नीला कॉर्नफ्लावरः एक विद्रोही रचना की आग

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Blue Cornflower: A Rebel Design That Fires

arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

दिवासी मामलों के विशेषज्ञ और अनुसूचित जाति और जनजाति आयुक्त रहे डॉ ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर के आदिवासियों को समझाया करते थे कि अगर कोई लेखपाल कानूनगो काग़ज लेकर आए और कहे कि यह खेत और जंगल तुम्हारा नहीं है तो कह देना कि काग़ज तुम्हारा खेत हमारा। वे व्यंग्य में यह भी कहा करते थे कि अच्छा हुआ कि आदिवासियों ने हम लोगों जैसी पढ़ाई नहीं की वरना वे भी हमारी तरह भ्रष्ट और शोषक होते। वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में मानव शास्त्र के प्रोफेसर वीरेंद्र प्रताप यादव का उपन्यास `नीला कॉर्नफ्लावर’ इसी तरह मानवशास्त्रीय ज्ञान के विरुद्ध एक विद्रोह है। पूर्वी और पश्चिमी युरोप के बीच में स्थित एक दबे कुचले देश सोमेट्र का निवासी मार्टिन अपने देश से बाहर नीदरलैंड में मानवशास्त्र की पढ़ाई करने निकलता है। उपन्यास के आखिर में जब वह फील्ड सर्वे करके और मोनोग्राफ लिखने के बाद यह देखता है कि उसके ज्ञान का इस्तेमाल अमेजन के वर्षावन में रहने वाले आदिवासियों के जीवन को तबाह करके प्रकृति के दोहन के लिए किया जा रहा है तो वह वर्षों की मेहनत से पाए ज्ञान और उसके सहारे हीहो और नुआ समुदाय पर तैयार किए गए मोनोग्राफ को ही आग के हवाले कर देता है।

प्रकृति के असंख्य रंग बिरंगे दृश्यों, जीव जंतुओं, नदियों, पहाड़ों और वनस्पतियों, मानव मनोभावों, बिंबों, कल्पनाओं और फंतासी से भरे इस बेहद रोचक उपन्यास का मूल स्वर विद्रोही है। युरोप और दक्षिण अमेरिका की नदियों के नाम पर सृजित हर अध्याय जैसे कि अपने मानव समाज की एक मौलिक धारा हो और वह अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही हो। कथा एक विद्रोह है आधुनिकता के विरुद्ध, औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध, युरोपीय ज्ञान परंपरा के विरुद्ध और प्रकृति के दोहन, शोषण, युद्ध और हिंसा पर आधारित नस्लवाद और राष्ट्रवाद के विरुद्ध। उपन्यास आदिम जीवन की मिथकीय कथाओं के माध्यम से राष्ट्र, प्रकृति, युद्ध, प्राकृतिक संपदा, वीरता और त्याग के रहस्य को समझाता है और बीच बीच में गंभीर टिप्पणियां करता चलता है। कथा की पृष्ठभूमि भारतीय नहीं है, हालांकि मार्टिन से थोड़े समय के लिए विश्वविद्यालय में रोमांस करने वाली एक युवती लक्ष्मी की जड़ें भारत में हैं। उसके दादा भारत से संविदा मजदूर बनाकर वेस्टइंडीज के एक द्वीप पर डच लोगों द्वारा लाए गए थे। उन्होंने वहां नारकीय जीवन जिया था और जनांदोलन करके व तमाम बलिदान देकर स्वतंत्रता हासिल की थी।

तभी तो लक्ष्मी कहती है, “कोई भी मूलतः किसी देश का नागरिक नहीं होता। यदि तुम दुनिया के किसी भी परिवार की वंशावली तैयार करो, उसके पूर्वजों की पीढ़ी दर पीढ़ी सूची बनाओ तो पता चलेगा कि वे उस खास देश के मूल नागरिक हैं ही नहीं। मानवता पुरानी है और राष्ट्र और नागरिकताएं नई अवधारणाएं हैं।’’

दुनिया की संस्थाओं की हकीकत और उनका आशय समझने के लिए लक्ष्मी की टिप्पणियां किसी दार्शनिक की तरह उपस्थित होती हैं। वह कहती है, “सारा खेल सत्ता का है। मुट्ठी भर लोग जो सत्ता के लालची हैं वे सिर्फ अपने लिए बाकी की दुनिया का उपभोग कर रहे हैं और उपभोग बिना शोषण के हो नहीं सकता।’’

