— रणधीर कुमार गौतम —
स्वदेशी जागरण का एक राजनीतिक या वैचारिक आन्दोलन के रूप में केवल भारत में ही नहीं, तीसरी दुनिया के अनेक देशों में भी उभार हुआ था. गांधीवादी और समाजवादी विचारधारा को मानने वाले लोग इस विचार को लगातार आगे बढ़ने का काम किया है. लोगों ने विदेशी विचार और दर्शन को लेकर अपना जोरदार विरोध दर्ज किया था और आज भी कर रहें हैं. स्वदेशी एक शक्ति है जो लोगों में एक विश्वास को पैदा करती है. और यही विश्वास देश और राज्य के निर्माण में परिवर्तित होता है. आज स्वदेशी को लेकर कथनी-करनी में एक बड़ा अंतर दिख रहा है, हम पहनावे के उदाहरण से उस विरोधाभाष को देखने का प्रयास करते हैं.
पहनावे का अपना एक सांस्कृतिक सन्दर्भ है. संस्कृति के प्रेरक तत्व पर्यावरण और स्थानीय परिवेश भी हैं. जिस परिवेश में लोग रहते हैं वहां के पर्यावरण का उनके पहनावे पर पूरा प्रभाव पड़ता है. गांधी ने भारतीय समाज और राजनीति में अपने पदार्पण के बाद धोती पहनना प्रारंभ किया. नेहरु भी कुरता पायजामा पहनते थे, और वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी भी अक्सर भारतीय परिधान में ही देश-विदेश तक घूमते रहते हैं. यानि देश के सांस्कृतिक महत्त्व के प्रति ये सभी सजग रहें हैं. उनके पहनावे अनौपचारिक रूप से देश की जनता को सन्देश देते रहें हैं कि देश और समाज में सांस्कृतिक पहनावों को बढ़ावा दिया जाए. गांधी ने इसी लिए अपने आन्दोलनों के दौरान विदेशी वस्त्रों की होली भी जलाई, क्योंकि ये सांस्कृतिक पतन के साथ-साथ यहाँ के पारंपरिक अर्थतंत्र को ध्वस्त कर रहे थे. इस तरह हम कह सकते हैं कि सांस्कृतिक पहनावे केवल स्थानीय पर्यावरण ही नहीं, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था से भी गहरे जुड़े होते हैं.
गाँधी इसलिए चरखे का प्रयोग करते थे, और ग्रामीण जीवन दर्शन की वकालत करते थे. आजादी का आन्दोलन स्वदेशी विचारों और उत्पादों की प्रेरणा से लैश था, और इस कारण भारत विदेशी शक्तियों के विरुद्ध एकजुट हो पाया. हाल के कुछ वर्षों में भारतीय “राष्ट्रवाद” का जो एक उभार हुआ है उसमें भी स्वदेशीकरण पर काफी बल दिया गया है. हर टीवी डिबेट से लेकर राजनीतिक नारों तक में स्वदेशी की गूंज सुनाई देती है. अकादमिक जगत भी इससे मुक्त नहीं है, यहाँ भी स्वदेशीकरण की बात की जा रही है, और ज्ञान परम्परा में उन भारतीय चिंतकों, विचारकों को फिर से स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है जिनके सहारे भारत का भारतीय तरीके से निर्माण किया जा सके. इतनी राजनीतिक और सामाजिक सक्रियता के बाद भी स्वदेशीकरण को लेकर एक विरोधाभाष साथ-साथ चल रहा है जिसे कुछ दृष्टान्तों के द्वारा समझा जा सकता है.
कुछ महीने मेरे एक प्रयागराज के मित्र ने मुझे बताया की एक विश्विद्यालय के शिक्षक ने किसी विश्विद्यालय के ही एक बड़े अधिकारी पद पर कार्यरत अधिकारी से पहनावे को लेकर सवाल किया तो वह अधिकारी, जो स्वदेशीकरण की बात कर रहा थे बगले झाँकने लगा. उस शिक्षक ने पूछा कि आखिर कार्यालयों में जब कहा जाता है कि लोग “फॉर्मल” पहनावे में आये तो स्त्रियाँ तो साडी या सलवार सूट में आती हैं, लेकिन पुरुषों से अपेक्षा की जाती है कि वे सूट और टाई लगाकर आये, जो विदेशी पहनावा माना जाता है, यह कितना विरोधाभाषी है! इससे एक बात समझ में आती है कि संस्कृति और संस्कारों के रक्षक के रूप में केवल हासिये के समूहों को ही अधिक जिम्मेवारी निभानी पड़ती है. विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को इससे पूरी छुट रहती है. इसपर उस अधिकारी ने कहा कि स्त्री या पुरुषों से अपेक्षा की जाती है कि वे जिन पहनावों में आये वे “सभ्य” और “सौम्य” दिखे इसलिए ऐसे पहनावे को प्रेरित किया जाता है?
फिर दूसरा सवाल उठा कि तो क्या हम मान लें कि हमारे पारंपरिक पहनावे “सौम्य” और “सभ्य” नहीं है? और अगर ऐसा है तो फिर हमारे सभी राजनेता उन सांस्कृतिक पहनावों से ही क्यों राजनीतिक सामाजिक जीवन में आते हैं जिन्हें कार्यालयी जीवन में “असभ्य” और “असौम्य” माना जाता है? वे यहाँ तक कि पगड़ी, पाग, गमछा, चादर, मुरेठा, लुंगी आदि तक का प्रयोग करते हैं ताकि जनता में अपनी संस्कृति के प्रति विश्वास पैदा किया जा सके. लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि सबसे सम्मानित और प्रेरक लोग होते हैं, उनका अनुकरण किया जाता है. प्रधानमंत्री मोदी के पहनावे से लाखों लोग प्रेरित हुए, और उन्होंने अपने पारंपरिक परिधानों को गर्व से पहनना प्रारम्भ किया. लेकिन सवाल है कि क्या ऐसी प्रेरणा देने की जिम्मेवारी केवल राजनेताओं की ही है, सरकारी या गैर-सरकारी सेवाओं से जुड़े लोगों की नहीं? भारत सांस्कृतिक तौर पर इतना समृद्ध रहा है कि यहाँ हरेक वर्ग और व्यवसाय के लोगों के लिए पहनावे का प्रचलन रहा है, तो क्या हम उन परम्पराओं को फिर से प्रयोग में नहीं ला सकते?
और अगर नहीं ला सकते तो उसपर हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए, और उस स्पष्टता का साफ अभाव दीखता है. जैसे, वर्षों से विश्विद्यालय के शिक्षकों ने उन सांस्कृतिक पहनावों का संवर्धन किया था. कुछ दशक पूर्व जब स्वदेशीकरण की राजनीतिक मांग कम थी तब उन्हें उनके पहनावे को लेकर कोई ड्रेस-कोड का पालन नहीं करना पड़ता था, लेकिन आज जब स्वदेशीकरण मुखर दौर में है तो शिक्षकों और छात्रों को एक अघोषित निर्देश सा है कि वे “फॉर्मल” पहनावे में ही आये, और ये “फॉर्मल” विदेशी के रूप में भी देखे जाते हैं. हम छात्रों या शिक्षकों के पारंपरिक पहनावों को व्यवस्था को चुनौती के रूप में देखते हैं. और इसका सबसे शानदार उदाहरण बिहार के एक सरकारी विद्यालय की घटना से समझी जा सकती है. कुछ महीने पहले एक जिलाधिकारी ने एक शिक्षक को केवल इसलिए सार्वजनिक रूप से बेइज्जत किया क्योकि वह कुरता-पायजामा पहन कर आता था.
निस्संदेह नौकरशाह को शिक्षक की स्वाधीनता पची नहीं होगी, सांस्कृतिक पहनावे स्वाधीनता के भाव ही तो देते हैं! अगर उसपर कक्षा नहीं लेने के कारण कोई कारर्वाई की जाती तो समझ में आता, लेकिन स्वदेशी पहनावे को लेकर उसपर कार्रवाई करना असंवैधानिक है. संवैधानिक सन्दर्भों में देखा जाए तो कार्रवाई तो उस जिला अधिकारी पर किया जाना चाहिए था, जिसने भारत की सांस्कृतिक परंपरा का सार्वजनिक तौर पर अपमान किया था, अगर सच में यह सब पहनावे को लेकर ही हुआ था तो.इसी तरह का एक मामला बिहार के एक लेखक के साथ हुआ जब वह गमछे और कुरते-पायजामे के साथ एक रेस्टोरेंट में जाता है तो उसे गमछे निकालने का निर्देश दिया जाता है. इसपर हालाँकि बाद में प्रबंधक ने माफ़ी मांगी थी.
दोनों ही मामले दिखाते हैं कि स्वदेशीकरण को लेकर प्रधानमंत्री मोदी जितने सजग हैं सरकारी और निजी संस्थाएं इसके विपरीत कार्य कर रही है. पहनावे प्रतीक हैं किसी समाज की, और ये प्रतीक लोगों की आत्मा में स्वाभिमान का बीजारोपण करते हैं. स्वदेशीकरण के लिए हरेक सरकारी कार्यालय में कार्यावधि में जिस राज्य या प्रान्त के वे हैं वही पहनावे उन्हें पहनने का निर्देश दिया जाय. हमारे जिला-अधिकारी, पुलिस अधिकारी, शिक्षक, छात्र, राजनेताओं की तरह ही अपने-अपने सांस्कृतिक पहनावों में कार्यों पर जाए तो क्या दिक्कत है? इससे लोगो के बीच भी एक सन्देश जाएगा कि ये सभी सच में जनता के सेवक हैं. विदेशी माने जाने वाले पहनावों में ये सभी शोषक जैसे प्रतीत होते हैं. यह फिर से हम दुहराना चाहेंगे कि राजनेताओं के आचार-विचार एक आदर्श मॉडल की तरह होते हैं, क्योंकि वे जनता के प्रतिनिधि हैं.
जनता का प्रतिबिम्ब जन-नेताओं में ही होता है. लोकतंत्र की शक्ति के श्रोत जनता के माध्यम से जनप्रतिनिधि में ही है, इसलिए उनके आचरण हम सभी के लिए प्रेरणा के श्रोत माने जाते हैं. वह दौर सच में स्वदेशी होगा जब जिला-अधिकारी, पुलिस-अधिकारी, विश्विद्यालय के शिक्षक,और छात्र सभी अपने देशी पहनावों में जैसे धोती-कुरता, गमछा, चादर, पायजामा-कुरता, साडी, लुंगी आदि में आना शुरू करेंगे! और कुछ बदलाव हो या न हो जनता उनसे एक जुडाव महसूस करेगी, उन्हें लगेगा कि उनके देश को चलाने वाले लोग उनके बीच के ही हैं.
अंतिम रूप से जो मैं कहना चाहता हूँ कि या तो इसपर एक स्पष्ट नीति का निर्माण होना चाहिए, या फिर स्वदेशीकरण की राजनीति की सीमाओं को स्वीकारना चाहिए कि सम्पूर्ण स्वदेशीकरण आज के इस वैश्विक दौर में संभव नहीं, क्योंकि इस विरोधाभाष के कारण ही पहनावों के नाम पर जगह-जगह लोगों का उत्पीडन किया जाता है.