असंभव नहीं अनिवार्य है अहिंसक समाज

0
Society

arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

क्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हम जिस तरह सूचनाओं के सांप्रदायिक बंदीगृह में कैद हो गए हैं उसमें मानवता, विश्व बंधुत्व, अहिंसा और न्याय जैसे मूल्यों की चर्चा एक उबाऊ और पिछली सदी की बकवास हो कर रह गई है। पिछली सदी के आखिरी दशक में उभरी वैश्वीकरण की जिस अवधारणा ने वैश्विक समुदाय के सदस्यों को खुले आकाश में विचरण करने का स्वप्न दिखाया था, वह तो लहूलुहान होकर ध्वस्त हो चुकी है। अब उत्तर-आधुनिक मनुष्य जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्र, भौतिकता और प्रौद्योगिकी के तमाम कटघरों को ही मुक्त और अनंत आकाश मान कर चल रहा है। इन श्रेणियों ने किसी को अंडा सेल में कैद कर रखा है तो किसी को बैरक में। वे उसी दायरे में अपनी हिंसा को बढ़ाते हुए सभ्यता की नई ऊंचाई हासिल करने का दावा कर रहे हैं। हिंसा और नफ़रत का कारोबार जो जितने जोर से कर रहा है उसकी आमदनी और सत्ता उतनी ही बढ़ती जा रही है। बल्कि मनुष्य इसी मामले में सार्वभौमिक रह गया है।

बहराइच से गाज़ा तक मुंबई से ओटावा तक कहीं धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है तो कहीं राष्ट्र के नाम पर। कहीं हिंसा से धर्म की छाती जुड़ा रही है तो कहीं राष्ट्र की मूछें ऊंची हो रही हैं। हिंसा की इन घटनाओं का प्रमुख अभिकर्ता राज्य है। कहीं वह अपने दायित्व से घंटा भर या एक दो किलोमीटर पीछे हटकर घटनाओं को घटित होने देता है तो कहीं राष्ट्रीय अवकाश के बहाने आतंकवादी कार्रवाई का पता ही नहीं लगा पाता। उसकी ताकतवर खुफिया एजंसियां जवाब दे जाती हैं। इस तरह कहीं पुलिस के मुठभेड़ करने का बहाना मिलता है और बुलडोजर चलाने की भूमिका तैयार होती है तो कहीं आतंकवाद के सफाए के नाम पर निरपराध महिलाओं- बच्चों और अस्पतालों- स्कूलों पर बमबारी का वातावरण निर्मित किया जाता है। राष्ट्रों, राज्यों और उनके साथ जुड़े आतंकी और आपराधिक समूहों के चंगुल में व्यक्ति यानी मनुष्य मकड़ी के जाल में फंसे हुए कीड़े की तरह होकर रह गया है।

अगर बहराइच के राम गोपाल मिश्र की स्थिति उस कीड़े की तरह साबित हुई तो वैसा ही हाल गाज़ा के शाबान-अल-दलाऊ का हुआ। राम गोपाल हिंदुत्व का सांप्रदायिक हिंसा और प्रतिहिंसा का शिकार हुआ तो 19 साल का शाबान-अल-दलाऊ यहूदी राष्ट्रवाद के नरसंहार का शिकार हुआ। शाबान-अल-दलाऊ गाज़ा से बाहर निकलना चाहता था, वह कुपोषण और बमबारी के सदमे से परेशान था। वह फंड जुटा रहा था ताकि लोगों की मदद भी कर सके। वह सोच रहा था कि जब बाहर निकल जाएगा तो अपनी बहन को भी निकाल लेगा। लेकिन इजराइली हमले में उसके प्लास्टिक के टेंट में आग लग गई। वह बचने का प्रयास करते हुए वहां जल कर खाक हो गया। उसका वीडियो पूरी दुनिया ने देखा। लेकिन दुनिया के ताकतवर लोग अपने दोगलेपन में इस कद्र उलझे हैं कि वे कुछ कर नहीं सकते।