मार्टिन और लक्ष्मी की मित्रता की शुरुआत फूलों की एक दुकान में तब हुई थी जब लक्ष्मी ने उसे उसके देश का सबसे खुबसूरत फूल नीला कार्नफ्लावर दिया था। मार्टिन के माता पिता इन्हीं फूलों का व्यापार करते थे और उसी से उनके परिवार का खर्च और विश्वविद्यालय की पढ़ाई चलती है। वह फूल मार्टिन की राष्ट्रीय अस्मिता का हिस्सा है। जब उसके राष्ट्र को उनके जैसे दिखने वाले आक्रमणकारियों ने तबाह कर दिया तब भी उसकी स्मृति से नीला कॉर्नफ्लावर ओझल नहीं होता। इसी नीला कॉर्नफ्लावर में ही छुपा है मार्टिन का सुंदर जातीय बोध और उसी से खिलती है उसकी विद्रोही चेतना। जिस चेतना का परिष्कार कभी लक्ष्मी करती है, कभी प्रोफेसर टिम करते हैं, कभी नुआ जनजाति की युवती मिचाऊ करती है, उसी चेतना का वास्तविक परिष्कार का अनुभव वह तब करता है जब दक्षिण अमेरिका के शोषण और लूट की अनंत कथाओं से मिलकर आधुनिक पूंजीवादी औपनिवेशिक ज्ञान प्रणाली और धार्मिक-प्रशासनिक व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिकार का एक महाख्यान निर्मित करता है।

यह उपन्यास याद दिलाता है उरुग्वे के राजनीतिक पत्रकार एदुआर्दो गालियानो की महान रचना—ओपन वेन्स आफ लैटिन अमेरिका( लैटिन अमेरिका की रिसती नसें) की। उपन्यास याद दिलाता है अर्जेंटीना मूल के ड्यूक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर वाल्टर मिगनोलो की रचना `द आइडिया आफ लैटिन अमेरिका’ की, `डार्कर साइड आफ रेनेसां’, `डार्कर साइड आफ वेस्टर्न माडर्निटी’ की। यह उपन्यास याद दिलाता है उन्नीसवीं सदी के गोल्ड रश(सोने की लूट) की। गालियानो ने अपनी रचना में उस दहला देने वाले वर्णन को प्रस्तुत किया है जिसके माध्यम से दक्षिण अमेरिका के मूल निवासियों का नरसंहार किया गया, उन्हें गुलाम बनाया गया और उनके सोने की खदानों से सोना लूटने के लिए उनके वनों, पर्वतों, नदियों और जीव जंतुओं को तबाह किया गया। स्पैनिश में लिखी गई इस रचना के समीक्षक तो यहां तक कहते हैं कि इसे ज्यादा संवेदनशील व्यक्ति को पढ़ना नहीं चाहिए। क्योंकि वह बहुत व्यथित करती है। सोचिए जब स्पैनिश की उस रचना को अंग्रेजी में पढ़ने वाले वैसा कहते हैं तो मूल रचना को पढ़ने वाले क्या सोचते होंगे। जबकि गालियानो स्वयं कहते हैं कि मैंने वह रचना बहुत अनगढ़ तरीक से लिखी। आज लिखता तो उसका स्वरूप कुछ और ही होता। हालांकि दुनिया में औपनिवेशिक दासता से संघर्ष करने वालों के लिए वह अपने में एक बेहद प्रमाणिक और उद्वेलित करने वाला ग्रंथ है।

इसी तरह प्रोफेसर वाल्टर मिगनोलो बताते हैं कि रेनेशां युरोप के लिए जरूरी और गर्व करने वाली परिघटना हो सकती है लेकिन दुनिया के लिए वह वैसी नहीं है। दुनिया को उसके अंधेरे हिस्से को संपादित करके ही ग्रहण करना चाहिए। वे युरोपीय आधुनिकता पर भी कठोर प्रहार करते हैं।

