आनन्द कुमार स्वामी

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anand kumar swami

— आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल —

२ अगस्त १९४७ ई० को अपनी सत्तरवीं वर्षगांठ पूरी करके १० सितम्बर को मन और बुद्धि के अनेक वरदानों से परिपूर्ण आनन्द कुमार स्वामी अपने हृदय में एक अभिलाषा लिए हुए इस लोक से उठ गए । ऋषिकल्प इस महान् भारतीय के हृदय की वह अन्तिम अभिलाषा यह थी कि वे भारतवर्ष में लौट कर हिमालय के किसी शान्त आश्रम में अपनी आयु का शेष भाग व्यतीत करें । लगभग चार वर्ष पहले जब मैंने उनसे एक पत्र में प्रार्थना की कि वे इस देश में एक बार पधारें तो उन्होंने उत्तर में लिखा था, ‘इस समय मैं आत्मा पर एक महाग्रन्थ लिखने में लगा हूँ। उसके पूरा होने पर मेरी इच्छा भारतवर्ष लौटने की है’ भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय के प्रथम अध्यक्ष-पद के लिये मैंने कई बार मन-ही-मन श्री कुमारस्वामी का स्मरण किया था। परन्तु वे प्रसंग तो अब कल्पना की वस्तु हो गए है।

कुमारस्वामी के कुछ धुँधले और फ़ीके उल्लेख एक-दो भारतीय पत्रों में छपे और वे भी बिना चित्र के । सुन्दर लम्बा शरीर, जैसे चन्दन में ढली हुई कोई देव-प्रतिमा हो, पैनी आँखें, सौम्यता से भरा हुआ किन्तु अत्यन्त प्रखर बुद्धिसूचक मुख जो लहराते हुए केश और प्राचीन दाढ़ी से घिरा हुआ था— पुराने भारतीय ऋषियों की इस मुद्रा में श्री आनन्द कुमारस्वामी वैभवशाली बोस्टन नगर के एक भाग में आत्मानुकूल स्थान कल्पित करके पूरे तीस वर्षों तक ज्ञाननिष्ठ साधना में तल्लीन रहे। बोस्टन से बाहर भी सुन्दर वृक्षों की छाया में उन्होंने अपने लिये एक सुन्दर प्रकृति कुटीर बना रक्खा था। उनके मानस-दीप का प्रकाश दिन-दिन बढ़ता ही गया। जीवन के अन्तिम वर्षों में तो वे ज्ञान के पर्वत के जिस ऊँचे शिखर पर पहुँच गए थे वहाँ संसार के अनेक ज्ञान-साधकों ने उन्हें मानवीय ज्ञान की सनातनी एकता के प्रकाश को फैलाते हुए देखा । इस विश्वज्ञान को वे Philosophic Perennis कहा करते थे।

अपने एक पत्र में इसी के लिये ‘सनातन धर्म’ संज्ञा उन्होंने प्रयुक्त की थी। प्राचीन भारतीयों की तरह मनुष्य की इस ज्ञान -निष्ठता को सब सम्प्रदायों के धार्मिक ग्रन्थों और संतों के अनुभव-वाक्यों में पूर्व कला और संस्कृति के अन्य उपकरणों में वे देखने लगे थे। वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, दर्शन, भक्ति- सम्प्रदाय, पुराण और संत-मत – इन सब के भीतर पिरोए हुए एक तार को उन्होंने अपनी अन्तर्दृष्टि से पकड़ लिया था। इसी अन्तर्यामी सूत्र को ईसाई- धर्म, चीनी-दर्शन, इस्लाम और सूफी दर्शन के भीतर स्पष्टता से देखने में वे समर्थ हो सके थे। इन धमों के मौलिक ग्रन्थों और विश्व के प्राचीनतम गाथा-शास्त्रों का उन्होंने अध्ययन किया था और खुले हृदय से वे अपने आप को इनका ऋणी मानते थे। मानवी विचार और धर्मों की इस तात्त्विक एकता का जो विवेचन भाषा, तर्क और ज्ञान की अपरिमित शक्ति से कुमारस्वामी ने प्रस्तुत किया, उसने अति शीघ्र पूर्व और पश्चिम के दोनों भू-खंडों में, अनेक मनुष्यों का. ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। उनके लेखों से ऐसा प्रतीत होता है मानों अर्वाचीन समय में एक दूसरे के निकट आते हुए मनुष्य-समाज के लिये वे विचारों को अत्यन्त सरस, सौहार्दपूर्ण और संतुलित स्थिति का निर्माण कर रहे थे ।

