस्तुत करता है। भारत के इजराइल और ईरान दोनों के साथ महत्वपूर्ण कूटनीतिक और व्यापारिक संबंध हैं। इजराइल के साथ भारत का रक्षा और सुरक्षा सहयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इजराइल भारत को अत्याधुनिक हथियार और प्रौद्योगिकी प्रदान करता है। वहीं, ईरान के साथ भारत का ऊर्जा सहयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं का एक बड़ा हिस्सा ईरान से आता है। चाबहार बंदरगाह परियोजना के माध्यम से भारत ने अपनी रणनीतिक उपस्थिति अफगानिस्तान और मध्य एशिया में बनाए रखी है। इसलिए, भारत को इस संकट में अपनी कूटनीति के माध्यम से दोनों पक्षों के साथ संतुलन बनाए रखना पड़ता है जो एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।

भारत की विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता की परंपरा है और इस सिद्धांत के तहत वह किसी एक पक्ष का पक्षधर नहीं बनता। यह भारत को इजराइल और ईरान दोनों के साथ रिश्ते बनाए रखने की सुविधा देता है। लेकिन, जब इजराइल और ईरान-हिज़बुल्लाह के बीच तनाव बढ़ता है, तो भारत को इस संतुलन को बनाए रखने के लिए सावधानी से काम करना पड़ता है। यह स्थिति खासकर तब और कठिन हो जाती है जब इजराइल और हिज़बुल्लाह के बीच सैन्य संघर्ष शुरू होता है, जिसका सीधा प्रभाव भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ सकता है।

इस संदर्भ में यह सवाल महत्त्वपूर्ण है कि क्या शांति केवल युद्ध से संभव है? ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो युद्ध मानव समाज के विकास में एक अनिवार्य हिस्सा रहा है। इतिहास में अनेकों बार यह देखा गया है कि युद्ध के बाद ही शांति की स्थायी स्थापना हो सकी है। उदाहरण के लिए, प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति और सहयोग के नए संगठनों का उदय हुआ, जैसे कि लीग ऑफ नेशंस और संयुक्त राष्ट्र संघ। लेकिन यह भी सत्य है कि युद्ध ने मानवता को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है और इसका प्रभाव पीढ़ियों तक महसूस किया जाता रहा है।

युद्ध की विभीषिका का वर्णन अनेक इतिहासकारों और दार्शनिकों ने किया है। हेरोडोटस से लेकर कार्ल फॉन क्लॉजविट्ज़ तक, युद्ध की स्थिति और इसके परिणामों पर अनेक प्रकार से विचार किया गया है। क्लॉजविट्ज़ ने युद्ध को ‘राजनीति का दूसरा रूप’ बताया, जिसका मतलब है कि युद्ध अंततः राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक साधन है। लेकिन यह साधन अत्यधिक विनाशकारी है और इसका परिणाम मानव जीवन, संपत्ति, और सभ्यता के लिए विनाशकारी हो सकता है।

युद्ध की विभीषिका का सबसे बड़ा उदाहरण द्वितीय विश्व युद्ध है। इस युद्ध में लाखों लोगों की जान गई, अनगिनत शहर और गांव नष्ट हो गए, और पूरी सभ्यताएँ प्रभावित हुईं। युद्ध के बाद जब हिटलर का पतन हुआ और मित्र राष्ट्रों की विजय हुई, तब दुनिया ने देखा कि युद्ध की कितनी भयानक कीमत चुकानी पड़ती है। लेकिन इसी युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई, जिसने अंतर्राष्ट्रीय विवादों को हल करने के लिए कूटनीतिक और संवाद के साधनों को बढ़ावा दिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि शांति केवल युद्ध से ही संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए संवाद और समझौतों की आवश्यकता है।

वर्तमान समय में, जब वैश्विक राजनीति और कूटनीति ने युद्ध के स्थान पर संवाद और सहयोग को प्राथमिकता दी है, यह सवाल उठता है कि क्या युद्ध अनिवार्य है। इजराइल और ईरान के बीच का संकट भी इसी सवाल का सामना करता है। अगर दोनों पक्ष एक दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए कूटनीतिक समाधान पर जोर दें, तो युद्ध की विभीषिका से बचा जा सकता है। लेकिन अगर दोनों पक्ष अपने-अपने धर्म, राजनीति और शक्ति के उद्देश्य के लिए युद्ध को प्राथमिकता देते हैं, तो इसका परिणाम विनाशकारी हो सकता है।