वाटरगेट कांड का खुलासा करने वाले अमेरिका के मशहूर पत्रकार बाब वुडवर्ड ने अपनी ताजा पुस्तक `वार’ में वर्णन करते हैं कि बीबी यानी वेंजामिन नेतनयाहू को निजी तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस दोनों नापसंद करते हैं लेकिन वे इजराइल को दी जाने वाली सहायता जारी रखे हुए हैं। निजी बातचीत में बाइडेन गाली देते हैं और कमला हैरिस फिलस्तीनी बच्चों और औरतों के प्रति संवेदना जताती हैं लेकिन सार्वजनिक तौर पर वे इजराइल के साथ वैसे ही खड़े हैं जैसे अन्य युरोपीय देश। जो बाइडेन अपने मित्र के साथ बातचीत में स्वीकार करते हैं कि हमने इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू और फिलस्तीन के राष्ट्रपति मोहम्मद अब्बास को पांच घंटे तक फोन पर आगा पीछा समझाने का कोशिश की लेकिन वे नहीं माने।

उधर ब्लादीमीर पुतिन को वे बुराई मानते हैं और कहते हैं कि हम बुराई के प्रतीक से लड़ रहे हैं। अक्तूबर 2021 से अमेरिका को पूरी जानकारी थी कि रूस युक्रेन पर हमला करने वाला है। उन्होंने दिसंबर 2021 में पुतिन से पचास मिनट बातचीत की लेकिन बातचीत इतनी तल्ख हो गई कि पुतिन वे एटमी हथियार के प्रयोग की धमकी दे डाली।

यह विडंबना है कि अमेरिका के पत्रकार एक ओर तो यह दावा कर रहे हैं कि वहां के राष्ट्रपति युद्ध रोकना चाहते थे और दूसरी ओर युद्ध जारी रखने के लिए हथियार सप्लाई कर रहे हैं। हालांकि अमेरिका में युद्ध विरोधी प्रदर्शन भी हो रहे हैं लेकिन वास्तव में युद्ध रोकने के बारे में अमेरिकी सरकार की गंभीरता संदिग्ध है। अगर सचमुच अमेरिकी राष्ट्रपति इस मामले में गंभीर होते या दुनिया के अन्य देशों के नेतृत्व में कोई वैश्विक संवेदना होती तो उनका राजनय जान एफ कैनेडी की तरह से होता, जिन्होंने 1961 में जब क्यूबा में एटमी मिसाइल तैनात किए जाने के मामले पर नाभिकीय युद्ध का खतरा पैदा हो गया था तो सीधे सोवियत संघ के राष्ट्रपति ख्रुश्चेव को फोन करके उस खतरे को टाल दिया था। गांधी पर `द अनस्पीकेबलः गांधीज फाइनल एक्सपेरीमेंट विथ ट्रुथ’ नामक चर्चित पुस्तक लिखने वाले जेम्स डगलस इसी बात को कैनेडी की हत्या की वजह बताते हैं। उनका कहना है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान कैनेडी की इस पहल से खुश नहीं था और उसने कैनेडी की हत्या हो जाने दी। उसी तरह जैसे भारत के सत्ता प्रतिष्ठान के लिए गांधी परेशानी का सबब बन गए थे और उसने गांधी की हत्या हो जाने दी।

राज्य की इसी संरचना के बारे में महात्मा गांधी कहते हैं, “राज्य संकेन्द्रित और संगठित रूप से हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्ति के पास आत्मा होती है लेकिन राज्य आत्मा से विहीन तंत्र होता है। इसलिए उसे हिंसा से विरत नहीं किया जा सकता। उसका अस्तित्व ही हिंसा में निहित है।’’

महात्मा गांधी की इस बात का समर्थन मशहूर राजनीति विज्ञानी हेराल्ड लास्की भी अपने अवलोकन में करते हैं, “राज्य के लक्ष्य कुछ भी हों, यथार्थ में राज्य एक शक्ति संगठन है, जो अपनी इच्छा पूर्ति के लिए बलप्रवर्तन के अपने वैध अधिकार पर आश्रित है और अंततः राज्य की सेना ही उसकी इच्छापूर्ति का साधन है।’’