वीरेंद्र यादव के उपन्यास में लगता है कि इन तमाम विमर्शों के रस को निचोड़ कर बेहद कल्पनाशील ढंग से रख दिया गया है। कोमल और जादुई भाषा के धनी वीरेंद्र न जाने कैसे सुदूर देश की इतनी सुंदर कल्पना कर लेते हैं। या तो ऐसी कल्पना डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक या हिस्ट्री जैसे चैनलों को बहुत ध्यान से देखने पर की जा सकती है या फिर उन देशों को देखकर और उनके अतीत में उतर कर की जा सकती है। लेकिन किसी देश के अतीत में उतरना और उसके सौंदर्यबोध को समझना और उसके नष्ट होने की चीख पुकार को सुन पाना आसान नहीं होता न ही डिस्कवरी और हिस्ट्री चैनल में वह भाव मिलते हैं जिन्हें वीरेंद्र ने व्यक्त किया है। वीरेंद्र वह सब सुनते हैं और अपने पाठकों को सुनाते और दिखाते भी हैं। जैसे उन्हें कभी कभी रंग सुनाई पड़ने लगते हैं और ध्वनियां दिखाई पड़ने लगती हैं।

जब हीहो जाति के आदिवासी टपीर नामक एक प्राणी के वाइपर के काटे का इलाज जड़ी बूटी से कर देते हैं तो लेखक कहता है, “टपीर को जिंदा देखकर मार्टिन को बहुत संतोष हुआ। साथ ही शहरी वैज्ञानिक मान्यता के प्रति एक बार फिर उसके मन में प्रश्न चिह्न उठा।उसे आज फिर अपना ज्ञान अपनी पढ़ाई लिखाई सब अधूरी लगी। उसे हीहो के ज्ञान ने आज फिर मोह लिया।……ही हो के साथ वह जब-जब रहा, हर बार उसकी पीठ से, उसके पश्चिमी ज्ञान का बोझ मकाओ तोते की तरह से उड़ रहा था और उसकी पीठ एकदम हल्की हो रही थी। आकाश मकाओ तोते की तरह से नीला हो रहा था और उसकी पीठ पानी की तरह रंगहीन हो रही थी।’’

मार्टिन और नुआ युवती मिचाऊ के बीच की बातचीत और फिर मिचाऊ के पिता शमन की मार्टिन को दी जाने वाली सीख प्रकृति के संरक्षण की आदिवासी समझ की बेहद ताजगी भरी और सीधी सरल लेकिन गूढ़ व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। वे बातें उपन्यास के दार्शनिक पहलू को मजबूत करती हैं और पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण की मौलिक सीख देती हैं। स्वर्ण का टीला देखकर मार्टिन ने बूढ़े शमन से कहा, “ यहां जितना स्वर्ण है उतना मैंने न तो कभी देखा, न कभी इसकी कल्पना ही की।’’ इस पर बूढ़े शमन ने जवाब दिया,“चटख और चमकीली चीजें अमूमन खतरनाक होती हैं। उनसे दूर रहने में ही भलाई होती है।’’ मार्टिन ने स्वर्ण का एक ढेला उठाने के लिए जब हाथ बढ़ाया ही था कि बूढ़े शमन ने उसे टोकते हुए कहा, “इसे मत छुओ, यह शापित है। …..स्वर्ण दुनिया की सबसे शापित वस्तु है। इसे अपने पास रखने से व्यक्ति का नाश हो जाता है। यदि तुमने इसे छुआ तो सारा पाप तुम पर आ जाएगा और इस शाप का कोई तोड़ भी नहीं है। इस शाप से इंसान क्या, देवता भी मुक्त नहीं हो पाते। इसके संपर्क में आने से सबसे पहले व्यक्ति पागल हो जाता है। फिर उसके मित्र और संबंधी उसके शत्रु हो जाते हैं। अंत में वह एकाकी हो जाता और जिसके बाद वह पागल हो मर जाता है।’’

बूढ़े शमन की यह बातें सुनकर लगा कि उसके पीछे उसी तरह स्थानीय विवेक बोल रहा है जिस तरह भारतीय समाज में भी कहा जाता है कि—-

कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय
वा खाए बौराय जग व पाए बौराय।

बूढ़ा शमन कहता है कि यह जो स्वर्ण यहां तुम चारों ओर देख रहे हो एक दिन हमारे पतन का कारण बनेगा। जिस दिन वर्षावन समाप्त हो जाएंगे, तब देवता नाराज हो जाएंगे और क्रोध से सब मर जाएंगे।

पृथ्वी नामक ग्रह पर किस तरह यहां रहने वाले सारे जीव जंतुओं और वनस्पतियों का साझा हक है इस बात को मार्टिन के प्रति थोड़े समय के लिए आकर्षित होने वाली नुआ युवती मिचाऊ बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त करती हैः—“नुआ मान्यता है कि इस पृथ्वी पर कोई भी वस्तु किसी एक की नहीं है। बल्कि उन पर पृथ्वी के सभी जीवों का अधिकार है। आखिर प्रकृति भी तो यही करती है। जंगल का कोई भी पेड़ किसी एक व्यक्ति के लिए फल नहीं देता। सूरज का प्रकाश किसी एक के लिए नहीं होता। बारिश की बूंदें किसी एक के लिए नहीं गिरतीं। इस पृथ्वी पर जो कुछ है वह सबका साझा है।’’

शमन और मिचाऊ की बातों के बाद कथा का नायक मार्टिन यह सोचने पर मजबूर होता है कि नुआ जैसी संस्कृतियां जिन्हें हम असभ्य और जंगली मानते हैं उन्हीं के कारण पृथ्वी अभी तक बची है। जिस दिन नुआ और उसकी जैसी संस्कृतियां जिन्हें हम जंगली और असभ्य मानते हैं, वह समाप्त हो जाएंगी, उसी दिन से पृथ्वी नष्ट होना शुरू हो जाएगी।

मार्टिन का स्वप्न बहुत रोचक है। उसे नुआ जनजाति पर लिखे गए मोनाग्राफ के कारण बहुत शोहरत मिली। उसे अमेरिकन एसोसिएशन आफ एंथ्रोपोलॉजी ने सम्मानित किया। लेकिन सपने का अगला हिस्सा भयानक था। वह जब कोंडोर पक्षी बनकर अमेजन के ऊपर उड़ने लगा तो उसने देखा कि घने जंगल में कई जगह बड़े बड़े धब्बे बन गए हैं। जंगल के मध्य बड़ी बड़ी मशीनें खुदाई कर रही हैं।एक एक गड्ढे का क्षेत्रफल बीसों फुटबाल के मैदान जैसा है। वर्षावन का हरापन उतर गया था। सदाबहार वन ठूंठ में बदल गए थे। दानवाकार मशीनें जगह जगह मिट्टी खोद रही थीं। नदियों की धाराओं को भी मोड़ दिया गया था। नुआ बस्ती भी जलाकर राख कर दी गई थी।

वास्तव में मार्टिन के मोनोग्राफ ने गोल्ड डिगर्स को बड़ी उम्मीद दे दी थी। उन्होंने पूरे इलाके को तबाह करना शुरू कर दिया था। मार्टिन अपराध बोध से भर गया उसने अपने अपराधबोध को प्रोफेसर टिम और लक्ष्मी से भी व्यक्त किया। वे उसे समझाते रहे लेकिन अपराध बोध उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। इस स्वप्न ने मार्टिन को अपना मोनोग्राफ आग के हवाले करने को मजबूर कर दिया।

वास्तव में वीरेंद्र इस उपन्यास के माध्यम से मानव शास्त्र के औपनिवेशिक उपयोग को बहुत मार्मिक ढंग से चित्रित करते हैं। यह सही भी है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक को तबाह करने के लिए एंथ्रोपोलोजी का सहारा लिया। वीरेंद्र अपने विषय के इस मानव विरोधी उपयोग से व्यथित हैं। इसीलिए उनका यह उपन्यास एक तरह से यह उनका अपने ही ज्ञान के प्रति एक विद्रोह है। पूंजीवाद और औपनिवेशिकता के कारण मानवीय ज्ञान एक अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा बनता गया है। यह बात उपन्यास प्रमाणित करता है। उपन्यास रोचक है और किसी धारावाहिक की पटकथा की सामग्री भी प्रदान करता है। लेकिन उन सबसे आगे बढ़कर वह बहुत सारे सवाल उठाता है जिसका जवाब न तो उपन्यासकार के पास है और न ही हमारे समय के पास।

नीला कॉर्नफ्लावर, वीरेंद्र प्रताप यादव, आधार प्रकाशन, पंचकुला (हरियाणा), मूल्य-195 रुपए, पृष्ठ संख्या 112.

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