कुमारस्वामी के पिता सर मुत्तु कुमारस्वामी मुदालियर सिंहल के अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उन्होंने बैरिस्ट्री की परीक्षा पास की थी। वे स्थानीय लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य थे। दट्ठा वंश और सुत्तनिपात नामक ग्रन्थों का उन्होंने अंग्रेजी में सर्वप्रथम अनुवाद किया था । १८७६ में उन्होंने प्राचीन घराने की एक अंग्रेज़ महिला से विवाह किया और २२ अगस्त १८७७ को इस दम्पती से आनन्द कुमारस्वामी का जन्म हुआ। कुमारस्वामी ‘अभी २ वर्ष के भी न हुए थे कि उनके पिता का देहान्त हो गया और उनकी माता ने उनका पालन-पोषण किया। वे १९४२ तक जीवित रहीं। कुमारस्वामी की शिक्षा यूनिवर्सिटी- कालेज लण्डन में हुई, जहाँ उन्होंने भू-गर्भ शास्त्र में पहिले बी० एस- सी० और फिर डी० एस-सी० परीक्षा पास की। १९०३ में वे डाइरेक्टर आव मिनरोलॉजिकल सर्वे, सीलोन के पद पर नियुक्त हुए और १९०६तक इस पद पर काम करते रहे। वैज्ञानिक विश्लेषण में प्रवीणता और तथ्य को ग्रहण करने की प्रवृत्ति, इन दो गुणों का परिचय उनकी इस समय की लिखी हुई सिंहल की भूगर्भ और खनिज-सम्बन्धी वार्षिक रिपोर्टों और लेखों से लगता है। उसी समय उन्होंने १९०४ की रिपोर्ट में सिंहल के खनिज-सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों और रत्नों के नाम शीर्षक से एक लेख लिखा था जो भारतीय कला की पारिभाषिक शब्दावली के संबन्ध में उनके आगे की छानबीन का मानो प्रथम प्रयास था।

वैज्ञानिक का उर्वर मस्तिष्क और कलाकार का भावुक हृदय – इन दोनों की भूमि में राष्ट्रीय भावों का अंकुर कुमारस्वामी के मन में शीघ्र ही प्रस्फुटित हुआ । इस अंकुर का विकास एक यश के रूप में उच्चतम निर्माण के लिये होता गया। सिंहल के प्राचीन उद्योग-धंधे, कला, रहन-सहन और जीवन की सुन्दर पद्धति पर पश्चिम के प्रहार और जीवन में बढ़ती हुई कुरूपता को देख कर कुमारस्वामी अत्यन्त चिंतित हुए, और मातृभाषा की शिक्षा और प्राचीन कला और शिल्प के विषय में अपने देश-वासियों की रुचि जाग्रत करने के लिये उन्होंने सीलोन सोशल रिफार्म सोसाइटी की स्थापना की और अपने संपादकत्व में ‘सीलोन नेशनल रिव्यू’ पत्र १९०६ में प्रकाशित किया।