वास्तव में राज्य की जीवनी शक्ति ही हिंसा है। वह उसके बिना रह नहीं सकता। इसी से अमेरिकी सैन्य कॉरपोरेट तंत्र का आर्थिक चक्र चलता रहता है। इसी हिंसा के लिए वह दो देशों में युद्ध कराता है और कई क्षेत्रों में अशांति को कायम रखता है। अगर इजराइल और उसके नेतनयाहू जैसे प्रधानमंत्री को बार बार युद्ध करने में राजनीतिक और आर्थिक लाभ लगता है तो अमेरिकी कॉरपोरेट-सैन्य तंत्र भी नहीं चाहता कि अरब के इस इलाके में शांति कायम हो। वैसे जैसे युरोप नहीं चाहता कि कश्मीर समस्या का हल निकले और भारत पाक के बीच शांति कायम हो। न ही दोनों देशों का शासक वर्ग ऐसा चाहता है। राजसत्ताओं के लिए युद्ध कितना जरूरी होता है इसका एक नमूना बौद्ध विद्वान धर्मानंद कौसांबी गीता के बहाने पेश करते हैं। वे लिखते हैं कि जब भारत में बौद्ध धर्म का प्रसार हो गया और युद्ध बंद हो गए तो श्रीमदभगवत गीता की रचना की गई। इसका उद्देश्य युद्ध को सही साबित करना था। क्योंकि युद्ध होते रहने से तमाम राजाओं और उनकी सेना को लूटपाट करने और नया इलाका जीतने का नया काम मिलता रहता है।

भारत ने 1999 में हुए कारगिल युद्ध के बाद भले कोई युद्ध न लड़ा हो लेकिन सीमा पर लड़ा जाने वाला यह युद्ध अब देश के भीतर होने वाले चुनावों और अपने ही देश के विपक्षी दलों को शत्रु मानने के रूप में फैल गया है। अगर राष्ट्रवाद के नाम पर सीमा पर नफरत नहीं फैल पा रही है तो उसे क्यों न देश के भीतर चुनाव जीतने में इस्तेमाल किया जाए। हिंदू मुस्लिम विवाद और सत्ता पर काबिज दल से अलग विचारधारा को शत्रु मानने का विचार आखिरकार हिंसा की ओर ही जाता है और राज्य की शक्ति को बढ़ाता है और नागरिकों की शक्ति को कम करता है।

नागरिकों के साथ न्याय और उनके अधिकारों का सम्मान किया जाना जरूरी है। बिना उसके न तो देश के भीतर शांति कायम हो सकती है और न ही देश के बाहर। नागरिकों के अधिकारों को कुचले जाने के लिए पहले विद्रोह एक बहाना था तो आज आतंकवाद एक बहाना हो चला है। आज अगर कनाडा के खालिस्तान समर्थकों को वहां की पुलिस यह कहते हुए आगाह कर रही है कि उनके पीछे हत्या करने वाले गिरोह लगे हैं तो पहले भी तानाशाह अपने असंतुष्ट नागरिकों के पीछे खुफिया पुलिस लगाए रहते थे। रूस आज भी अपने विपक्षी नेताओं को जहर दिलवाता रहता है। भ्रष्टाचार विरोधी नेता अलेक्साई नवालनी का मामला इसका उदाहरण है।

इन्हीं स्थितियों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 1948 में मानवाधिकार का घोषणा पत्र जारी किया था जिसे उस समय संयुक्त राष्ट्र की महासभा में 48-0 मतों से पारित किया गया था। इस मतदान में रूस समेत आठ देशों ने हिस्सा नहीं लिया था। यह घोषणा-पत्र जारी करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने कहा था कि अगर दुनिया में स्वतंत्रता, न्याय और शांति कायम करनी है तो मानव परिवार के सभी सदस्यों को गरिमा प्रदान करनी होगी और सभी को बराबर और अविभाज्य अधिकार देना होगा। अगर विद्रोह की स्थितियां नहीं बनने देना है तो मानवाधिकार की रक्षा करनी होगी।