भारत के लिए, शांति बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारत ने अपने इतिहास में भी युद्ध की विभीषिका को देखा है, चाहे वह भारत-पाकिस्तान युद्ध हो या फिर कारगिल संघर्ष। भारत की विदेश नीति हमेशा से शांति और संवाद पर आधारित रही है, और इसी कारण भारत ने विभिन्न वैश्विक मंचों पर शांति की वकालत की है। इजराइल और ईरान के बीच भी भारत ने हमेशा संवाद और कूटनीति के माध्यम से समाधान की वकालत की है।

युद्ध की विभीषिका का अध्ययन यह बताता है कि युद्ध से स्थायी शांति की संभावना बहुत कम होती है। युद्ध केवल अस्थायी समाधान प्रदान करता है, जबकि इसके दीर्घकालिक परिणाम अत्यंत विनाशकारी होते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थिति इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। युद्ध के बाद की शांति तब तक स्थायी नहीं हो सकती जब तक कि इसके पीछे संवाद, समझौता और आपसी सहयोग की भावना न हो। यही कारण है कि भारत जैसे देश जो शांति और गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत पर आधारित हैं, इजराइल और ईरान जैसे संघर्षों में कूटनीति को प्राथमिकता देते हैं।

वर्तमान में इजराइल और ईरान के बीच सैन्य तनाव बढ़ने से इस क्षेत्र में अस्थिरता की संभावना बढ़ जाती है। यह अस्थिरता न केवल मध्य पूर्व के लिए खतरनाक है बल्कि पूरे विश्व के लिए भी एक बड़ा खतरा है। अगर इस संकट का समाधान कूटनीतिक रूप से नहीं होता, तो इसका प्रभाव वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति, आर्थिक स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़ेगा। विशेष रूप से भारत जैसे देशों के लिए, जो अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए इस क्षेत्र पर निर्भर हैं, यह संकट एक बड़ी चुनौती बन सकता है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि शांति केवल युद्ध से संभव नहीं है। इतिहास में हमने देखा है कि युद्ध ने जितना विनाश किया है, उतना कोई अन्य साधन नहीं कर सकता। लेकिन शांति के लिए युद्ध आवश्यक नहीं है। इसके लिए कूटनीति, संवाद, और आपसी समझ का होना अत्यंत आवश्यक है। इजराइल और ईरान के बीच चल रहे इस संकट को भी कूटनीतिक रूप से हल करने की कोशिश की जानी चाहिए ताकि इस क्षेत्र में स्थिरता और शांति स्थापित हो सके।

भारत को इस स्थिति में अपनी कूटनीति को और अधिक मजबूत करना होगा, ताकि वह इस संकट में मध्यस्थता की भूमिका निभा सके। भारत के पास इजराइल और ईरान दोनों के साथ मजबूत संबंध हैं और वह इस स्थिति में है कि वह दोनों पक्षों को बातचीत की मेज पर लाने का प्रयास कर सके। इसके लिए भारत को अपने कूटनीतिक प्रयासों को और तेज करना होगा ताकि वह इस क्षेत्र में स्थिरता और शांति बनाए रखने में अपना योगदान दे सके।

युद्ध और शांति के बीच का संबंध जटिल और द्वंद्वात्मक है। शांति की स्थापना के लिए युद्ध का सहारा लेना एक विडंबना है लेकिन ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो कई बार शांति की स्थायी स्थापना युद्ध के बाद ही संभव हुई है। इसका मतलब यह नहीं है कि युद्ध अनिवार्य है बल्कि इसका यह अर्थ है कि जब भी युद्ध हुआ है, उसके बाद शांति की स्थापना के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं। आज के समय में, जब वैश्विक राजनीति में कूटनीति का महत्त्व बढ़ा है, युद्ध से बचने की आवश्यकता और भी बढ़ गई है।

इजराइल और ईरान के बीच चल रहे इस संकट का समाधान भी इसी सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए। दोनों देशों को अपने-अपने धार्मिक और राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार कर, क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता के लिए कूटनीतिक समाधान पर ध्यान देना चाहिए। केवल तभी इस क्षेत्र में स्थायी शांति संभव हो सकेगी।

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