शीघ्र ही सरकारी पद से त्यागपत्र देकर वे जीवन की समस्याओं के साथ आमने-सामने जूझने के लिये कार्यक्षेत्र में उतर आए; और विलायत में जाकर वहाँ थोड़े से आदर्शवादी मित्रों के साथ कार्य में जुट गए जो उन्हीं की तरह इंगलैंड के सामाजिक जीवन में कला के उद्धार के पक्षपाती थे। दो वर्षों के भीतर ब्रॉड कैंपडन नामक केन्द्र में स्थापित एसैक्स हाउस प्रेस से कई सुन्दर लेख और पुस्तकों का प्रकाशन किया । इन सब में अधिक महत्त्वपूर्ण मध्यकालीन सिंहल देशीय कला (मेडीवल सिंहलीज आर्ट) नामक ग्रन्थ था। इस में सिंहल के प्राचीन उद्योग-धंधों और कलाओं का स्थानीय पारिभाषिक शब्दावली के साथ विशद अध्ययन है। यूरुप की अन्य भाषाओं में भी इस प्रकार के अध्ययन बहुत कम है। देशीय शब्दों के द्वारा प्राचीन कला के वर्णन और अध्ययन की दृष्टि से यह ग्रन्थ आज भी समस्त देश के लिये और प्रत्येक प्रांतीय साहित्य के लिये एक आदर्श उपस्थित करता है। बड़े आकार के इस ग्रन्थ में अधिकांश रेखा-चित्र स्वयं कुमारस्वामी के बनाए हुए थे ।

1909में कुमारस्वामी भारतवर्ष आए और पहली बार उन्होंने देशव्यापी यात्रा करके यहाँ के विशाल मन्दिरों तथा कला-सामग्री को स्वयं अपनी आँखों से देखा । वे कलकत्ते में तीन सप्ताह विख्यात ठाकुरवंश के अतिथि रहे और तत्कालीन अन्य सांस्कृतिक नेताओं के सम्पर्क में भी आए एवं राष्ट्रीय उत्थान में भारतीय कला के महत्व पर बहुत काम किया। श्री अर्धेन्दु कुमार गांगुली के कथनानुसार यहीं 1909 में उन्होंने अपने सामने भारतीय साधक का आदर्श रखते हुए वैष्णव-धर्म की दीक्षा ग्रहण की।

१९१० में दूसरी बार कुमारस्वामी ने भारतवर्ष की यात्रा की । इण्डिया सोसाइटी आव ओरियण्टल आर्ट (भारतीय प्राच्यकला परिषद्) के निमंत्रण पर वे यहाँ आए थे और शीघ्र ही सन् १९१० की इलाहाबाद प्रदर्शिनी के कला विभाग के संयोजक नियुक्त हुए। इस स्वर्ण अवसर से लाभ उठाकर उन्होंने सामग्री-संग्रह के लिये भारत के उत्तर-दक्षिण के प्रान्तों की यात्राएं कीं और चित्रों और मूर्तियों का एक बहुत ही विशिष्ट निजी संग्रह एकत्र किया। प्रद‌र्शनी के बाद इस संग्रह को वे भारतवर्ष के किसी राष्ट्रीय कला-मन्दिर को देना चाहते थे। इनकी इच्छा थी कि काशी में इस प्रकार की कोई संस्था बने। इसके लिए लिखित अपील भी निकाली पर दुर्भाग्य से इस प्रकार के दुर्लभ संग्रह की रक्षा का भार लेने के लिये कोई संस्था उस समय उद्यत न हुई। कई वर्षों तक संग्रह उपयुक्त स्थान का मुँह जोहता रहा। अन्त में १९१७ में अमरीका के कला-प्ररखी श्रीयुत रॉस के परामर्श से बोस्टन म्यूजियम ने अपने यहां भारतीय कला का विशेष विभाग खोल कर उस संग्रह को उचित आदर दिया और कुमारस्वामी को उसका पालक मनोनीत किया। बाद में समय-समय पर भारतीय हिन्दू, मुस्लिम और ईरानी कला की नई सामग्री जोड़कर कुमारस्वामी ने इस संग्रह को बहुत बढ़ाया और अपने लेखों से निरन्तर उसे चमकाते रहे। आज बोस्टन म्यूजियम भारतीय कला का अनोखा तीर्थस्थान बना हुआ है। भारत के बाहर अन्यत्र कहीं भारतीय कला की इतनी विशिष्ट और बहुविध सामग्री एक स्थान में सुरक्षित नहीं है।

सन् सत्तरह से सैंतालीस के तीस वर्षों तक कुमारस्वामी बोस्टन के संग्रहालय में इस सामग्री की प्राणों की आहुति डाल कर सजीवन मूरि की तरह जुगोते रहे। भारतीय कला को देवता कल्पित करके वे उसकी आराधना में तल्लीन हो गए। उस कला के अनुकूल वातावरण में उन्होंने अपने पूर्ण विकास के लिये आदर्श संतुलित स्थिति प्राप्त कर ली थी जिससे फिर वे जीवन भर नहीं डिगे ।

कार्लाइल’ के शब्दों में वह बड़भागी है जिसे अपने जीवन का कार्य करने के लिये मिल जाय, उसे फिर किसी और वरदान की चाह नहीं करनी चाहिए । कुमारस्वामी का बोस्टन के सरस्वती मन्दिर के तीस वर्षों का जीवन प्राचीन भारतीय मनीषियों की तरह निरन्तर अविचल ज्ञान -साधना में व्यतीत हुआ, जिसमें उन्होंने यश और धन की कामनाओं से एक बार ही बड़ा अनुकूल और मीठा समझौता कर लिया था। ज्ञान के क्षेत्र में उनका मन सदा खुलता गया और उसी के लिये उन्होंने अपने उत्तम भाषण और लेखन-प्रतिभा को सोलह आने लगा दिया। दैनिक जीवन में ग्रन्थावलोकन से जो समय बचता उसे वे उपवन विनोद, और मत्स्यविनोद, इन दो रुचि के कामों में लगाते थे। लौकिक जीवन की ओर से मन की जिस स्थिति में उन्होंने अपने आप को डाल लिया था उसे बौद्ध शब्दों में कह सकते हैं ‘आकिंच्या ‘ और कुमारस्वामी के शब्दों में Self-naughting। इसी कारण अमरीका में रहते हुए भी चित्र अथवा जीवन चरित्र सब प्रकार के आत्म-विज्ञापन से उन्होंने अपने आपको खींच लिया था।

उनकी सत्तरवीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में कुमार स्वामी-अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने वाले उनके गुणानुरागी मित्र श्री भारत ऐयर ने 1944 में अपने एक पत्र में कुमारस्वामी से आत्मचरित लिखने की प्रार्थना की जिससे उनके मित्र उनके भरे-पूरे जीवन की आंतरिक कथा का कुछ स्वाद चख सकें। उन्होंने उत्तर में लिखा- ‘आत्म चरित लिखने के विचार के लिये मेरे मन में कोई स्थान नहीं है, क्योंकि मैं शुक्रनीति सार के शब्दों में प्रतिकृति-चित्र (portraiture) को अस्वर्ग्य मानता हूँ।’ इस प्रकार बाहरी जीवन में अपने आप को मिटा कर उन्होंने विचारों के क्षेत्र में आत्मा को सब प्रकार पुष्पित, फलित एवं लोक में प्रतिमण्डित बनाने का सतत प्रयत्न किया। यूरुप, इस्लामी जगत्, भारत, चीन और जापान के प्राचीन और नवीन धार्मिक और दार्शनिक साहित्य के अवगाहन में उन्होंने अपने आप को डुबो दिया था। वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, भगवद्‌गीता, महाभारत, रामायण, भागवत, गीतगोविन्द, कबीर, विद्यापति, बौद्ध निकाय, धम्मपद, मिलिन्द पन्ह, सद्धर्मपुण्डरीक आदि भारतीय साहित्य में अपनी अन्तःदृष्टि से वे रम गए थे।

स्कैण्डिनेविया के बोलसुंग, आइस्लैण्ड के एड्डा और सागा, प्राचीन वेल्स के मेबीनीगिअन गाथा-शास्त्र, तथा प्लेटो, प्लाटिनस, ईसाई धर्मग्रंथ , सेंट टामस एक्विनास और माइस्टर एक्हार्ट आदि के आध्यात्मिक ग्रन्थों का मनन करके पूर्व और पश्चिम के गाथाशास्त्र, अध्यात्म विद्या और कला-विधान की मौलिक एकता को उन्होंने भली भाँति पहचान लिया था। ‘चोटी पर पहुँचने के अनेक पन्थ’ (Paths that lead to the same Summit) शीर्षक उनका लेख भारतवर्ष की अत्यन्त प्राचीन मान्यता (बहुधाप्यागमैर्भिन्ना पन्थानः सिद्विहेतवः) को ज्ञान की एकता प्रदर्शित करने के लिये पुनः एक बार दोहराता है। इसके अनुसार यात्री का चरम लक्ष्य चोटी पर पहुँचना है, अपने दायें-बायें हट कर स्थान बदलना नहीं। पूर्व के ज्ञान और आध्यात्मिक अभिप्रायों की सहायता से प्राचीन और मध्यकालीन ईसाई धर्म की एकदम अपूर्व और हृदयंगम व्याख्या उन्होंने की थी ,जिसने पश्चिम में अनेकों को प्रभावित किया । वैदिकज्ञान के विषय में वे प्राचीन सनातनी व्याख्या और अनुभुति का समर्थन करते हुए उसमें एकदम नया अर्थ भर देते थे।

वैदिक परिभाषाओं को मानवीय ज्ञान और कला की मूल कुंजियाँ मान कर कुमारस्वामी ने उनकी विलक्षण व्याख्या की है जो प्रचीन होते हुए भी नूतन है। इस ‘वैदिक मनीषा’ को अपने जीवन की सफलताओं में वे सबसे अधिक मूल्यवान् समझते थे ।
लोक में उनकी कीर्ति मूर्तिकला के अनन्य व्याख्याता के रूप में ही विशेष हुई। भारतीय कला के इतिहास और परिचय के लिये उन्होंने युग-निर्माताओं वैसा महान् साका किया। कला-परायण साहित्य-सेवा की, जो पुण्य-धारा लगभग चालीस वर्षों तक कुमारस्वामी से प्रवाहित होती रही, उसके तटों पर अनेक उपयोगी ग्रन्थों और लेखों के सुन्दर और सुलभ तीर्थ बने हुए है।

कुमारस्वामी ने ही सर्वप्रथम राजस्थानी और पहाड़ी चित्र-कला का ठीक मूल्यांकन किया और भारतीय कला में आनन्द और सौंदर्य का एक अक्षय भंडार ढूंड़ निकाला। भारत के मिट्टी के खिलौनों पर एक अतिविशिष्ट मौलिक लेख अर्ली इण्डियन टेराकोटाज, सर्वप्रथम लिखकर इस विषय में पथ-प्रदर्शक का कार्य किया। फिर तो उनको आँख में समाया हुआ अर्थ देशव्यापी बन गया और भारतीय खिलौने हमारी कला के विशिष्ट अंग माने जाने लगे। उनके रागमाला टैक्स्ट्स और अष्ट नायिका नामक निबन्धों को पढ़ने से रीतिकालीन कविता का एक नया प्रतिष्ठित रूप सामने आने लगता है और ऐसा प्रतीत होता है कि एक विशेष क्षेत्र में भारत की रसपूर्ण संस्कृति को समझने की अत्यधिक सामग्री इस कविता में सुरक्षित है।

कुमारस्वामी इस शताब्दी के महान् आचायों में से थे। उन्होंने जो ज्ञानधारा बहाई, उसका सलिल हमारे विकसित नये जीवन के लिये भविष्य में और भी आवश्यक होगा। वे कला को जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। कला मन का कुतूहल नहीं और न बुद्धि का व्यसन है। कला का सच्चा आसन इससे बहुत ऊँचा है और उतना ही अनिवार्य है जितना साहित्य, धर्म, अध्यात्म और दर्शन का। जीवन-यापन की गहरी सच्चाई कला है। जीवन को सींचने वाले रस के रूप में कला पूर्वकाल में जीवित थी और भविष्य के लिये भी यही उसका पद है। मानवों के लिये कुमारस्वामी के जीवन का यही अनुभव-वाक्य था.

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