मानवाधिकारों का यह पूरा ताना बाना हमारे मनुष्य होने की अनिवार्य शर्त प्रतिपादित करते हैं। इन अधिकारों को पाए बिना कोई अपने को पूर्ण मनुष्य नहीं कह सकता। दुनिया के एक हिस्से में लोकतांत्रिक सरकारें अपने संविधान में इन अधिकारों को शामिल करके उन्हें नागरिकों को उपलब्ध भी कराती हैं लेकिन दूसरे हिस्से में अधिनायकवादी और राजतंत्रीय सत्ताएं इनकी कोई फिक्र नहीं करतीं। इसके बावजूद दुनिया में अहिंसक समाज बनाने और वैश्विक लोकतंत्र कायम करने का चिंतन और प्रयास अपने ढंग से चल रहा है।

नार्वे निवासी और शांति अध्ययन व दर्शन के प्रमुख प्रतिपादक प्रोफेसर योहान विन्सेंट गाल्तुंग के अनुसार हिंसा तब होती है जब मनुष्य की दैहिक या मानसिक किसी भी क्षमता को व्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता। यानी हिंसा वहां होती है जहां लोगों का शारीरिक और मानसिक विकास उनकी क्षमता से कम होता है। इसलिए हिंसा का कारण संभावित विकास और वास्तविक विकास का अंतर है। वे हिंसा के आर्थिक कारणों को चिह्नित करते हुए कहते हैं कि चंद वर्चस्वशाली देश अपने को शीर्ष पर बनाए रखने के लिए नए-नए आर्थिक सिद्धांत जारी करवाते हैं जो आर्थिक रूप से निहित संस्कृतिगत हिंसा का ही प्रतिबिंबन है।

गाल्तुंग अतिपूंजीवाद को मौजूदा संकट के लिए दोषी ठहराते हैं। वे कहते हैं कि अति पूंजीवाद का यह युग बहुत ही बेतुका है। यह देखते हुए कि कैसे नकारात्मक परिणाम संकट में बदल जाते हैं। केवल एक ही सुरक्षित भविष्यवाणी है कि यह टिकने वाला नहीं है। इसके स्थान पर क्या आएगा यह दूसरी बात है। उन्होंने कहा कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश `संरचनात्मक फासीवाद’ का पालन करते हैं और सामग्री और बाजारों को सुरक्षित करने के लिए युद्ध करते हैं। उन्होंने अमेरिका को एक हत्यारा देश कहा और कहा कि अमेरिका `नव फासीवादी राज्य आतंकवाद’ का दोषी है।

नानकिलिंग ग्लोबल पोलिटिकल साइंस(राजनीति शास्त्र का हिंसामुक्त स्वरूप) के लेखक अमेरिकी प्रोफेसर ग्लेन डी पेज कहते हैः—

इक्कीसवीं सदी की गोधूली बेला में राजनीति विज्ञान के सामने एक अहिंसापूर्ण विश्व समाज को उपलब्ध कराने की चुनौती है। वह केवल अपेक्षित ही नहीं अनिवार्य भी है। राजनीति शास्त्री यह कह कर नहीं बच सकते कि स्वतंत्रता, समानता और सुरक्षा की मान्यताएं उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।……आज मानवता इस मोड़ पर पहुंच चुकी है जिसमें राजनीति शास्त्र में अहिंसक नीति के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता के अभाव में ये सभी मूल्य संकट में पड़ जाएंगे।

ग्लेन डी पेज की पुस्तक की भूमिका में गांधीवादी एन. राधाकृष्णन लिखते हैं कि इस मामले में प्राचीन भारत के सम्राट अशोक का उदाहरण अनुपम है जो रक्तरंजित युद्ध के पश्चात शांतिदूत के रूप में परिवर्तित ही नहीं हुआ वरन विश्व की राज्य व्यवस्था में अहिंसा को सिद्धांत के रूप में स्थापित करने में सफल भी हुआ।

दरअसल ग्लेन डी पेज अपनी पुस्तक में उन लोगों से राजनीतिक और वैज्ञानिक तथ्यों व तर्को के आधार पर गंभीर बहस करते हैं जो मानते हैं कि मनुष्य तो स्वभाव से हिंसक और अहिंसक समाज संभव नहीं है। दुनिया के बहुत सारे समुदाय और देश हैं जहां पहले बहुत हिंसा थी और अब निरंतर कम होती गई है। ऐसे समुदाय हैं जहां हत्याओं की संख्या प्रति लाख में हजार की हुआ करती थी जो अब घटकर दस पर आ गई है।

इसीलिए वे `अहिंसक समाज’ की परिभाषा करते हुए कहते हैं—

`यह ऐसा मानव समुदाय है जिसमें छोटे से लेकर बड़े तक, स्थानीय से लेकर विश्व स्तर तक कोई भी किसी मनुष्य को न तो मारता है और न ही मारने की धमकी देता है। मनुष्यों को मारने के न तो हथियार बनाए जाते हैं और न ही उनके प्रयोग का कोई औचित्य होता है। समाज का कोई स्वरूप भय पर नहीं टिका होता है। समाज में परिवर्तन लाने तथा इसका स्वरूप यथावत रखने के लिए शक्ति का सहारा नहीं लिया जाता।’

विश्व युद्ध और सांप्रदायिक दंगों की भीषण हिंसा के बावजूद महात्मा गांधी अहिंसक समाज की उम्मीद पर कायम थे। उनका कहना था कि अगर इतिहास में हिंसा ही रही होती तो अब तक मानव समाज कटकर समाप्त हो गया होता।

ग्राम स्वराज्य और विश्व-सरकार की अवधारणा को गांधी के अनुयायियों डॉ राम मनोहर लोहिया और विनोबा भावे ने आगे बढ़ाया था। विश्व सरकार की अवधारणा की चर्चा प्रोफेसर आशीर्वादम जैसे विचारक भी करते हैं। गांधी के सागरीय वलय के सिद्धांत का विस्तार करते हुए विनोबा कहते हैं, “मुझे इसमें जरा भी संदेह नहीं कि भविष्य में सारे विश्व की एक पंचायत बनेगी। एक ओर होगी विश्व पंचायत, विश्व समिति तो दूसरी ओर होगी ग्राम पंचायत, ग्राम समिति। इनके बीच में जो प्रांत और राष्ट्र होंगे उनका महत्त्व धीरे धीरे घटता जाएगा। एक बाजू ग्राम स्वराज्य की योजना होगी तो दूसरी बाजू विश्व स्वराज्य की।’’ इसीलिए विनोबा जय जगत का नारा लगाते थे और शांति सेना का गठन करते थे।

आज के हिंसक समय को देखते हुए यह कल्पनाएं लोगों को ग्राह्य नहीं होंगी। वे उन्हें शेखचिल्ली की बातें कह सकते हैं, लेकिन हम जिधर बढ़ रहे हैं उस दुनिया की भयावह स्थिति को देखते हुए यह विचार अनिवार्य लगते हैं। अगर किसी बड़े विनाश से बचना है तो इन्हें अपनाना ही पड़ेगा। वह तभी होगा जब हम सूचनाओं के संकीर्ण बंदीगृह से निकल कर विवेक के अभय आकाश में उड़ान भरने का साहस करें और बुनियादी मानवीय मूल्यों पर विचार करने को गैर जरूरी काम न मानें। क्योंकि डॉ लोहिया ने कहा भी है कि अब मनुष्य नियति का दास नहीं है। उसके पास इतना विवेक आ चुका है कि वह सभ्यताओं के उत्थान और पतन के चक्र से इतिहास को मुक्त कर सकता है।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment